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22 साल बाद The साबरमती Report रिलीज होना: देखने के,इग्नोर करने के 7 कारण

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काफिर’ की हत्या, दोजख में जलने आदि वाली नफरत पर मुहर तो कट्टर इस्लामी सोच का हिस्सा है ही, लिखित है। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब ‘सलिमा’ वाली कौम इस नफरत को कैसे दिखाए, इसी का नतीजा है The साबरमती Report का 8297 दिन बाद रिलीज होना। मतलब 22 साल से ज्यादा का इंतजार।

28 अप्रैल 2006 की एक घटना है। एक फिल्म रिलीज होती है उस दिन। हर हफ्ते होते रहती है फिल्म रिलीज… लेकिन 28 अप्रैल 2006 का जिक्र इसलिए क्योंकि वो स्पेशल है। यूनाइटेड 93 (United 93) नाम की हॉलीवुड फिल्म आई थी उस दिन। जिस घटना पर यह फिल्म बनी थी, उसके 1721 दिन बाद। मतलब 5 साल से कम समय में घटना को सिनमाई पर्दे पर उतार दिया गया था।

United 93 के पहले भी कुछ फिल्में इस मुद्दे पर बनाई जा चुकी थीं। इस फिल्म का जिक्र इसलिए क्योंकि इसमें कहानी जो बुनी गई, वो सिनेमाई लकीर पर घटना को जोड़ती है। यही कारण है कि रॉटेन टोमैटोज, IMDb आदि पर इसकी रेटिंग शानदार है। 

घटना इतनी बड़ी थी कि हॉलीवुड तो छोड़िए, बॉलीवुड वाले भी इसको लेकर ‘सलिमा’ बनाने लगे थे। ये घटना थी 11 सितंबर 2001 की। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर इस्लामी आतंकी हमले की। घटना ऐसी कि ‘सलिमा’ बनाने वाले लोगों को इसमें भी My Name Is Khan टाइप कहानी और मसाला दिखने लगा था।

क्या अपने देश की इससे भी बड़ी घटना पर ‘सलिमा’ बनाने वालों की नींद टूटी? क्या उनके अंदर का कहानीकार उस घटना को बड़े पर्दे पर उतार कर जनता के सामने सच दिखा पाया? 9/11 से बड़ी घटना अपने देश में क्या सच में हुई है? उत्तर है – हाँ। और इस उत्तर के पीछे जो तर्क छिपा है, उसी के डर से डरता है ‘सलिमा’ बनाने वाला कौम।

27 फरवरी 2002 को 59 जिंदा इंसान आग में जला कर मार डाले गए थे। और यह घटना 9/11 से कहीं ज्यादा बड़ी और भयावह थी। मरने वालों की संख्या का तर्क इसके पीछे नहीं है। तर्क है घटना को अंजाम देने वालों की पहचान का। 9/11 को जिन लोगों ने अंजाम दिया, वो सब के सब ऐसे ही मजहबी मानसिकता और ट्रेनिंग लिए थे। लेकिन जिन लोगों ने साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को जलाया, वो सब्जी बेचने वाले से लेकर दर्जी या पेंटर से लेकर मौलवी-मौलाना और भीड़ में चलता कोई पड़ोसी हो सकता है, ऐसे लोग जिन पर हम भरोसा करते हैं।

कोई किसी को जिंदा जला कर कैसे मार सकता है? एक साथ 59 जिंदा लोगों को कैसे जलाया जा सकता है? ऐसे सवालों का जवाब है – नफरत मन में या दिल में नहीं बल्कि रूह तक उतर आए, तभी यह करने की कोई सोच भी सकता है। ‘काफिर’ की हत्या, दोजख में जलने आदि वाली नफरत पर मुहर तो कट्टर इस्लामी सोच का हिस्सा है ही, लिखित है। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब ‘सलिमा’ वाली कौम इस नफरत को कैसे दिखाए, इसी का नतीजा है The साबरमती Report का 8297 दिन बाद रिलीज होना। मतलब 22 साल से ज्यादा का इंतजार।

6 पैराग्राफ और 400 से ज्यादा शब्द के बाद भी The साबरमती Report की पटकथा, संगीत, अभिनय, सिनेमैटोग्राफी आदि पर नहीं लिख पाया हूँ, इसके लिए माफ कीजिए। लेकिन मैं भटका नहीं हूँ। दरअसल मुझे इस फिल्म का रिव्यू लिखना था भी नहीं। जरूरत ही नहीं। मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। मैं समाज में इस फिल्म के होने की जरूरत पर लिख रहा हूँ। इतनी बड़ी हृदय विदारक और लोमहर्षक घटना, जिसे भारतीय इतिहास से कभी भुलाया नहीं जा सकता, उस पर 22 साल क्यों लग गए किसी को फिल्म बनाने में, मुझे इसमें दिलचस्पी है।

क्यों देखनी चाहिए The साबरमती Report

‘ईमानदार लोग दोनों तरफ होते हैं’ – इस सीन पर आहत हैं तो एपीजे अब्दुल कलाम को लेकर आपके क्या विचार हैं? क्या उनको भी खारिज कर देंगे। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान अभी तो खैर बीजेपी में हैं लेकिन उन्होंने तो शाह बानो मामले पर अपनी ही कॉन्ग्रेस पार्टी के राजीव गाँधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, तो क्या उनको भी खारिज कर देंगे? कहानीकार और निर्देशक बस यह कहना चाह रहे कि समाज के किसी भी तबके में अगर कोई अच्छा है तो उसे उसी नजरिए से देखा जाए। क्या इतना कहने-दिखाने की भी आजादी नहीं हो उसे?

‘मुसलमानी टोपी पहने छोटे-छोटे बच्चों का इंडिया की जीत पर जश्न’ – ध्यान रखिए कि इस सीन में जो बच्चे दिखाए गए हैं, वो किशोरावस्था में नहीं पहुँचे हैं। निर्देशक यह दिखाना चाहता है कि मजहबी कट्टरपन का जहर अभी उनके दिमाग में नहीं भरा है, अबोध हैं, भारत की जीत पर खुशियाँ मना रहे हैं। क्योंकि इसी निर्देशक ने उसी मुस्लिम कॉलनी के उन्हीं बच्चों के व्यस्क परिवार वालों को पाकिस्तानी छक्के पर तालियाँ बजाते और पटाखे छोड़ते भी दिखाया है। दृश्य माध्यम में एकदम विपरीत संदर्भों को समानांतर प्रस्तुत करके दर्शकों को सोचने पर मजबूर करने की विधा खत्म कर देना चाहते हैं क्या?

‘मीडिया रिपोर्ट और 2 झूठी कहानियाँ’ – मीडिया ने साबरमती एक्सप्रेस के जलाए जाने के बाद झूठ ही गढ़ा है, यही तो कहना चाह रहा है निर्देशक। जिस मीडिया पर आप भरोसा करते हैं, उसके दिखाए विजुअल को ही सच मान लेते हैं, उसी का तो पर्दाफाश किया गया है। साबरमती एक्सप्रेस को किसने जलाया से ज्यादा इस फिल्म का फोकस है – किसने छिपाया, किसने षड्यंत्र रचा। मीडिया इसमें विलेन है – कहानी के इस लाइन से भला क्या और कैसी दिक्कत?

कहाँ किया जा सकता था सुधार

शुरुआती डिस्क्लेमर से लेकर अंतिम के साभार वाले सीन में उल्टी-पुल्टी-टूटी-फूटी लिखी हिंदी पर ध्यान नहीं दिया गया। यह अक्षम्य तब है, जबकि पूरी फिल्म में हीरो बार-बार अपने आप को हिंदी मीडियम वाला कह रहा होता है, उसे हिंदी पत्रकार होने पर गर्व भी होता है। निर्माता-निर्देशक को बिना पैसे खर्च किए उसी से प्रूफरीड भी करवा लेना चाहिए था, अगर सच में उसे रील वाली हिंदी रियल लाइफ में भी आती है तो!

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