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प्रधानमंत्री यह मत भूलें कि वे नौकर हैं और सदन मालिक -लोहिया

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अखिलेश अखिल

देश में चारों तरफ आफत है। सर्वत्र अशांति। प्रधानमंत्री मोदी ने पद की शपथ लेने से पहले ही युवाओं को कहा था कि तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें रोजगार देंगे। हर साल दो करोड़ रोजगार। 10 साल में 20 करोड़ रोजगार। युवाओं ने आकलन किया। डाटा तैयार किया तो पता चला कि अगर मोदी की रफ़्तार से रोजगार तैयार हो गए तो देश के युवाओं के भाग्य खुल जाएंगे। गरीबी और असमानता के दलदल में फंसे रहे महान कथाकार प्रेमचंद के सारे पात्र पवित्र और संपन्न हो जाएंगे। लोगों ने मोदी जी के बयान पर भरोसा किया।

युवाओं ने देश भर में बैठकें की। मिजाज को बदला। पिछली सौगंध को तिलांजलि दी और भगवा को वोट डाल  दिया। मन से नहीं दिमाग के मुताबिक़। लेकिन उधर तो वोट लेने के लिए दिमाग का खेल था। मन तो कहीं था ही नहीं। मोदी की सरकार अब दो दफा बन गयी है लेकिन रोजगार पर बात नहीं होती। जो बात करेगा, जो हल्ला मचाएगा, जो विरोध में जाएगा उसे बंद करने की व्यवस्था पहले से ही कर दी गई है। देशद्रोही बनाकर जेल में सड़ाने की व्यवस्था की गई है। सैकड़ों को कौन कहें अब हजारों युवा पिछले चाह सालों में किसी न किसी सवाल को लेकर जेल में बैठे बाल नोच रहे हैं।

पूरा देश पीएम मोदी को बधाई दे रहा है। विदेशी लोग भी प्रणाम करने के साथ ही बधाई दे रहे हैं। क्या मोदी जी का यह फर्ज नहीं बनता कि देश के युवाओं से वे संवाद करें और अपनी आलोचना सुनें। मोदी जी देश के प्रधान मंत्री हैं। भला देश का विपक्ष या फिर देश का युवा अपनी बात किससे कहे।

बेरोजगारी, महामारी और भारत-चीन के बीच तनातनी देश की प्रमुख समस्याओं में शुमार हैं। लेकिन सरकार कुछ भी बोलने को तैयार नहीं। जो बोलता है उस पर लगाम लगाने की पहले से तैयारी है।

ऐसे में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू की याद आती है जो अपनी आलोचना खुद भी करते थे और सामने वालों को भी आलोचना करने का मौक़ा देते थे।

अपनी आलोचना खुद कर गए नेहरू

1937 का समय था। देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। अंग्रेजों और आजादी के दीवानों के बीच तरह-तरह के खेल चल रहे थे। आज़ादी के लड़ाई की बागडोर तब नेहरू के हाथ में थी। नेहरु तब तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके थे। चारों तरफ नेहरू की धूम मची थी। उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही थी। तब कलकत्ता से एक पत्रिका छपती थी, नाम था मॉडर्न रिव्यू। राजनीतिक हलकों में इस पत्रिका की खूब प्रतिष्ठा थी।

इस पत्रिका में एक लेख छपा जिसका शीर्षक था ‘राष्ट्रपति’ और लेखक का नाम था चाणक्य। इस लेख में चाणक्य नामक लेखक ने पंडित नेहरू की धज्जियां उड़ा कर रख दी थी। नेहरू की जमकर आलोचना की गई थी। लेख में कहा गया था की ‘नेहरू को जिस तरह से लोग हाथों हाथ ले रहे हैं और उनके पीछे दीवाना हैं, कहीं एक दिन नेहरू तानाशाह न हो जाएं। चाणक्य नामक लेखक ने यह भी लिखा कि नेहरू तानाशाह हो सकता है इसलिए उसे रोकने की जरूरत है। उसकी हर बात पर यकीं करना ठीक नहीं। लेख के अंत में चाणक्य ने लिखा ”वी वांट नो सीजर्स।”

लेख प्रकाशित होने के बाद नेहरू की काफी आलोचना हुई। साथ ही लेखक चाणक्य भी आलोचना के शिकार हो गए। नेहरू के अंधभक्तों ने चाणक्य को बहुत कुछ कहा। लेकिन बाद में पता चला कि चाणक्य नामक वह लेखक कोई और नहीं बल्कि नेहरू ही थे जो नाम बदलकर जनता को आगाह कर रहे थे कि किसी पर आँख मूंदकर विश्वास मत करो। नेहरू को लगने लगा था कि जिस तरह से भारत के लोग उन्हें हाथों हाथ ले रहे थे, कहीं वे तानाशाह न बन जाएं। और ऐसा हुआ तो देश को बर्बादी से कौन बचाएगा।

62 के युद्ध के बाद नेहरू की आलोचना

इस तरह की डिबेट पार्लियामेंट में कभी-कभी ही हुआ करती है और होती भी है तो सदियां याद करती हैं। 1962 के युद्ध को लेकर संसद में काफी बहस हुई। उन दिनों अक्साई चिन चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने हंगामा कर  रखा था। लेकिन नेहरू को उम्मीद नहीं थी कि उनके विरोध में सबसे बड़ा चेहरा उनके अपने मंत्रिमंडल का होगा, महावीर त्यागी का। जवाहर लाल नेहरू ने संसद में ये बयान दिया कि अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है।

अंग्रेजी फौज का एक अधिकारी, जो इस्तीफा देकर स्वतंत्रता सेनानी बना और देश आजाद होने के बाद मंत्री बन गया। भरी संसद में महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर नेहरू को दिखाया और कहा- यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं। सोचिए इस जवाब को सुनकर नेहरू का क्या हाल हुआ होगा?

ऐसे मंत्री हों तो विपक्ष की किसे जरूरत? लेकिन महावीर त्यागी ने ये साबित कर दिया कि वो व्यक्ति पूजा के बजाय देश की पूजा को महत्व देते थे। महावीर त्यागी को देश की एक इंच जमीन भी किसी को देना गवारा नहीं था, चाहे वो बंजर ही क्यों ना हो और व्यक्ति पूजा के खिलाफ कांग्रेस में बोलने वालों में वो सबसे आगे थे। कांग्रेस के इतिहास में वो पहला नेता था, जिसने पैर छूने की परम्परा पर रोक लगाने की मांग की।

नेहरू के सबसे बड़े दोस्त और आलोचक लोहिया

भारत की राजनीति में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और उसके बाद भी ऐसे कई नेता हुए हैं, जिन्होंने अपने दम पर राजनीति का रुख बदल दिया। ऐसे ही एक राजनेता थे डॉ. राम मनोहर लोहिया, जो अपने सिद्धांतों के लिए हमेशा अडिग रहे।

लोहिया यूं तो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के मित्र थे, लेकिन मतभेद होने पर उन्होंने उनकी आलोचना भी खूब की। ऐसा ही एक वाकया तीसरी लोकसभा के दौरान वर्ष 1963 में आया।

उस वक्त तक देश चीन से सन् 62 युद्ध में मिली हार से पूरी तरह उबरा नहीं था। लोकसभा में इसी मसले पर बहस चल रही था। डॉ. लोहिया उसी साल फर्रुखाबाद सीट से उपचुनाव में जीत हासिल कर लोकसभा में पहुंचे थे और सदन की चर्चाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे।

डॉ. लोहिया ने युद्ध में चीन से हार के लिए तत्कालीन हुक्मरानों की मन की कमजोरी को भी जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री नेहरू से यह पूछा कि क्या सरकार की ओर से ऐसा सर्कुलर नहीं गया था, जिसमें लिखा था कि चीनी सेना से टकराव वाले भारतीय क्षेत्रों में से अगर किसी भी जगह का पतन शुरू हो तो वह जगह खाली कर दी जाए?

लोहिया ने आगे आरोप लगाया कि बोमदीला क्षेत्र में एक गोली भी नहीं चली, फिर भी वह खाली कर दिया गया। सिर्फ रात को कुछ हुल्लड़बाजी हुई और हम घबराकर पीछे हट गए। यह मन की कमजोरी नहीं तो क्या है? यह सुनकर पंडित नेहरू बिफर उठे। उस वक्त प्रश्नकाल खत्म होने वाला था। लिहाजा नेहरू ने बात को टालने की गरज से कहा – ‘यह तो प्रश्नकाल को बढ़ाना है कि मैं इस सवाल का जवाब अभी दूं। यह क्या सिलसिला है?

डॉ. लोहिया को नेहरू से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, सो उन्होंने गुस्से में कहा – ‘प्रधानमंत्री को सदन को जवाब देना ही होगा। प्रधानमंत्री यह मत भूलें कि वे नौकर हैं और सदन मालिक है। मालिक के साथ नौकर को अच्छी तरह बात करना चाहिए। यह सुनकर कांग्रेसी नेता डॉ. भागवत झा आजाद उठ खड़े हुए और लोहिया की बात का विरोध करते हुए बोले – ‘वह नौकर हैं तो आप चपरासी हैं।

इससे सदन का माहौल और गरमा गया। तब नेहरू लोकसभा स्पीकर की ओर मुखातिब होते हुए बोले – ‘डॉ. लोहिया आपे से बाहर हो गए हैं। जरा उनको थामने की कोशिश कीजिए। ऐसी-ऐसी बातें कर रहे हैं जो इस सदन में नहीं कही जातीं। इस पर लोहिया ने उसी अक्खड़ता से पंडित नेहरू से कहा – ‘आपको मेरी आदत डालनी पड़ेगी। मैं तो ऐसा ही रहूंगा।

आज ऐसा कौन होगा

आजाद भारत के अभी सात दशक ही हुए हैं लेकिन राजनीति अब पहले वाली नहीं रही। विरोधी पार्टी  का मतलब दुश्मन मान लिया गया। विपक्ष के सवाल को कमतर माना गया और उसमें राजनीति की खोज की जाने लगी। वर्तमान सरकार में कुछ ज्यादा ही इस तरह की समझ है। पहले की सरकार में विपक्ष के अलावा सत्ता पक्ष के बीच भी विपक्ष होता था लेकिन आज सत्ता पक्ष तो मौन है।

कोई सवाल उठा सकता है कि बीजेपी के 303 सांसदों के इलाके की सभी समस्याएं ख़त्म हो चुकी हैं। सभी बेरोजगारों को रोजगार मिल चुका है और सभी सांसदों की जनता अमन चैन से है। लेकिन जब सांसद ही मौन हैं तो सवाल कौन करे। फिर विपक्ष की राजनीति को कौन पूछता है। ऐसे में नए किस्म के तानाशाही राजनीति की बू आती है।

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