-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
मध्यप्रदेश के सागर जिला मुख्यालय से ४० कि. मी. दूर राष्ट्रीय राजमार्ग ८६ पर स्थित दलपतपुर से १३ कि.मी. की दूरी पर है नैनागिरि अतिशय-सिद्ध क्षेत्र। उस जमाने में लोग व्यापार के लिए छोड़ों पर सवार होकर या घोड़ों पर सामान लाद कर स्वयं उसकी लगाम पकड़कर पैदल चलते हुए जाते थे। बम्हौरी के महाजन श्यामले जी बम्हौरी से सागर पैदल या घोड़े पर व्यापार हेतु जाया करते थे। रास्ते में एक टेकरी पर इन्हें पैर में उपट्टा लगा, इन्होंने वहाँ देखा और कुछ खरोंचा तो पुरातात्त्विक महत्व की प्राचीन मूर्तियां मिलीं। और अधिक खनन व सफाई करवाने पर यहां एक ऐतिहासिक तीर्थ क्षेत्र ही मिला जिसका नाम है नैनागिरि-रेशंदीगिरि। उन्हीं पुरावशेषों में एक है तीर्थंकर अजितनाथ की प्रतिमा।
तीर्थंकर अजितनाथ प्रतिमा-
नैनागिरि में पर्वत पर उत्खनन में प्राप्त प्राचीन तीन प्रतिमाएँ अधिक खण्डित नहीं हैं। एक दृष्टि में तो ये सर्वांग दिखती हैं, और बहुत मनोहर हैं। एक पद्मासन तीर्थंकर ऋषभनाथ, दूसरी तीर्थंकर नेमिनाथ और तृतीय यह तीर्थंकर अजितनाथ की प्रतिमा है। सभी सपरिकर प्रतिमाएँ हैं। प्राचीन प्रतिमाओं को देखने से प्रतीत होता है कि वर्तमान समय की भांति परिकर रहित प्रतिमाओं का निर्माण ही नहीं होता था। सोलहवीं शताब्दी से पूर्व की प्रतिमाएँ सपरिकर ही प्राप्त होती हैं। संवत् पन्द्रह सौ में जीवराज पापड़ीवाल ने परिकर रहित हजारों प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवा कर बैलगाड़ियों में रखवाकर जगह-जगह के मंदिरों में स्थापित करवाई, तब से परिकर विहीन एकल प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा की परंपरा अधिक चल पड़ी।
नैनागिरि में नूतन सिद्धप्रतिमा मंदिर-हॉल में उक्त तीनों पुरातन प्रतिमाएँ सुन्दर एकल वेदियों पर स्थापित हैं। बीच की पद्मासन प्रतिमा के बायीं ओर और हम दर्शन करने खड़े होंगे तो हमारे दाहिने हाथ की ओर की खडगासन प्रतिमा तीर्थंकर आजितनाथ भगवान की है। 110 से.मी. अवगाहन और 33 से.मी. चौड़े लाल बलुआ पाषाण-फलक में उत्कीर्ण यह प्रतिमा सपरिकर है। इसके सिंहासन पर बीच में गज चिह्न और पार्श्व में दो-दो लघु जिन अंकित होने से यह पंचतीर्थी तीर्थंकर अजितनाथ की प्रतिमा निर्धारित होती है।
इसके सिंहासन में आगे को दो सिंह विरुद्धाभिमुख कलायुक्त उत्कीर्णित हैं। उनके बगल में कुछ पीछे को बायें तरफ महायज्ञ यक्ष, और दायें यक्षी-रोहणी है। जो कि प्रतिमा शास्त्र के अनकूल है। सिंहासन पर पाद-चौकी, उस पर एक छोटा कलात्मक पलासना जैसा लटका हुआ सिंहों के बीच में प्रदर्शित है। उस पर एक छोटा गज-चिह्न बना है। यह मुख्य प्रतिमा के अजितनाथ की होने का द्योतक है। मुख्य प्रतिमा जी के पार्शों में चॉमरधारी देव बने हैं। बायें तरफ के चॉमरधारी के दाहिने हाथ में और दाहिनी ओर के चॉमरधारी के बायें हाथ में चॅवर ढुराते हुए दर्शाया गया है। ये चॉमरधारी द्विभंगासन में कट्यावलम्बित-हस्त खड़े हैं। पूर्ण प्रतिमा-फलक में सर्वाधिक इन्हीं को अलंकृत किया गया है। शीश पर मुकुट किरीट, गलहार व दोहरा मुक्ताहार दर्शाया गया है। भुजाओं में भुजबंद, करों में कड़े, कटिमेखला, मेखला में अरुद्दाम व मुक्तदाम लम्बित हैं। अधोवस्त्रों के शल स्पष्ट प्रदर्शित हैं।
इन चॉमरधारी देवों के ऊपर के भाग में तीर्थंकर के दोनों पार्श्वों में चरण-चौकी पर एक-एक खडगासन हस्तावलम्बित दिगम्बर आकृतियां हैं जो तीर्थकरों की ही हैं। उनके भी ऊपर के स्थान में दोनों ओर एक-एक पद्मासन जिन चरण-चौकियों पर आसीन आमूर्तित हैं। इनका अंकन मुख्य प्रतिमा के स्कंधों तक है। इनसे ऊपर दोनों ओर गज-लक्ष्मी दो गज अर्धोत्थितासन में उत्कीर्णित हैं। इनके मोटी जंजीर की एक लड़ी पूंछ के नीचे से आकर पीठ-पेट को लपेट कर बंधी हुई संाकल में बांधे दर्शाया गया है। इन गजों की सूड़ नीचे को लटकी हुई है। बायें तरफ के गज पर पुरुष और दायें तरफ के गज पर स्त्री (जिसका केश-जूड़ा स्पष्ट देखा जा सकता है) एक एक कलश लिए अभिषेकातुर आरूढ़ प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर अजितनाथ की प्रतिमा बहुत सुन्दर कनकर्मत हुई है। भारत में अभी अर्वाचीन समय में जो खडगासन प्रतिमाएं विशेष तौर पर उत्तर भारत में बनावाई गई हैं उनके पाद और पादांगुलिकाएँ प्रतिमा की विशालता की अपेक्षा बहुत छोटे हैं।, इस प्रतिमा को उन सब दृष्टियों से देखें तो एक सामान्य व्यक्ति भी सहज कह सकता है कि इनके पाद प्रतिमा के सम्पूर्णांग के अनुपात में ही बने हैं। कायोत्सर्ग मुद्रा के हाथ लंबित हैं। पेट में त्रिवली स्वाभाविक है। नाभि गंभीर, विस्तीर्ण वक्षस्थल के मध्य अलंकृत श्रीवत्स चिह्न। ग्रीवा में भी गांभीर्य लिए हुए त्रिवली का अंकन है। विस्तीर्ण कर्ण, कर्णों के सहारे दोनांें ओर केश-लटें स्कंधों पर आयी हुई उत्कीर्णित हैं। सौम्य मुद्रा, नासाग्रदृष्टि है जो दिगम्बर प्रतिमा की मुख्य पहचान है। इस प्रतिमा के मस्तक पर कलायुक्त त्रिछत्र दर्शाया गया है।, छत्रत्रय के दोनों ओर उड्डीयमान मालाधारी युगल हैं। त्रिछत्र के ऊपर दुन्दुभि वादक स्पष्ट देखा जा सकता है। जो कि ढोलक पर थाप देता हुआ सुन्दरता युक्त अंकित है।
तीर्थंकर अजितनाथ की प्रतिमाओं का अंकन भी बहुत प्राचीन है। अशोक की लाट में बैल, हाथी, घोड़ा और सिंह का चिह्न है। रागगिर के सोनभण्डार में जो चतुर्मुखी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा पायी गई है, उसकी चारों प्रतिमाओं में से एक पर गज चिह्न है। यह प्रतिमा बहुत प्राचीन है। नौवीं-दसवीं शताब्दी की तो गज चिह्न की अनेक प्रतिमाएं हैं। कई प्रतिमाओं पर सिंहासन के लिए भी सिंहों के स्थान पर दो हाथियों का अंकन किया गया है। किन्तु चिह्न के लिए मुख्य पहचान यह है कि जो विरुद्धाभिमुख अर्थात् एक-दूसरे की ओर पीठ किये हुए अंकित हैं तो वे पराक्रम सूचक सिंहासन के लिए उत्कीर्णित किये गये हैं, चाहे हाथी हों या सिंह। यदि अनुकूलाभिमुख अर्थात् एक-दूसरे को देखते हुए से शिल्पित हों तो वे तीर्थकर प्रतिमा के चिह्न के सूचक हैं। और यदि दो की जगह एक ही है तो वह निरापद चिह्न ही है। किन्तु जब तीर्थंकर संयुक्त रूप में शिल्पित हों तब पूरे परिकर की परिस्थितियों का अवलोकन कर निर्णय लिया जा सकता है। इस प्रतिमा का समय नौवीं से ग्यारहवीं शताब्दी अनुमानिक किया जा सकता है।
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर