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चुनाव में सचिन पायलट को साथ रखने की मजबूरी है अशोक गहलोत की

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एस पी मित्तल अजमेर

सब जानते हैं कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने प्रतिद्वंदी पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट की शक्ल देखना भी पसंद नहीं करते हैं, लेकिन 8 अक्टूबर को गहलोत को पायलट को न केवल अपनी कार में बैठाना पड़ा, बल्कि उपचुनाव पर आयोजित सभा के मंच पर भी बैठाया। इतना ही नहीं अपने संबोधन में गहलोत ने पायलट का नाम भी लिया। अशोक गहलोत मुख्यमंत्री के पद पर हैं। गहलोत की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री की कार में बैठता है तो स्वाभाविक है कि मुख्यमंत्री की सहमति होगी। 8 अक्टूबर को उदयपुर के वल्लभनगर में हेलीपैड से चुनावी सभा तक के मार्ग में सीएम गहलोत की कार पायलट ने ही चलाई। मुख्यमंत्री की कार तभी चलाई जा सकती है, जब सुरक्षा अधिकारियों और स्वयं मुख्यमंत्री की सहमति हो। ड्राइवर को उतार कर हर कोई मुख्यमंत्री की कार नहीं चला सकता। कांग्रेस पार्टी की ओर से 8 अक्टूबर को मीडिया में जो दृश्य दिखाए गए, उन्हीं से सवाल उठता है कि क्या चुनावों में सचिन पायलट को साथ रखने की अशोक गहलोत की मजबूरी है? 6 माह पूर्व हुए तीन उपचुनावों में भी गहलोत और पायलट को इी तरह एक साथ दिखाया गया। जब उपचुनावों में पायलट को साथ रखने की जरूरत है, तो फिर विधानसभा के चुनावों में भी पायलट को साथ रखने की जरूरत होगी। सवाल उठता है कि क्या अशोक गहलोत अपने कांग्रेस को जिताने की स्थिति में नहीं है? आखिर क्यों उन्हें हर चुनाव में पायलट को साथ रखने की जरूरत पड़ती है? सब जानते हैं कि मौजूदा समय में पायलट सरकार और संगठन के किसी भी पद पर नहीं है। पायलट की राजनीतिक हैसियत सिर्फ एक विधायक की है, लेकिन इसके बावजूद भी अशोक गहलोत, पायलट से अपनी कार चलवाते हैं तथा चुनावी मंच पर बैठाते हैं। सचिन पायलट जैसे कई विधायक होंगे, लेकिन ऐसे विधायकों से गहलोत कभी अपनी कार नहीं चलवाते। असल में गहलोत भी जानते हैं कि पायलट के बगैर चुनाव जीतना मुश्किल है। 2018 के चुनाव में गहलोत, पायलट का प्रभाव देख चुके हैं। 2013 के चुनाव में गहलोत के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस को 200 में से सिर्फ 21 सीटें मिली थीं। इतनी बुरी दशा में पायलट को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। पायलट के नेतृत्व में ही 2018 में कांग्रेस को 100 सीटें मिली। हाईकमान के सहयोग से गहलोत भले ही मुख्यमंत्री बन गए हों, लेकिन गहलोत को भी पायलट के प्रभाव के बारे में पता है। दो साल पहले पायलट से डिप्टी सीएम और प्रदेशाध्यक्ष का पद छीन लिया गया, लेकिन आम लोगों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में पायलट का प्रभाव कम नहीं किया जा सकता। पिछले एक वर्ष से पायलट के पास एक विधायक का पद है और सरकार एवं संगठन में पायलट की बिल्कुल भी नहीं चल रही है, लेकिन इसके बावजूद भी गहलोत को चुनावों में पायलट को साथ रखना पड़ता है। हालांकि पिछले एक वर्ष में गहलोत ने अपने मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को प्रदेशाध्यक्ष बनाकर पायलट के मुकाबले में खड़ा करने की खूब कोशिश की, लेकिन डोटासरा, पायलट के बराबर नहीं आ पाए। असल में सत्ता मिलते ही डोटासरा अपने परिवार के सदस्यों को आरएएस बनवाए और मित्रों को कोचिंग सेंटरों को चमकाने में लग गए। पायलट से पद छीन कर डोटासरा को देने के बाद गहलोत अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सके। यदि डोटासरा मजबूत स्थिति में होते तो गहलोत कभी पायलट से अपनी कार नहीं चलवाते।

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