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ग्राहकों के भरोसे पर बैंकें कर रही है कुठाराघात

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बैंकों ने अपने सेवा शुल्क बढ़ा दिये हैं जिससे न केवल बैंकों के साथ उनके ग्राहकों के संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है बल्कि बैंकिंग प्रणाली के प्रति उनका भरोसा भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। अब बैंक न तो वह स्थान प्रतीत होता है जहाँ लोग अपने पैसों को सुरक्षित रख सकते हैं और न ही वह सेवा प्रदाता जो आम लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से काम करते थे । अब बैंक अपने अस्तित्व के उद्देश्य और प्रकृति के विपरीत काम करने लगे है। उच्च सेवा शुल्कों के कारण ग्राहकों की सोच और प्राथमिकताओं में बचत और निवेश से जुड़े कई बदलाव आए हैं।

बैंकों और उनके ग्राहकों के बीच संबंध निर्धारित करने में कई कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बैंक अपने ग्राहकों को किस तरह की सेवाएं प्रदान करते हैं और उन तक कैसे पहुंचाते हैं जिससे उनकी वित्तीय जरूरतें पूरी हो सकें। बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी इसी उद्देश्य से किया गया था कि सभी लोगों तक बैंकिंग सेवाएं पहुँच सके विशेष रूप से गरीब, पिछड़े और मजदूर लोगों तक। पिछले पांच दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक देश की पूरी अर्थव्यवस्था में योगदान और आकार देने में एक महत्वपूर्ण संस्थानों के रूप में उभरे हैं । देश की आबादी की सबसे बड़ी संख्या ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों मे अपना खाता इसलिए खोला क्योंकि सरकारी वित्तीय संस्थान काफी स्तर तक विश्वसनीय और जवाबदेह होते थे।

लेकिन यह सब पिछले कुछ वर्षों से तब बदल गया जब सरकार ने बैंकों द्वारा कई सेवा शुल्कों को ग्राहकों पर लगाए जाने का निर्णय लिया । ये शुल्क लगभग सभी मूलभूत सेवाओं जैसे एसएमएस अलर्ट, नगद निकासी / जमा, एटीएम से बैलेंस पूछताछ, डेबिट कार्ड वार्षिक शुल्क, डेबिट कार्ड जारी और पुन: जारी करने, किसी भी मोबाइल नंबर, पता या अन्य केवाईसी संबंधित परिवर्तन, कैश डिपॉजिट मशीन पर पैसा जमा करने, एटीएम पिन जेनरेशन, चेक बुक आदि पर बैंकों द्वारा लगाए जाते हैं।

सभी बैंकों ने अपने सेवा शुल्क बढ़ा दिये हैं जिससे न केवल बैंकों के साथ उनके ग्राहकों के संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है बल्कि बैंकिंग प्रणाली के प्रति उनका भरोसा भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। अब बैंक न तो वह स्थान प्रतीत होता है जहाँ लोग अपने पैसों को सुरक्षित रख सकते हैं और न ही वह सेवा प्रदाता जो आम लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से काम करते थे । अब बैंक अपने अस्तित्व के उद्देश्य और प्रकृति के विपरीत काम करने लगे है।

उच्च सेवा शुल्कों के कारण ग्राहकों की सोच और प्राथमिकताओं में बचत और निवेश से जुड़े कई बदलाव आए हैं। न्यूनतम बैंक शुल्क और कम लागत की तलाश में ग्राहकों का एक बैंक या खाते से दूसरे बैंक या खाते मे बदलते स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहां तक कि वास्तव में वे अपना पैसा बैंक खातों के बजाय अपने पास रखना ज्यादा पसंद करेंगे क्योंकि ये सभी शुल्क उनकी बचत को समाप्त कर बैंको में पैसा रखना असुरक्षित बना रहे हैं।

बैंकिंग सेवाओं के लाभ से संबंधित उच्च लागत और अनिश्चितता से बचने के लिए लोगों ने उन वैकल्पिक निवेशों पर विचार करना शुरू कर दिया है जो उन्हें अपने पैसों के लिए उच्चतम संभव रिटर्न दे सके। ये चार्जेस ग्राहकों के भविष्य के निर्णय या विकल्पों को भी आकार देंगे कि वे किस तरह के बैंक में अपने खाते खोलना चुनेंगे । कुछ ग्राहक अलग बैंकिंग प्रणाली जैसे कि भुगतान बैंक, छोटे बैंक या अन्य गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में स्थानांतरित हो सकते हैं।  वे निश्चित रूप से अपने खाते खोलने के लिए किसी भी बैंक को चुनने में अधिक सावधानी बरतेंगे। वे उस बैंक द्वारा प्रदान किए जाने वाले सेवाओं से पहले उनके द्वारा लगाए बैंक शुल्कों पर अधिक ध्यान देंगे। इन सबसे भी बुरी हालत निम्न मध्यम वर्ग और गरीब लोगों की होगी जिन्हें सरकारी लाभ लेने के लिए बैंकिंग प्रणाली में मजबूरन शामिल होना पड़ेगा और फिर उन्हें बैंक शुल्क के नाम पर लूटा जाएगा।

ग्राहकों को बैंकिंग से दूर ले जाने का जोखिम बैंक नहीं उठा सकते है क्योंकि यह संस्थान लोगों की जमा राशि पर ही चलती है । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि बैंकों को अपने परिचालन के तरीकों की समीक्षा करनी चाहिए और राष्ट्रीयकरण के लक्ष्यों पर वापस जाना चाहिए। अन्यथा आम जमाकर्ताओं के बिना यह अपने अस्तित्व से ही दूर हो जाएंगे ।

इसलिए ‘नो बैंक चार्जेस’ अभियान के माध्यम मांग करता हैं कि आरबीआई और बैंक बचत खाताधारकों पर लगाए गए सभी सेवा शुल्क को वापस लें क्योंकि यह ग्राहकों को सबसे नकारात्मक तरीके से प्रभावित कर रहा है और बैंकिंग प्रणाली के प्रति उनके विश्वास को धूमिल कर रहा है।

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