2024 लोकसभा चुनाव में अब कुछ सप्ताह की ही देरी है, जिसके लिए पीएम मोदी की ओर से व्यूहरचना में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी गई है। इस बार के बजट सत्र में उन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सवालों के जवाब में 10 वर्ष पूर्व के यूपीए शासनकाल को ही सवालों के घेरे में नहीं रखा, बल्कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के भाषणों को इतिहास के पन्नों से खंगालकर चुनिंदा तरीके से भावी चुनावी रणनीति के लिहाज से ट्विस्ट देने का भरसक प्रयास किया है। इतना ही नहीं, अपनी सरकार के काम-काज पर श्वेत-पत्र लाने के बजाय 2004-2014 तक यूपीए प्रथम एवं द्वितीय सरकार पर इस सरकार ने श्वेत-पत्र सदन में पेश किया, जोकि भारतीय संसदीय इतिहास में पहली घटना है। इसी को देखते हुए कांग्रेस की ओर से भी ब्लैक-पत्र जारी कर मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों के कारनामों को उजागर किया गया।
अपनी चार्जशीट में इन नागरिक समाज समूहों के द्वारा पिछले 10 वर्षों के दौरान भाजपा सरकार के द्वारा भारतीय संसदीय लोकतंत्र पर सुनियोजित हमलों का क्रमवार विश्लेषण करते हुए आलोचना पेश की गई है। इस चार्जशीट का मकसद मौजूदा सरकार के किस प्रकार से संसदीय प्रक्रियाओं एवं कानून को जानबूझकर नष्ट कर भारतीय संसदीय लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट किया गया है, इस तथ्य को उजागर करना है। एक ऑनलाइन प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से विभिन्न लोगों एवं संगठनों के द्वारा इस चार्जशीट को देश के संज्ञान में लाने के लिए जारी किया गया है।
एक तरफ इस बीच जहां एक नई संसद का निर्माण किया गया है, वहीं दूसरी तरफ संसदीय लोकतंत्र पर पिछले दस वर्षों से लगातार हमले किये गये हैं। इस आरोपपत्र में उन तरीकों का ब्यौरा पेश किया गया है, जिनके माध्यम से लोकतंत्र को नष्ट किया गया है, और यह समस्त भारतीय नागरिकों से सांसदों एवं सत्तारूढ़ सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए कार्रवाई का आह्वान करता है। चार्जशीट में साफ़-साफ़ संकेत दिया गया है कि किस प्रकार से मोदी सरकार ने देश की संसद को एक बहुसंख्यकवादी एवं अलोकतांत्रिक कानूनों का निर्माण करने के साधन में बदल देने के लिए जानबूझकर प्रक्रियाओं और संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है। संसदीय लोकतंत्र में इस प्रकार की तोड़फोड़ लोकतंत्र के पतन का मार्ग प्रशस्त करती है।
चार्जशीट में इस तथ्य की ओर विशेष ध्यान दिलाया गया है कि लोकसभा के पिछले दो कार्यकालों में अब तक सबसे कम सत्र चले हैं, जो दर्शाता है कि देश को कैसे चलाया जाए, उसके लिए बनाई जा रही नीतियों पर बहस एवं चर्चा के लिए आज स्पेस कितना कम हो गया है। 17वीं लोकसभा में पहली बार देखने को मिला कि पूरे 5 वर्ष के दौरान लोकसभा के उपाध्यक्ष को सरकार द्वारा निर्वाचित ही नहीं किया गया, जो परंपरागत रूप से विपक्ष का उम्मीदवार होता है। इस प्रकार यह प्रत्यक्ष रूप से संविधान के अनुच्छेद 93 का उल्लंघन है। इतना ही नहीं, 2009-2014 के यूपीए शासनकाल के दौरान जहां सभी बिलों में से करीब 71% को स्थायी समितियों को भेजा गया था, जबकि 2019 के बाद मात्र 16% बिलों को ही स्थायी समितियों के पास भेजा गया है। चौंकाने वाली यह भी है कि संसद में पेश किए गए कुल 301 में से मात्र 74 यानी 24.5% विधेयकों को ही 2014 और 2021 के बीच परामर्श के लिए जारी किया गया।
‘हम भारत के लोग बनाम भारत सरकार’ चार्जशीट का हिंदी अनुवाद हम जस का तस जनचौक के पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं, जो इस प्रकार से है:
हम भारत के लोग
बनाम
भारत सरकार
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त हमारे संसदीय लोकतंत्र को नष्ट किये जाने के लिए
भारत सरकार के खिलाफ आरोप पत्र
आरोपों की सूची
1. लोकसभा में पूरे 5 वर्ष के द्वारा लोकसभा उपाध्यक्ष की नियुक्ति न कर अनुच्छेद 93 का उल्लंघन किया गया
2. लोकसभा के पूरे कार्यकाल के दौरान सबसे कम बैठकों का रिकॉर्ड, संसद को अपने मन-मुताबिक चलाने एवं नियंत्रित करने, सरकार को जवाबदेह बनाने के अवसरों को कम करने का आरोप
3. संसदीय छानबीन को दरकिनार कर ज्यादा से ज्यादा अध्यादेश लाने पर जोर, संविधान के साथ धोखाधड़ी करते हुए अध्यादेशों को दोबारा से जारी करने का आरोप
4. लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किए बिना विधेयक लाना, सदन में विपक्षी सांसदों की अनुपस्थिति में अलोकतांत्रिक तरीके से बिना किसी चर्चा के विधेयकों को पारित करने का आरोप
5. कानून निर्माण की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव, उचित सार्वजनिक परामर्श एवं पूर्व-विधान परामर्श नीति का उल्लंघन करना एवं विधेयकों को स्थायी समितियों के पास न भेजने का आरोप
6. पर्याप्त जांच के बगैर ही बजट पारित करना, जिसमें वित्त विधेयक में चुनावी बांड जैसे विवादास्पद प्रावधान शामिल हैं
7. शीतकालीन सत्र 2023 के दौरान रिकॉर्ड संख्या में विपक्षी सांसदों का निलंबन और इस प्रकार वस्तुतः विपक्ष के बगैर ही संसद द्वारा कई विवादास्पद विधेयकों पारित कर दिया गया
8. सवालों से सरकार की असहजता, विपक्षी सांसदों द्वारा पूछे गए सवालों को डिलीट कर देने सहित मंत्रालय द्वारा पूछे गये सवालों पर गोलमोल जवाब दिए गये
विस्तृत साक्ष्य
आरोप: लोकसभा में उपाध्यक्ष की नियुक्ति न करना संविधान के अनुच्छेद 93 का उल्लंघन है
प्रमाण:
17 जून 2019 को 17वीं लोकसभा की शुरुआत के बाद से ही लोकसभा में कोई उपाध्यक्ष नहीं चुना गया। आजादी के बाद यह पहली बार है जब लोकसभा का कार्यकाल उपाध्यक्ष के पद को पूरे 5 वर्ष तक खाली रखकर पूरा होने जा रहा है, जबकि संविधान के अनुच्छेद 93 के आदेश के मुताबिक लोकसभा को जल्द से जल्द लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चयन करना होगा। चूँकि अध्यक्ष पद के लिए आमतौर पर सरकार द्वारा अपने नामित व्यक्ति का चयन किये जाने की परंपरा है, ऐसे में उपाध्यक्ष पद के लिए विपक्ष से चयन किया जाता है। लोकसभा में सत्तारूढ़ दल के प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए जानबूझकर नामांकन में देरी की जाती है।
आरोप: लोकसभा के पूर्ण कार्यकाल में रिकॉर्ड संख्या में सबसे कम बैठकें, संसद को अपने मन-मुताबिक चलाने एवं नियंत्रित करने सहित सरकार को जवाबदेह बनाने के अवसरों को कम से कम किया गया
प्रमाण:
• 16वीं लोकसभा (2014-19) के पांच वर्षों के कार्यकाल के दौरान सबसे कम बैठकें (331) आयोजित की गईं। हालाँकि, अब ऐसा लगता है कि 17वीं लोकसभा में सबसे कम बैठकें (करीब 278) होने की संभावना है (2024 के निर्धारित बजट सत्र सहित)। यह एनडीए के पहले पूर्ण कार्यकाल – 13वीं लोकसभा (1999-2004) के दौरान 423 बैठकों की तुलना में भी काफी कम (लगभग 34% कम बैठकें) है।
• 2020 के दौरान कोविड-19 महामारी को बहाना बनाकर भारतीय संसद का सत्र मात्र 33 दिनों का था। वहीं दुनिया भर में कई अन्य लोकतंत्रों ने आभासी (वर्चुअल) संसद सत्र का आयोजन कर अपने देश में संसद सत्र को जारी रखा, यहां तक कि दूरस्थ मतदान (रिमोट वोटिंग) जैसे कार्य भी संपन्न कीये, जबकि भारतीय संसद वर्ष के अधिकांश समय तक ठप पड़ी रही। 2020 का शीतकालीन सत्र तो हुआ ही नहीं। यहां तक कि संसद की स्थायी समितियां भी कोविड-19 की पहली लहर के चरम के दौरान इस पर सरकार के रुख, बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों के पलायन इत्यादि जैसे बेहद महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने के लिए नहीं बैठ सकी, क्योंकि उन्हें आपस में मुलाक़ात की अनुमति ही नहीं दी गई।
• संसद के सत्र को छोटा करने के लिए राज्य विधानसभा के चुनाव एक असंवैधानिक बहाने के तौर पर इस्तेमाल में लाये गये। 2017 और 2022 में गुजरात जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों का हवाला देकर शीतकालीन सत्र में देरी की गई और उनकी अवधि को छोटा कर दिया गया। इसी प्रकार 2018 और 2023 में भी राजस्थान एवं तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों में चुनावों की वजह से फिर से शीतकालीन सत्र में देरी की गई और सत्र को छोटा कर दिया गया।
• जब कभी सरकार एक सत्र में अपने एजेंडा को पूरा कर लेती है, तो वह सत्र को तय समय से पहले ही स्थगित करवा देती है। उदाहरण के लिए 2020 से 2022 के बीच लगातार सात सत्र तय समय से पहले खत्म कर दिए गये। 2023 में विशेष सत्र और शीतकालीन सत्र भी तय समय से पहले समाप्त हो गया। जब कोई सत्र निर्धारित समय से पहले समाप्त हो जाता है, तो शेष दिनों के लिए पूछे गए सभी प्रश्न भी समाप्त हो जाते हैं, और इस प्रकार तमाम सांसद सदन में सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को उठाने का अमूल्य अवसर भी खो देते हैं। इस प्रकार, संसद आम लोगों से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करने के बजाय, सिर्फ सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक मंच के रूप में सीमित रह जाती है।
प्रमाण:
आरोप: संसदीय छानबीन की प्रक्रिया को दरकिनार कर ज्यादा से ज्यादा अध्यादेश लाने पर जोर, संविधान के साथ धोखाधड़ी करते हुए अध्यादेशों को दोबारा से जारी करने का आरोप
• यूपीए सरकार में 2004-14 के दौरान कुल 61 अध्यादेश जारी किए गए थे। वहीं 2014 से 2021 के बीच ही 76 अध्यादेशों के साथ यह रिकॉर्ड टूट चुका था।
• भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को (2014-15) के दौरान 3 बार आगे किया गया। इसी प्रकार, शत्रु संपत्ति (संशोधन एवं सत्यापन) अध्यादेश को एक ही वर्ष (2016) में 5 बार आगे किया गया था, जो कि एक तरह का रिकॉर्ड है। अध्यादेशों को दोबारा से जारी करना संविधान के साथ धोखाधड़ी है, क्योंकि अध्यादेश बनाने की शक्ति के उपयोग को सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में अस्थायी प्रावधान के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए।
• तीन कृषि कानूनों को पहली बार अध्यादेश के रूप में पेश किया गया था, क्योंकि उस दौरान लोग 2020 में कोविड की पहली लहर से खुद को बचाने में व्यस्त थे।
• 2023 में, एनसीटी दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश जारी किया गया, जो कि असल में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिल्ली सरकार को दिल्ली में ‘सेवाओं’ पर नियंत्रण प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए लाया गया था। यह असल में मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के द्वारा कानून के राज के मुताबिक बेहतर लोकतांत्रिक एवं पारदर्शी तरीके से अपना काम करने में उसकी विफलता की ओर इशारा करता है।
आरोप: लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किए बगैर ही विधेयकों को पेश करना, सदन में विपक्षी सांसदों की अनुपस्थिति में अलोकतांत्रिक ढंग से बगैर चर्चा के विधेयक पारित करना
प्रमाण:
• 17वीं लोकसभा में अब तक (21 दिसंबर, 2023 तक), लोकसभा में 86 विधेयक और राज्यसभा में 103 विधेयकों को 2 घंटे से भी कम समय में बहस कराकर पारित किया गया।
• 2023 के शीतकालीन सत्र में, संसद के दोनों सदनों से विपक्षी सांसदों के सामूहिक निलंबन के बाद, केवल 3 दिनों के भीतर ही संसद के दोनों सदनों द्वारा लगभग 14 विधेयकों को मंजूरी प्रदान कर दी गई। इस पूरी कार्रवाई के दौरान विपक्ष को या तो भागीदारी करने का मौका नहीं मिला या उनकी न्यूनतम भागीदारी रही। ।
• 2023 के शीतकालीन सत्र के दौरान 3 आपराधिक विधेयकों पर लोकसभा में हुई चर्चा में कुल 34 सांसदों ने हिस्सा लिया, जिनमें से अकेले 25 सांसद भाजपा से थे, और इसी प्रकार राज्यसभा में विधेयक पर बोलने वाले 40 सांसदों में से 30 सासंद भाजपा से थे।
• 2020 के मानसून सत्र में भी चूंकि विपक्षी सांसदों के द्वारा फार्म बिल को पारित किये जाने के दौरान जिस प्रकार से संसद को सचालित किया गया था, के विरोध में सदन का बहिष्कार करने का फैसला किया था, उस सत्र में पारित कुल 27 विधेयकों में से 15 विधेयकों को पारित करते समय विपक्षी सांसद किसी एक सदन या दोनों में गैर-हाजिर थे।
• 2021 के मानसून सत्र में, जब विपक्ष पेगासस जासूसी कांड एवं किसानों के आंदोलन को लेकर बहस की मांग पर लगातार विरोध कर रहा था, जिसपर सरकार ने रोक लगा रखी थी, तो उस दौरान लोकसभा ने भारी हंगामे एवं विरोध के बीच 18 विधेयकों को मंजूरी प्रदान कर दी थी। इनमें से प्रत्येक विधेयक पर औसतन मात्र 15 मिनट खर्च किए गये, जबकि कुछ बिल तो 5-6 मिनट के भीतर ही पारित कर दिए गये थे।
• 2023 के मानसून सत्र में, एक सप्ताह के भीतर ही लोकसभा ने 7 विधेयकों को मात्र 21 मिनट के औसत समय के भीतर पारित कर दिया। इनमें से विवादास्पद वन संरक्षण संशोधन विधेयक लोकसभा में 33 मिनट के भीतर पारित हो गया था, जिसपर सिर्फ 4 सांसदों ने अपनी बात रखी थी। लोकसभा में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पर सिर्फ 40 मिनट तक बहस चली, जिसपर सिर्फ 8 सांसद ही बोले। इसी प्रकार, राज्यसभा में डीपीडीपी बिल पर सिर्फ 50 मिनट तक बहस चली, और इस दौरान एक भी विपक्षी सांसद ने बहस में हिस्सा नहीं लिया। समूचा विपक्ष मणिपुर संकट पर अपना विरोध व्यक्त कर रहा था, और सदन में इस मुद्दे पर बहस की मांग कर रहा था।
• 2023 के मानसून सत्र में एक नया कीर्तिमान तब स्थापित हुआ, जब राज्यसभा ने फार्मेसी (संशोधन) विधेयक को मात्र 3 मिनट के भीतर ही पारित कर दिया। इसके अगले दिन लोकसभा ने दो विधेयकों – केंद्रीय जीएसटी संशोधन एवं एकीकृत जीएसटी संशोधन विधेयक को 3 मिनट के भीतर ही मंजूरी दे दी!
• कई बार देखने को मिला है कि बिलों को अंतिम समय में एजेंडे में शामिल किया जाता है।
- 2017 में, शत्रु संपत्ति (संशोधन एवं सत्यापन) विधेयक को राज्यसभा में तब पारित कर दिया गया था।, जब अधिकांश विपक्षी सांसद इस आश्वासन पर लौट गए थे कि उस दिन विधेयक पर विचार नहीं किया जाएगा।
- 2019 में, जम्मू एंड कश्मीर पुनर्गठन विधेयक को सदन में सभी को पूरी तरह से सकते में डालते हुए पेश कर दिया गया था, और सांसदों को विधेयक को पढ़ने या विश्लेषण करने का कोई मौका दिए बगैर ही इसे राज्यसभा में पारित करा लिया गया।
- 2021 के मानसून सत्र में, लगभग 11 अनुपूरक सूचियाँ जारी की गईं, जिनमें से अकेले राज्यसभा में 9 थीं और इनमें से 6 को या तो पेश करने या पारित करने के लिए विधेयकों को सूचीबद्ध करना था। इस प्रकार सांसदों को इस बारे में अध्ययन, विश्लेषण और बहस करने का पर्याप्त मौका मिले बगैर ही पारित करा लिया गया। वास्तव में देखें तो, आखिरी दिन, संविधान (105वां) संशोधन विधेयक एवं दो अन्य विधेयक को पूरक सूची के माध्यम से राज्यसभा के एजेंडे में जोड़ा गया, जिससे सांसदों को संशोधन पेश करने के लिए केवल एक घंटे का समय ही मिल पाया था।
- 2021 के शीतकालीन सत्र में, सरकार ने सांसदों को बहस की तैयारी के लिए कोई समय दिए बिना ही उसी दिन चुनाव कानून संशोधन विधेयक (जो अन्य चीजों के अलावा आधार-मतदाता पहचान पत्र जोड़ने का प्रावधान करता है) को पारित करने पर जोर दिया। अगले दिन ही इसे राज्यसभा में बहस के लिए ले जाया गया और सांसदों का इस बारे में आरोप था कि उन्हें पहले से इसके बारे में सूचित नहीं किया गया था।
- तीन आपराधिक विधेयक भी मानसून सत्र, 2023 के आखिरी दिन एक आश्चर्य के रूप में पेश किए गए।
- 2023 के शीतकालीन सत्र में दूरसंचार विधेयक को भी अंतिम समय में एजेंडे में शामिल कर पेश किया गया।
- चुनाव से पहले सरकार के आखिरी संसद सत्र में 5 फरवरी 2023 को ही 3 विधेयकों को अंतिम समय में एजेंडे में शामिल कर पेश किया गया था।
- पिछले संसद सत्र में, सरकार के मूल रूप से प्रस्तावित एजेंडे में केवल 3 विधेयकों का उल्लेख था, लेकिन सरकार ने न केवल 3 और नए विधेयक पेश किए, जो पहले से एजेंडे में शामिल नहीं थे, बल्कि पिछले सत्रों से लंबित कम से कम दो और विधेयकों को आगे बढ़ा दिया, जो कि उसके एजेंडे का हिस्सा भी नहीं थे।
आरोप:
कानून बनाने की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव, उचित सार्वजनिक परामर्श न करना, पूर्व विधान परामर्श नीति का उल्लंघन करना एवं विधेयकों को स्थायी समितियों को न भेजना
प्रमाण:
• 2009-2014 के बीच सभी बिलों में से 71% को स्थायी समितियों को भेजा गया था, जबकि 2019 के बाद से मात्र 16% बिलों को ही स्थायी समिति के पास भेजा गया।
• संसद में पेश किए गए 301 में से केवल 74 यानी 24।5% विधेयकों को 2014 और 2021 के बीच परामर्श के लिए जारी किया गया था। इन 74 विधेयकों में से कम से कम 40 को 30 दिनों तक जारी नहीं किया गया था, जैसा कि पूर्व-विधान परामर्श नीति में निर्दिष्ट है।
• अधिक विवादास्पद विधेयकों को संयुक्त संसद समितियों को भेजे जाने की परंपरा रही है, (जैसा कि सरकार ही इस बात को तय करती है कि जेपीसी में किसे शामिल किया जाएगा)। 2014 के बाद से निम्नलिखित विधेयक विपक्षी सांसदों की अध्यक्षता वाली संबंधित स्थायी समितियों के बजाय भाजपा सांसदों की अध्यक्षता वाली जेपीसी को भेजे गए: 1। भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक 2। नागरिकता संशोधन विधेयक 3। व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक 4। वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 5। जैव विविधता (संशोधन) विधेयक
• समितियों के द्वारा लगातार अब जनता से टिप्पणियाँ आमंत्रित नहीं की जा रही हैं और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले उचित परामर्श नहीं ले रही हैं। जन विश्वास विधेयक पर जेपीसी ने जनता से टिप्पणियाँ आमंत्रित नहीं कीं। भाजपा सांसद की अध्यक्षता वाली गृह मामलों की स्थायी समिति, जिसके हाथ में तीन आपराधिक विधेयकों के अध्ययन का कार्यभार था, ने जनता से टिप्पणियां आमंत्रित नहीं कीं। कई विपक्षी सांसदों ने असहमति नोट प्रस्तुत करते हुए आरोप लगाया कि समिति ने प्रक्रिया में जल्दबाजी की और सिर्फ चयनित लोगों को ही समिति के समक्ष पेश होने के लिए आमंत्रित किया।
• वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 को चुनौती देने वाली सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार, एफसीए विधेयक पर जेपीसी को जनता से 1,309 ज्ञापन प्राप्त हुए जो विधेयक पर आलोचनात्मक रुख पेश करते थे, लेकिन जेपीसी ने इनमें से अधिकांश को नजरअंदाज कर दिया और बिल में सुधार के लिए सिफारिशें पेश करने में विफल रही।
आरोप: पर्याप्त जांच के बगैर बजट पारित करना, जिसमें वित्त विधेयक में चुनावी बांड जैसे विवादास्पद प्रावधान शामिल थे
प्रमाण:
• 2016 से 2023 के बीच औसतन 79% बजट बगैर चर्चा के ही पारित किये गये हैं। पारंपरिक प्रक्रिया के अनुसार, लोकसभा कुछ मंत्रालयों के बजट पर विस्तार से चर्चा करती है और उन पर अलग से मतदान करती है। बजट चर्चा के लिए आवंटित दिन समाप्त होने के बाद, शेष मंत्रालयों के बजट पर बिना चर्चा के एक साथ मतदान किया जाता है, इस प्रक्रिया को ‘गिलोटिन’ कहा जाता है। बैठकों की कम संख्या, छोटे बजट सत्र, पारदर्शी जवाबदेही एवं बहस में रुचि न रखने वाली सरकार के खराब नियोजित एजेंडे की वजह से बजट पर विस्तार से लगातार कम मात्रा में चर्चा होती है और इसका अधिकतर हिस्सा बिना चर्चा के ही पारित हो जाता है।
• 2018 के बजट सत्र में सरकार का पूरा बजट बिना किसी चर्चा के, यानी 100% गिलोटिन के साथ हंगामे के बीच एक घंटे के भीतर पारित करा लिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बजट पर चर्चा और मतदान के लिए आवंटित दिनों में विरोध प्रदर्शन देखने को मिला, क्योंकि लोकसभा अध्यक्ष विपक्ष की अविश्वास प्रस्ताव की मांग को स्वीकार नहीं कर रहे थे।
• 2018 में वित्त विधेयक भी बगैर किसी चर्चा के अठारह मिनट के भीतर पारित करा लिया गया।
• 2020 में, वित्त विधेयक बिना किसी चर्चा के एक घंटे के भीतर पारित कर दिया गया, क्योंकि सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने से कुछ दिन पहले बजट सत्र को समय से पहले ही कम कर दिया था।
• 2017 में, वित्त विधेयक में न्यायाधिकरणों के पुनर्गठन, चुनावी बांड के माध्यम से गुमनाम राजनीतिक दान की अनुमति, स्थायी खाता संख्या (पैन न।) के लिए आवेदन करने के लिए आधार को अनिवार्य बनाने इत्यादि के लिए विवादास्पद गैर-वित्तीय प्रावधान शामिल थे।
• साल 2023-24 में भी सदन में विरोध और व्यवधान के बीच पूरा बजट बिना किसी बहस के सिर्फ 8 मिनट में पारित करा लिया गया था। उस वक्त विपक्ष अडानी घोटाले पर जेपीसी की मांग कर रहा था। वित्त विधेयक भी बिना किसी बहस के महज 35 मिनट के भीतर पारित करा लिया गया।
• स्थायी समितियों को सक्षम बनाने के लिए बजट सत्र के बीच में अवकाश की व्यवस्था की जाती है ताकि प्रत्येक मंत्रालय का बजट विस्तार से परखा जा सके। लेकिन सरकार बजट का अध्ययन करने के लिए स्थायी समितियों को कम से कम समय मुहैया की। 2016 में इसके लिए जहां 40 दिनों का अवकाश दिया गया था, 2021 में इसे घटाकर मात्र 20 दिन कर दिया गया।
आरोप: शीतकालीन सत्र 2023 में अभूतपूर्व संख्या में विपक्षी सांसद निलंबित किये गये और इस प्रकार वस्तुतः विपक्ष रहित संसद ने विवादास्पद विधेयकों को पारित करा लिया
प्रमाण:
• यह अब एक रोजमर्रा की बात हो गई है – विपक्ष किसी मुद्दे पर बहस और चर्चा की मांग करता है तो सरकार उसमें बाधा डालती रहती है और बहस से इनकार करती रहती है। विपक्ष की ओर से विरोध किया जाता है और सदन की कार्यवाही में व्यवधान डाला जाता है, तो सरकार इस विरोध और हंगामे के बीच बगैर किसी बहस के विधेयकों को आगे बढ़ाने के बहाने के रूप में उपयोग में लाती है। इस बार संसद सुरक्षा उल्लंघन पर बहस की मांग को लेकर विपक्ष के विरोध प्रदर्शन के कारण अप्रत्याशित रूप से 146 सांसदों को संसद से निलंबित कर दिया गया। यह अब तक निलंबित होने वाले सांसदों की सबसे बड़ी संख्या है। यह दोनों सदनों में समूचे विपक्ष की ताकत का लगभग 20% था।
• जहां एक तरफ अधिकांश सांसदों को शीतकालीन सत्र के अंत तक निलंबित कर दिया गया था, वहीं दूसरी तरफ कई सांसदों को उनके खिलाफ विशेषाधिकार समिति द्वारा जांच लंबित रहने तक अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दिया गया था। इस तरह का अनिश्चितकालीन निलंबन गैरकानूनी है क्योंकि नियम स्पीकर या सदन को सांसदों को उस सत्र से परे निलंबित करने का अधिकार नहीं देते हैं, जिसमें उन्हें निलंबित किया गया है।
• सांसदों के निलंबन के बाद, कई महत्वपूर्ण विधेयकों को दोनों सदनों में पारित करा लिया गया, जिनमें तीन आपराधिक विधेयक, दूरसंचार विधेयक, मुख्य चुनाव आयुक्त सहित अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए विधेयक शामिल थे।
आरोप: सरकार सवालों से असहज हो जाती है, ऐसे में विपक्षी सांसदों द्वारा पूछे गए सवालों को डिलीट कर दिया जाता है, और मंत्रालय की ओर से सवालों पर गोलमोल जवाब दिया जाता है
प्रमाण:
• 2023 के शीतकालीन सत्र के दौरान सदन से निलंबित होने के बाद विपक्षी सांसदों द्वारा पूछे गए करीब 290 प्रश्नों को डिलीट कर दिया गया था। जबकि ऐसा कोई नियम नहीं है, जिसमें निलंबित सांसदों के प्रश्नों को हटाने का प्रावधान हो।
• ऐसा पहली बार नहीं किया गया है। 2015 में ऐसा होने की मीडिया रिपोर्टें मौजूद हैं और तब से 2020, 2021 और फिर 2023 में ऐसा किये जाने के रिकॉर्ड मौजूद हैं।
• 2020 में, सरकार ने मानसून सत्र के दौरान प्रश्नकाल को पूरी तरह से हटाने के लिए कोविड को एक बहाने के रूप में हवाला दिया, हालांकि विपक्षी दलों के दबाव के बाद सरकार सिर्फ लिखित रूप में सवालों के जवाब देने पर सहमत हुई। 2023 के विशेष सत्र के दौरान भी कोई प्रश्नकाल आयोजित नहीं किया गया और किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया।
• मंत्रालय भी सवालों से बचने की कोशिश करते हैं, सवालों के विवादास्पद उप-भागों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, भ्रामक या अधूरे जवाब दिए जाते हैं या सीधे तौर पर कह दिया जाता है कि – डेटा उपलब्ध नहीं है। जबकि पिछली सरकारों ने भी सवालों से बचने की कोशिश की है, क्योंकि कोई भी सरकार सवालों के जवाब देने में सहज नहीं हो सकती, लेकिन मौजूदा सरकार ने लोगों की जवाबदेही के प्रति विशेष अवमानना का नमूना पेश किया है।
इस प्रकार, हम भारत के लोग भारत सरकार पर संविधान में निहित लोकतंत्र, न्याय, कानून के शासन एवं जवाबदेही के आदर्शों का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हैं।