अग्नि आलोक

काट लो जुबां मेरी,मेरी कलम बोलेगी…..!

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काट लो जुबां मेरी,
मेरी कलम बोलेगी,
काट दोगे हाथ मेरे,
मेरी आंखें बोलेंगी,
चढ़ा दो फांसी पर मुझे,
मेरा लहू पुकारेगा,
एक को तो मिटा दोगे,
और भी जनम लेंगे,
किस-किस को मारोगे,
कितनों को मारोगे,
क्रांति की बलिवेदी पर,
और भी होंगे मरने वाले,
आजमा लो अपने सारे हथियार,

क्रांति को रोक सकते नहीं,
समय के गर्भ में पलते हैं क्रांतिकारी,
अंतहीन सिलसिले की तरह,
उनका भी अंत नहीं,
हां, अपने नारों, अपनी ताकत से,
तुम्हारे अंत के रास्ते बनायेंगे,
तुम्हें यमलोक पहुंचायेंगे,

धरती को समस्त मानव के लिए,
स्वर्ग बनायेंगे अपने हाथों,
और संकल्प शक्ति से,
जहाँ नहीं होंगे पैदा फिर कभी,
तुम्हारे जैसे दरिंदे और पिशाच,
नहीं लूटेगा कोई हक श्रमिकों का,
नहीं लूटेगी अस्मत कभी नारी की,
बच्चे नहीं कभी तड़पेंगे भूख से,
सभी पढ़ेंगे, खेलेंगे, गायेंगे, हंसेंगे,
न होगा कोई किसी को रुलाने वाला,
न होगा कोई सताने वाला,
गर्व होगा हमें तब,
स्वयं के इंसान होने पर.

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