पूनम मसीह
टाटानगर एक सुदंर शहर, जहां साल 1907 में जमशेदजी टाटा ने कंपनी की स्थापना की। जिसके साथ ही पूर्वी सिंहभूम जिले के इस शहर की कुंजी टाटा के हाथ में चली गई।शहर की जमीन को 100 साल के लिए टाटा को लीज पर दिया गया। जहां कंपनी के कारखाने बनाए गए। रोजगार बढ़ा तो आसपास के हिस्से से आकर लोग भी बसने लगे।देश की आजादी के बाद देश में कई चीजों में बदलाव किया गया। लेकिन जमशेदपुर (टाटानगर) को लोगों तीसरा मताधिकार (नगर निगम का) नहीं मिला है।
पूरा शहर जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमेटी के अंतर्गत काम करता है। जिसकी स्थापना 1924 में हुई और यह झारखंड सरकार के अधीन है। लेकिन लोगों के अनुसार इसका सारा नियंत्रण टाटा स्टील के पास है।
कमेटी के अंतर्गत लोगों को सामान्य नगर निगम की तरह जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र मुहैय्या कराए जाते हैं। इसके अलावा भी अन्य काम इसके द्वारा ही होते हैं। जमशेदपुर शहर को स्वच्छ और सुंदर बनाने की जिम्मेदारी टाटा का पास है।
तीसरा मताधिकार नहीं होने पर लोगों को आपत्ति है। इनमें से एक हैं सामजिक कार्यकर्ता जवाहर शर्मा। जो 80 साल के हैं और पिछले 35 सालों से तीसरे मताधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं। चुनावी दौरे में टाटा द्वारा बसाए शहर जमशेदपुर को पिछले 75 सालों से तीसरा मताधिकार न मिलने के सवाल पर हमने जवाहर शर्मा से मुलाकात की।
जवाहर शर्मा के पास पिछले 35 साल के सारे दस्तावेज हैं उन्हें दिखाते हुए वह कहते हैं ‘तीसरा मताधिकार न मिलने के कारण हम शहर में गुलाम की तरह रहते हैं। हमें अपना लोकल बॉडी को चुनने का अधिकार नहीं है’।
35 साल की लड़ाई का जिक्र करते हुए वह बताते हैं कि ‘साल 1988 में मैंने पहली बार इस अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। जिस पर साल 1989 में तीन जजों की बेंच ने सरकार को शहर में नगर निगम बनाने का फैसला सुनाया’।
उस दौर की बात करते हुए वह कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी बिहार सरकार ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। इधर टाटा द्वारा जनता को बरगलाया कि अगर नगर निगम बन जाता है तो शहर की स्थिति एकदम खराब हो जाएगी जो सुविधा मिल रही है वह नहीं मिल पाएगी।
जिसके बाद पूरा शहर टाटा के बातों में आकर आंदोलित हो गया। जिसको जहां जगह मिली लोगों ने फैसले के विरुद्ध में आंदोलन किया। शहर में कई जगहों पर बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाए गए, ताकि जनता को तीसरा मताधिकार न मिले।
टाटा ने पूरी जनता को अपनी तरफ कर लिया। स्थिति यह है कि तीसरे मताधिकार पर कोई बात ही नहीं करना चाहता है। लोगों का पता ही नहीं है कि लोकल बॉडी को वह अपनी समस्या बता सकते हैं।
टाटा शहर को जब बसाया गया तो आसपास कई दलित लोग यहां काम की तलाश में आए। बाद में लगभग आठ से दस दलित बस्तियां भी शहर के बीचों-बीच बसाई गई। आज उनकी स्थिति देखने लायक है। एक तरफ टाटा के सुंदर क्वार्टर हैं। दूसरी तरफ दलित बस्तियों में दम घुटती जिदंगियां।
जबकि साल 1901 की लीज के अनुसार जब टाटा ने सबकी जिम्मेदारी ली थी तो जाति के आधार पर अलग बस्तियां क्यों बसा कर दी गई?
वह मुझे कहते हैं आप खुद जाकर उनकी बस्तियों का जायजा ले सकते हैं। इसके बाद हम मेडिकिल बस्ती, धातकीडीह गई। चौड़ी सड़क और बड़े क्वार्ट्स के दूसरी तरफ है यह बस्ती। जहां मुखी समाज (घासी) के लोग अंग्रेजों के समय से ही रहते आ हैं।
तंग गलियों के बीच दिखते छोटे घर देखकर कोई कह नहीं सकता यह जमशेदपुर है। बस्ती के अंत में ग्राउंड में कर्तिक मास की पूर्णिमा पर सांस्कृतिक आयोजन के लिए काम चल रहा था। जहां रतन टाटा के साथ दो अन्य लोगों की फोटो श्रद्धांजलि के लिए रखी गई थी।
मेरे साथ गए सहयोगी ने बताया कि टाटा कंपनी इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम कराकर लोगों को उनकी मुख्य मांग से दूर रखती है। लोग इन्हीं सब में उलझे रहते हैं बाकी अपनी तरक्की के बारे में नहीं सोचते हैं।
बस्ती में ज्यादातर घर बहुत ही छोटे थे। जहां गलियों में बाईक खड़ी थी। गंदी नलियों के बीच एक जगह कचरा इकट्ठा करके रखा गया था। यहीं पर एक सार्वजनिक शौचालय है।
कुछ बच्चे रील बना रहे थे। सुनीता का मायका इसी बस्ती में है। वह बताती हैं कि यहां मुश्किल से 20 क्वार्ट्स होंगे। अब लोगों के परिवारों का गुजारा नहीं हो पाता है, क्वार्टस बहुत छोटे हैं इसलिए लोगों ने आगे की तरफ घर बढ़ा लिए हैं।
हमने सार्वजनिक शौचालय के बारे में पूछा, तो उनका जवाब था कि लोग इस्तेमाल करते हैं। पहले घरों में बाथरुम नहीं थे लेकिन अब लोगों ने बना लिए हैं। जिनके नहीं है वह सार्वजनिक का इस्तेमाल करते हैं।
मुखी समाज का ही एक व्यक्ति बस्ती का मुखिया होता है। फिलहाल सुरेश मुखी यहां के मुखिया हैं। यहां मुखिया उस व्यक्ति को बनाया जाता है। जिसके कंपनी के साथ अच्छे संबंध हो।
सुरेश मुखी ने हमें बताया कि ‘मुखी समाज के ज्यादातर लोग से बाहर आकर बसे हैं। जिस वक्त कंपनी की स्थापना हुई शहर की सफाई के लिए लोगों की जरुरत थी, तो हमारे समाज के लोगों को यह नौकरी दी गई। आज भी टाटा की सफाई की जिम्मेदारी हमारे समाज की है’।
वह बताते हैं कि जिस वक्त हमारे पूर्वज आए उन्हें यहां रहने के लिए क्वार्ट्स दिए गए। अब स्थायी नौकरी तो किसी के पास नहीं है, सभी लोग दिहाड़ी पर काम करते हैं। जिसके कारण लोगों की पूंजी भी ज्यादा नहीं है वे छोटे घरों में रहने के लिए मजबूर हैं।
हमने सुरेश से उनके मुखिया बनने के बारे में पूछा तो वह बताते हैं कि यहां पार्षद तो होता नहीं है, इसलिए बस्ती में समाज के लोग किसी एक व्यक्ति को सहमति से चुन लेते हैं।
वहीं जवाहर शर्मा का इस बारे में कहना है कि नगर निगम की मांग इसलिए की जा रही ताकि हम किसी व्यक्ति को अपना मताधिकार का प्रयोग कर चुन सकें। ताकि वह हमारी समस्या को लोकल बॉडी तक पहुंचा सके। इतना ही नहीं यह सामान्य लोगों का राजनीति में आने का जरिया भी बनेगा। जिसे टाटा ने पूरी तरह खत्म कर दिया है।
सबसे बड़ी बात यह है कि टाटा ने जमीन लीज पर ली है। इसलिए टैक्स की चोरी भी धड़ल्ले से हो रही है।
रमेश मुखी इसी बस्ती के रहने वाले हैं वह 12वीं पास करने के बाद सफाई कर्मचारी का काम करते हैं। उनके अनुसार बस्ती में 60 घर हैं। जिसमें ज्यादातर बच्चे 12वीं पढ़े हैं। अभी कुछ बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए निकले हैं।
उनके अंदर टाटा को लेकर बहुत गुस्सा है। वह हमें बताते हैं। अब ये 60 क्वार्ट्स राम भरोसे हैं। स्थाई नौकरी किसी के पास नहीं है। इसके कारण टाटा इसका रख-रखाव भी नहीं करता है। लोगों अपने हिसाब से खुद के पैसे लगाकर समय-समय पर मेनटेंन करते रहते हैं। हमलोग यहां तंग गलियों में जानवरों से भी बुरी हालात में रह रहे हैं। जिससे टाटा का कोई लेना देना नहीं है।
वह कहते हैं कि अब नौकरी के डर से कोई कुछ कहना भी नहीं चाहता है। सभी कॉन्ट्रैक्ट में नौकरी करते हैं। अगर कुछ बोलने से नौकरी चली गई तो खाने के भी लाले पड़ जाएंगे।
वह कहते हैं, हो सकता है बाकी लोगों के लिए टाटा ने बहुत कुछ किया हो लेकिन यहां तो इस बस्ती के लोगों का कोई विकास नहीं दिखता। यहां साफ-साफ भेदभाव झलकता है।
जवाहर शर्मा भी इसी मुद्दे पर बात करते हैं, वह कहते हैं अगर लोगों के पास पार्षद होता तो लोग उन्हें अपनी समस्या जाकर बता सकते हैं। लेकिन साल 1989 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कुछ नहीं हुआ।
लड़ाई के शुरुआती दिनों का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि ‘साल 1989 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद एक तरफ विरोध में आंदोलन शुरु हो गया। दूसरी तरफ बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का नोटिफिकेशन जारी नहीं कर रही थी।
मैंने लगभग दो साल तक इसकी भी लड़ाई लड़ी। उसके बाद साल 1991 में बिहार सरकार द्वारा इसका नोटिफिकेशन जारी किया गया’।
आज इस नोटिफिकेशन को जारी हुए 33 साल हो गए हैं, लेकिन आजतक यह लागू नहीं हो सका है। अगर लागू हो जाता तो यहां की स्थिति कुछ और होती।
वह कहते हैं जिस सुंदर शहर की बात टाटा कर रहा है। वहीं शहर के बीचों-बीच बनी दलित बस्तियों के हालात बद से बदत्तर हैं। एक सुंदर टाटा शहर के बीच दलित लोगों को आज भी पूरी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं।
(जमशेदपुर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट।)