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लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने के दावे पर अर्थशास्त्रियों ने उठाए सवाल

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नई दिल्ली। यह दावा अपने आप में इतना शानदार है कि हर कोई इस दावे पर चौंक रहा है, लेकिन यही हकीकत है। जी हां, नीति आयोग का यह दावा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के द्वारा वर्ष 2010 में सबीना अलकिरे एवं जेम्स फोस्टर द्वारा प्रस्तावित मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) पर आधारित है, जिसमें आपको किसी व्यक्ति की वास्तविक आय के बजाय 10 मापदंडों पर गरीबी का आकलन करना है।

हालांकि कई अर्थशास्त्रियों ने नीति आयोग के इस दावे पर सवाल खड़े किये हैं, और आम भारतीय तो पूरी तरह से भौंचक्का है। कुछ महीने पहले भी मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) की रिपोर्ट पर हंगामा हुआ था, लेकिन तब बात आई गई हो गई थी।

लेकिन कल जब एक बार फिर नए सिरे से नीति आयोग ने वर्ष 2005-06 को आधार बनाते हुए वर्ष 2013-14 से 20222-23 के 9 वर्षों के दौरान 24.82 करोड़ भारतीयों को गरीबी की रेखा से बाहर निकालने का दावा ठोंक दिया और अगले एक घंटे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस खबर को रिट्वीट कर बेहद उत्साहवर्धक बताते हुए देश की अर्थव्यस्था में बेहद सकारात्मक बदलाव के लिए अपनी सरकार को बधाई दे डाली, तो सारे देश का ध्यान इस तथ्य की ओर चला जाना स्वाभाविक था।

लोग सवाल कर रहे हैं कि अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों की आर्थिक हालत में सुधार हुआ है तो फिर हर दूसरा आदमी बेरोजगार क्यों है? ग्रेजुएट और बीटेक पास लोगों के लिए 10-15,000 रूपये प्रति माह की पगार वाली नौकरियां ही क्यों हैं देश में? सबसे बड़ी बात 80 करोड़ लोगों को प्रति माह 5 किलो अनाज पर क्यों टिका कर रखा गया है? हर प्रदेश में क्षेत्रीय पार्टियां ही नहीं, कांग्रेस और खुद भाजपा को एक से बढ़कर एक लालीपॉप की घोषणा क्यों करनी पड़ रही है? ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है कि यह मोदी की गारंटी है, ये आपको मेरा वादा है?

नीति आयोग की मानें तो भारत यूएनडीपी द्वारा वर्ष 2030 तक निर्धारित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के मल्टी डायमेंशनल पावर्टी को आधा करने के लक्ष्य को काफी पहले ही हासिल करने जा रहा है। हालांकि कई अर्थशास्त्री इस्तेमाल की गई पद्धति से संतुष्ट नहीं हैं। नीति आयोग के अनुसार 2013-14 में भारत में बहुआयामी गरीबी 29.17% थी जो 2022-23 में घटकर 11.28% रह गई है, जिसके चलते 24.82 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल चुके हैं।

नीति आयोग को मोदी सरकार ने 2014 में सरकार में आने के बाद ही योजना आयोग से स्थानापन्न कर दिया था। नीति आयोग के अनुसार सबीना अलकिरे एवं जेम्स फोस्टर द्वारा प्रस्तावित मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआई) एक मान्यता प्राप्त विश्व-स्तरीय प्रणाली है, जिसमें लोगों की आर्थिक हालात के बजाय कई अन्य आयामों से गरीबी का आकलन किया जाता है, जो कि ज्यादा विश्वसनीय है।

नीति आयोग ने इस दायरे में पोषण, शिशु एवं बाल मृत्यु दर, मातृत्व स्वास्थ्य, स्कूली पढ़ाई, स्कूल में हाजिरी की संख्या, खाना पकाने का इंधन, स्वच्छता, पेयजल, आवास, बिजली, संपत्ति एवं बैंक अकाउंट को आधार बनाया है। इन मानदंडों पर यदि कोई व्यक्ति 33% या उससे अधिक मामलों में अपात्र पाया जाता है, तो उसे ही बहुआयामी गरीबी के दायरे में गरीब माना जा सकता है।

अर्थात, पेट में खाना हो चाहे न हो, लेकिन अगर आपके घर में पीएम खाते से शौचालय रिकॉर्ड में है तो आप गरीब नहीं हो सकते। इसी प्रकार जन-धन अकाउंट में करोड़ों लोगों का जीरो बैलेंस वाला खाता खोला जा चुका है, भले ही अकाउंट में लेन-देन के नाम पर पीएम किसान निधि ही आती हो। उज्ज्वला योजना के तहत भी देश में पिछले 9 वर्षों के दौरान करोड़ों परिवारों को मुफ्त गैस सिलिंडर का वितरण किया गया। इस प्रकार वे भी बहुआयामी गरीबी के दायरे में गरीबी की रेखा में जाने की एक पात्रता को खो देते हैं।

पंचायत’ के जरिये गांवों में विकास की बयार का अनुभव हासिल करने वाले देश के युवाओं तक पता है कि सरकारी योजनाओं के बल पर विकास कार्य की क्या स्थिति है। गांव में मुखिया का प्रमुख विरोधी ‘देख रहा है न बिनोद’ डायलाग के साथ इस कड़वी हकीकत को दिखा रहा होता है कि किसी के घर में शौचालय निर्माण तो हो गया है, लेकिन पाखाना करने की सीट आवंटित नहीं हो सकी तो गांव के दूसरे व्यक्ति के यहां स्थिति उलट है।

इसी प्रकार ओडीएफ मुक्त गांव का औचक निरीक्षण करने आ रही डीएम महोदया की सूचना तहसील कार्यालय से लीक कराकर रातोंरात गांव वालों को खबरदार किया जाता है कि अगले दिन कोई भी व्यक्ति टॉयलेट करने खेतों में न जाये।

अब ये बातें यूएनडीपी और उसके अधिकारी क्या समझेंगे? लेकिन नीति आयोग के लिए तो यह छप्पर-फाड़ स्कीम है। नीति आयोग के पूर्व सदस्य एवं प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय तो इससे भी कई कदम आगे हैं। हाल ही में उन्होंने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य वस्तुओं को दी जाने वाली प्राथमिकता को ही बेहद कम वरीयता दिए जाने को लेकर जोरदार वकालत की थी।

यह वह समय था जब टमाटर 150-200 रूपये किलो पहुंच चुका था। देश की वित्त मंत्री से जब प्याज कि बढ़ती कीमतों को लेकर संसद में सवाल किया गया, तो उनका टका सा जवाब था, “मैं तो प्याज ही नहीं खाती।”  

वैसे भी ये आंकड़े हजम भी तभी होते जब देश में कोविड-19 के बाद आम लोगों की आर्थिक स्थिति में गुणात्मक सुधार देखने को मिलता। यही कारण है कि कई लोग नीति आयोग की इस कोशिश को 2024 चुनाव से जोड़कर भी देख रहे हैं।

इस संबंध में योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ एन सी सक्सेना से एबीपी न्यूज़ की बातचीत गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा, “बहुआयामी गरीबी (Multidimensional Poverty) का आइडिया तो अच्छा है पर सवाल उठता है कि हम यह डेटा कहां से जुटा रहे हैं?”

उनका कहना था कि, “डेटा जुटाने के तीन प्रकार के स्रोत हमारे पास मौजूद हैं: जनगणना (Census), नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) एवं नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे। लेकिन आज की तारीख में ये तीनों ही ठप पड़े हैं। 2021 में जनगणना होनी थी, जिसे नहीं किया गया। इसी प्रकार एनएसएसओ का डेटा 2011-12 के बाद जारी ही नहीं किया गया और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे को तो सस्पेंड ही कर दिया गया है। ऐसे में तो डेटा तो ही हमारे पास नहीं है।”

एन सी सक्सेना ने कहा, “सर्वे में खुद स्वीकार किया गया है कि डेटा हमारे पास नहीं है। ऐसे में गरीबी के कम होने की दर जो पहले थी उसे ही हमने मान लिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि पुराने दर से गरीबी जिस मात्रा में घट रही थी उसमें कमी आई है या बढ़ गई है, इसकी कोई सही जानकारी हमारे पास नहीं है। ऐसे में नीति आयोग का बहुआयामी गरीबी का डेटा बोगस है।’

देश में खपत का कोई डेटा नहीं है

एन सी सक्सेना का यह भी कहना है कि कुपोषण बहुआयामी गरीबी का सबसे बड़ा हिस्सा है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक देश में 35 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। जबकि जिलों से जो डेटा आता है उसमें मात्र 8 फीसदी बच्चों को कुपोषित दिखाया जाता है। ऐसे में जिलों के डेटा का कोई आधार नहीं है।

उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए बताया कि 2011 में जनगणना करने पर यह बात निकलकर सामने आई कि उत्तर प्रदेश में केवल 25 फीसदी घरों में टायलेट्स हैं, जबकि तब तक यूपी सरकार दावा कर रही थी कि 90 फीसदी घरों में टायलेट्स हैं। 2011 में जनगणना का डेटा जारी होने के बाद तत्कालीन यूपी सरकार की बड़ी फजीहत हुई थी। ऐसे में जिलों के डेटा का कोई आधार नहीं है।

एन सी सक्सेना ने कहा कि पहले खपत आधारित डेटा के आधार पर देश में गरीबी का पता लगाया जाता था, लेकिन 2011-12 के बाद से खपत का भी कई डेटा नहीं है। जो डेटा आता भी है तो उसे दबा लिया जाता है। 2016-17 में आंकड़ा जारी हुआ तो उसमें देखने को मिला कि गरीबी पहले से काफी बढ़ गई है, लेकिन उसे वापस ले लिया गया। 

गरीबी मापने का विकल्प एमपीआई नहीं

जाने-माने अर्थशास्त्री जीन ड्रेज (Jean Drèze) ने भी द टेलीग्रॉफ से बात करते हुए बहुआयामी गरीबी इंडेक्स के इस्तेमाल पर सवाल खड़ा किया है। उनका कहना है कि बहुआयामी गरीबी इंडेक्स में शॉर्ट टर्म पर्चेजिंग पावर (Short Term Purchasing Power) को शामिल नहीं किया जाता है। ऐसे में ये जरूरी है कि रियल वेज (Real Wage) समेत दूसरी जानकारियों के साथ एमपीआई डेटा को समझने का प्रयास किया जाए।

उन्होंने कहा कि गरीबी अनुमानों को मापने के लिए एमपीआई डेटा लंबे समय से अटके उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों का पूरक हो सकता है, लेकिन उनका ये विकल्प नहीं है।

Growth and Development Planning in India, नाम की किताब लिखने वाले एक सेवानिवृत्त भारतीय आर्थिक सेवा अधिकारी केएल दत्ता के अनुसार, एमपीआई का इस्तेमाल गरीबी और अभाव के आकलन के तौर पर नहीं किया जाता है। उनका साफ़ कहना है कि एमपीआई का मकसद सिर्फ यह बताना है कि ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं जो सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली कुछ सुविधाओं तक अपनी पहुंच बना पाने में असमर्थ हैं।

दत्ता आगे कहते हैं, “एमपीआई का उपयोग योजनाकारों एवं नीति निर्माताओं द्वारा लक्ष्य तय करने के लिए नहीं किया जाता है, न ही इसका उपयोग गरीबी कम करने की योजना बनाने के लिए एक इनपुट के तौर पर किया जा सकता है। संक्षेप में कहें तो एमपीआई गरीबी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। सरकार एमपीआई अनुमान को गरीबी के अनुपात के एक विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश में है, जो सही नहीं है।”

ए.एन सिन्हा इंस्टिट्यूट-पटना के पूर्व निदेशक एवं अर्थशास्त्री सुनील रे के अनुसार नीति आयोग के 2030 से काफी पहले एसडीजी लक्ष्य को हासिल करने का दावा महज “थोथी हवाबाजी” है। उनके मुताबिक एसडीजी को तभी हासिल किया जा सकता है, जब लोग सरकार पर निर्भर रहने के बजाय स्वंय अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकें।

रे का साफ़ कहना था, “कोई भी राष्ट्र एसडीजी कैसे हासिल कर सकता है, जब उसकी सरकार देश की दो-तिहाई से भी अधिक आबादी के लिए मुफ्त अनाज उपलब्धता को सुनिश्चित कर रही है? सरकार यह इसलिए कर रही है, क्योंकि लोग आत्मनिर्भर नहीं हैं।”

रे ने कहा, “सरकार जो कुछ करने की कोशिश कर रही है वह एक तरह का दिखावा करना है। तथ्यों के आगे ये दावे टिक नहीं पाते हैं।”

इसी प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं अर्थशास्त्री असीस बनर्जी ने भी गरीबी मापने के पैमाने के तौर पर एमपीआई की प्रभावकारिता पर सवाल उठाते हुए द टेलीग्राफ को एक ईमेल में लिखा है कि, “एमपीआई सिर्फ पिछले नौ वर्षों से नहीं बल्कि इससे पहले के वर्षों से भी घट रहा है। कई अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि इसका श्रेय 2014 में केंद्र में सरकार बदलने से पहले शुरू किए गए उपायों को जाता है।”

उन्होंने यह भी कहा है कि अगर गरीबी में इतने प्रभावी तौर पर कमी आई है तो हाल के दिनों में विश्व भूख सूचकांक पर भारत के प्रदर्शन में गिरावट क्यों आई है?

ये अहम प्रश्न हैं, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि हेडलाइंस मैनेजमेंट में जुटी सरकार के लिए असली मुद्दा गरीबी नहीं गरीबी का मैनेजमेंट कर 2024 चुनाव के लिए बड़ा नैरेटिव खड़ा करना है। नीति आयोग उससे बाहर थोड़े ही है।

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