बिपिन कुमार शर्मा
जहां तक मुझे ध्यान आता है, पिछले बीस वर्षों से शिक्षा में परीक्षा पर कुछ ज़्यादा ही ध्यान दिया जाने लगा है। पहले केवल साल के अंत में एक वार्षिक परीक्षा होती थी, बाद में अर्धवार्षिक भी होने लगी थी। छात्रों के लिए तब वही आफत-सी हो गई थी कि अब साल में दो बार परीक्षा देनी होगी। बाद में बीए-एमए को भी सेमेस्टर में बांटकर परीक्षाओं की संख्या बढ़ा दी गई। लेकिन आज की स्कूली शिक्षा को देखकर ऐसा लगता है कि शिक्षा और परीक्षा एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। विद्यार्थी और शिक्षक सालों भर परीक्षा में ही उलझे दिखाई देते हैं। शिक्षक परीक्षा ले-लेकर परेशान और विद्यार्थी दे-देकर। क्वार्टर्ली, हाफइयर्ली और इयर्ली के अलावा यूनिट टेस्ट अलग से। छोटे बच्चों पर तो ओरल की तलवार भी लटकी रहती है। किसी को एक बार ठहर कर यह सोचने तक की फुर्सत नहीं कि क्या हासिल हो रहा है इन परीक्षाओं से? क्या इस बारे में पिछले बीस सालों का कोई परिणाम जानने का प्रयास सरकारी या स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से कभी किया गया कि इन परीक्षाओं से विद्यार्थियों की क्षमता में कितनी ज़्यादा वृद्धि हो गई? स्वयंसेवी संस्थाओं की बात इसलिए क्योंकि पिछले दस-पंद्रह सालों से शिक्षा की ‘गुणवत्ता’ बढ़ाने में उनकी भी भूमिका काफी बढ़ गई है और इसके नाम पर वे भी लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे करते आ रहे हैं। हालांकि कुछ शोध तो शिक्षा की गुणवत्ता में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका पर भी करवाने की ज़रूरत है।
बहरहाल, अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं स्कूलों की सारी परीक्षाएं तत्काल बंद करने की हिमायत करूंगा। क्योंकि इसके कारण सीखने-सिखाने की अब कोई संभावना ही नहीं रह गई है। टीचर या तो प्रश्न बनाने में व्यस्त हैं, या विद्यार्थियों को यह बताने और रटाने में कि इस बार परीक्षा में कौन-कौन-से प्रश्न आने वाले हैं या फिर उत्तर पुस्तिकाएं चेक करने, नम्बर बिठाने और रिजल्ट बनाने में। कब शिक्षक पढ़ाएं और कब विद्यार्थी पढ़ें? चाहे अभिभावक हों, चाहे शिक्षक या विद्यार्थी- सबका ध्यान केवल नम्बरों तक सिमट कर रह गया है। भला क्या हासिल होगा ऐसी शिक्षा से? उन नम्बरों का क्या करेंगे जो आपकी योग्यता से ज़्यादा आपकी अयोग्यता को प्रमाणित करते हैं??
इस बारे में जब भी संभव हुआ, मैंने अनेक अभिभावकों से बात की है। ज़्यादातर को तो इससे मतलब ही नहीं होता कि शिक्षा में चल क्या रहा है! उन्हें केवल इससे मतलब होता है कि उनके बच्चे स्कूल जाएं और शिक्षक ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त तक उन्हें स्कूल में बिठाए रखें (भले कुछ न पढ़ाएं) ताकि ‘पैसा वसूल हो’! कुछ को मतलब भी होता है तो यही लगता है कि इस पद्धति से अधिक नम्बर आते हैं इसलिए यही ठीक है। शिक्षकों को भी मालूम है कि आज के दौर में शिक्षा और परीक्षा का एकमात्र उद्देश्य ज़्यादा से ज़्यादा नम्बर लाना है, इसलिए वे भी पढ़ाने से बेहतर समझते हैं उन प्रश्नों को बता देना और लिखा अथवा रटवा देना जिन्हें वे सन्निकट परीक्षा में पूछने वाले हैं। क्योंकि स्कूल प्रबंधन उनसे यह जानना ही नहीं चाहता कि उनके विद्यार्थी कितना जानते हैं? उसे भी केवल नम्बरों से मतलब होता है।
क्या ऐसी शिक्षा का कोई अर्थ रह जाता है? लेकिन रिजल्ट के सीजन में फेसबुक के साथियों का अपने बच्चों के नम्बरों के प्रति जैसा उत्साह देखने को मिलता है उससे तो यही लगता है कि ज़्यादातर लोग शिक्षा और स्कूलों से वास्तव में केवल नम्बर ही चाहते हैं। इसलिए उन्हें इस बहस में नहीं पड़ना कि उनके बच्चों को कौन-सी किताब पढ़ाई जा रही है, उन्हें पढ़ा कौन रहा है और उसे पढ़कर वे क्या हासिल करेंगे?
क्या हम एक बार भी ज़रा ठहरकर यह सोचना चाहेंगे कि आज के विद्यार्थी किन-किन की अपेक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं, मूर्खताओं, विकृतियों, भ्रष्टाचारों और अपराधों का बोझ उठाए स्कूल से घर और घर से स्कूल तक का रास्ता नाप रहे हैं? आखिर उनका कसूर क्या है??
*बिपिन कुमार शर्मा*