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किसान आंदोलन मोदी सरकार की परीक्षा की घड़ी है. सौ टके का एक सवाल -थैचर या अन्ना किसकी राह पकड़ें ?

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दिल्ली में किसानों के धरने ने क्या नरेंद्र मोदी को वैसे ही मुकाम पर ला खड़ा किया है जैसे मुकाम पर कभी ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर आ खड़ी हुई थीं या मनमोहन सिंह अन्ना आंदोलन के समय में आ खड़े हुए थे? भारत मोदी से इस सवाल के जवाब का इंतजार कर रहा है. यह जवाब भारत की राजनीतिक अर्थनीति, और आगे चलकर चुनावी राजनीति की भी दिशा तय करेगा.

यहां स्पष्ट कर दें कि थैचर वाले मुकाम का अर्थ है सुधारों की दिशा में बड़ा, साहसी, और जोखिमभरा कदम, जो स्थापित ढांचों और निहित स्वार्थों के लिए चुनौती होगा और विरोध की ऊंची लहर पैदा करेगा. थैचर ने जब आर्थिक दक्षिणपंथ की ओर बुनियादी बदलाव किया था तब उन्हें ऐसे ही विरोध का सामना करना पड़ा था. उन्होंने इस चुनौती से लोहा लिया, जीतीं और लौह महिला बन गईं. अगर वे दबाव के आगे झुक गई होतीं तो इतिहास के पन्ने पर कहीं हाशिये पर डाल दी गई होतीं.

अन्ना वाले मुकाम को समझना आसान है. वह काफी हाल का मामला है, और उसका केंद्र दिल्ली रहा. थैचर ने तो संघों और ब्रिटेन के वामपंथियों से लोहा लिया और उन्हें परास्त किया लेकिन मनमोहन सिंह और यूपीए ने अन्ना हज़ारे के आगे हथियार डाल दिए और संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर भ्रष्टाचार के लगभग सभी बड़े आरोपों को परोक्ष रूप से कबूल कर लिया था, उन्होंने सारी नैतिक सत्ता और राजनीतिक पूंजी दांव पर लगा दी थी. जब तक अन्ना विजयी भाव से बंगलूर के जिंदल फार्म में आराम करने के लिए लौटे, तब तक मनमोहन सरकार का हिसाब-किताब हो चुका था. अन्ना इसलिए नहीं जीते कि उन्हें लोकपाल विधेयक हासिल हो गया, बल्कि वे और उनके ‘मैनेजर’ तो उसके पीछे पड़े भी नहीं थे. उनका मिशन तो यूपीए-2 को बरबाद करना था. और इसमें वे सफल रहे. बेशक इसमें उन्हें यूपीए की कमजोरी और राजनीतिक चतुराई की कमी से मदद मिली.

मोदी और उनके सलाहकार आज जब अपने साढ़े छह साल के दौर की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं, तब उनके लिए बेहतर होगा कि वे विपरीत नतीजे देने वाले इन दोनों उदाहरणों पर गौर करें. इसकी तुलना नागरिकता कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन से न करें. उस आंदोलन ने तो ध्रुवीकरण को और गहरा करके भाजपा को राजनीतिक लाभ ही पहुंचाया. लेकिन किसानों का आंदोलन इसका उलटा कर रहा है. यह बात कड़वी लग सकती है मगर कहनी पड़ेगी कि आप सिखों को ‘मुस्लिम’ वाले राजनीतिक खांचे में नहीं डाल सकते. ‘खालिस्तानी हाथ’ का आरोप उछालना बेमानी था और वह नाकाम रहा. यह वैसी ही गलती थी, जो कांग्रेस ने अन्ना हज़ारे को ‘भ्रष्टाचार में सिर से पैर तक डूबे’ कहकर की थी. मार्केटिंग का यह सिद्धान्त नहीं भूलना चाहिए कि जो झूठ साफ दिख रहा हो वह बुरी तरह नाकाम होता ही है, जैसा कि खालिस्तान वाला आरोप हुआ.



सीएए विरोधी आंदोलन में मुस्लिम और कुछ वामपंथी बौद्धिक समूह शामिल थे. आप उन्हे आसानी से अलगथलग करके कुचल सकते थे. यहां हम केवल एक राजनीतिक हकीकत का बयान कर रहे हैं. मोदी सरकार ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाने की जरूरत भी नहीं समझी. लेकिन किसानों के मामले पर उसकी प्रतिक्रिया अलग रही है. वैसे भी, यह संकट दूसरे कई ऐसे संकटों के साथ उभरा है, जो सुलझने का नाम नहीं ले रहे हैं. चीन लद्दाख में अपना धरना खत्म नहीं करता दिख रहा है; कोरोना वायरस का प्रकोप शांत नहीं हो रहा; और अर्थव्यवस्था लगातार छह तिमाहियों से गिरावट की राह पर बनी हुई है. राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक और नैतिक मोर्चों पर मोदी सरकार के लिए मुश्किलें चूंकि बढ़ चुकी हैं इसलिए किसान आंदोलन उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है.

मोदी की शिकायत रही है कि उन्हें एक आर्थिक सुधारक के तौर कोई खास श्रेय नहीं दिया जाता; कि उन्होंने दिवालिया कानून बनाया, जीएसटी लागू किया, सरकारी बैंकों को मजबूती दी, विदेशी निवेश को आसान बनाया, आदि-आदि लेकिन इन सबके बावजूद कई लोग और खासकर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उन्हें आर्थिक सुधारक नहीं मानते.

इसमें शक नहीं है कि इन सुधारों के लिए उन्होंने भारी राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया, लेकिन इनमें से कुछ सुधार, खासकर जीएसटी, खराब पूर्व-तैयारी और क्रियान्वयन के कारण अपना मकसद पूरा नहीं कर पाए. और, इसमें कोई शक नहीं है कि अचानक की गई नोटबंदी ने कुल मिलाकर यही किया कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया. इसलिए मोदी की अब तक की देन यही रही है कि अर्थव्यवस्था सुस्त होती गई और भारत की वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई. मोदी को विरासत में 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर मिली थी और यह नया औसत बन गया था. अब, रिजर्व बैंक आज यह तो जरूर कह रहा है कि यह आंकड़ा 8 प्रतिशत का ही रहेगा मगर यह ऋणात्मक रहेगा. किसी ने यह नहीं उम्मीद की थी कि मोदी के सातवें वर्ष में वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाएगी और, आइएमएफ के अक्तूबर के अनुमान के मुताबिक, भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा बांग्लादेश के इस आंकड़े के नीचे पहुंच जाएगा.



कोरोना की महामारी ने मोदी के लिए संकट के रूप में एक ऐसा अवसर उपलब्ध कराया था, जिसे ‘बरबाद नहीं किया जाता.’ अगर नरसिंह राव और मनमोहन सिंह एक अल्पमत सरकार चलाते हुए 1991 के आर्थिक संकट का लाभ उठाकर भारत के आर्थिक इतिहास में अपने लिए एक अच्छी जगह बना सके, तो मोदी आज ऐसा क्यों नहीं कर सकते? इसलिए, महामारी के मद्देनजर घोषित पैकेज में कई साहसी कदम उठाए गए. श्रम कानूनों में सुधार के बाद नये कृषि कानून ऐसे ही सबसे चमत्कारी कदमों में गिने जाएंगे.

इनकी तुलना थैचर के परिवर्तनकारी साहसी कदमों से की जा सकती है. बेशक वे मोदी की तरह कई सारे संकटों से नहीं घिरी थीं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर उन्हें मोदी की तरह वर्चस्व नहीं हासिल था. कोई भी बड़ा बदलाव किया जाता है तो उसको लेकर आशंकाएं जाहिर की जाती हैं, उसका विरोध किया जाता है. यह जो बदलाव किया गया है उससे देश की 60 फीसदी आबादी प्रभावित हुई है, जो किसी-न-किसी रूप में कृषि से जुड़ी है. मोदी और उनकी सरकार इस बदलाव के बारे में किसानों को बेहतर तरीके से भरोसे में ले सकती थी, मगर यह एक ऐसा तथ्य है जिसका समय बीत चुका है.

अन्ना आंदोलन और आज के हालात में कई तरह की समानताएं हैं. ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन की तरह किसानों के आंदोलन का स्वरूप भी गैर-राजनीतिक है. उसने किसी नेता को अपने मंच पर जगह नहीं दी है. लोक संस्कृति की प्रमुख हस्तियां इसके पक्ष में बोल रही हैं. किसानों के लिए व्यापक सहानुभूति उमड़ रही है, उन्हें अन्ना के आंदोलनकारियों की तरह नेक और भुक्तभोगी माना जा रहा है. इसके समर्थक भी सोशल मीडिया का वैसा ही बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसा अन्ना के आंदोलनकारी कर रहे थे.

लेकिन कुछ अंतर भी हैं. यूपीए-2 के विपरीत आज प्रधानमंत्री अपने मन के मालिक हैं. उन्हें लुटिएन्स के किसी दूसरे बंगले में रहने वाले किसी शख्स से हरी झंडी का इंतजार नहीं करना है. उनकी लोकप्रियता मनमोहन सिंह की लोकप्रियता से कई गुना ज्यादा है, उनकी वाकपटुता का मुक़ाबला नहीं है, और अपनी पार्टी को चुनाव जिताने का उनका रेकॉर्ड भी बेदाग है. लेकिन किसानों का यह आंदोलन उनके लिए बदनुमा बन गया है. उनकी राजनीति ‘संकेतों और संदेशों’ के खंभों पर टिकी रही है. ऐसे में मौसम की मार खाए चेहरों वाले, मिट्टी का नमक माने जाने वाले किसानों का अपने लंगर में अपना खाना पकाना और खाना, हर नए आगंतुक को खाना पेश करना और सरकार के साथ वार्ताओं में भी अपने गुरुद्वारों से लाया खाना जमीन पर बैठकर खाना, उन्हें ‘खालिस्तानी’ बताए जाने के आरोप का व्यापक विरोध— ये सब मिलकर जो संदेश दे रहे हैं वह मोदी को पसंद नहीं. उनके और उनकी पार्टी के लिए, संदेश ही राजनीति है.

थैचर के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी, और मनमोहन सिंह के पास खेलने को कुछ नहीं था. अब मोदी इससे किस तरह निबटेंगे? कदम वापस खींचने का लोभ तो तगड़ा होगा. आप विधेयकों को टाल सकते हैं, वापस ले सकते हैं, संसद की प्रवर समिति में भेज सकते हैं, किसानों को बहलाकर कुछ मोहलत हासिल कर सकते हैं. ऐसा नहीं है कि मोदी-शाह को कदम वापस खींचना नहीं आता. ऐसा उन्होंने इतने ही साहसी भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में “सूट बूट की सरकार’ वाले हमले से परेशान होकर तो किया ही था. तो एक बार फिर ‘चतुराई से पीछे हटने’ में क्या बुरा है?

लेकिन ऐसा होगा तो यह अनर्थ होगा, अन्नाआंदोलन ने मनमोहन सिंह का जो अनर्थ किया था उससे भी बुरा होगा. ‘मजबूत’ सरकार का नारा ही मोदी की ब्रांड छवि का आधार रहा है. भूमि अधिग्रहण विधेयक से वे अपने शुरुआती दौर में पीछे हटे थे. राज्यसभा में बहुमत न होना एक बहाना था. लेकिन एक बार फिर कदम वापस खींचने से उनकी ‘मजबूत’ छवि बिखर जाएगी. और विपक्ष उनकी कमजोरी ताड़ लेगा. लेकिन उनकी राजधानी को किसानों ने घेर रखा हो, यह भी उनकी खराब छवि ही प्रस्तुत कर रहा है. यह ‘ऑकुपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन का कोई विकृत रूप नहीं है. किसान भारत की आत्मा हैं. इसके साथ ही उनके पास समय है. खेतीबाड़ी की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति जानता है कि उत्तर भारत में रबी की फसल की बुवाई के बाद किसानों को अप्रैल तक खाली समय मिल जाता है.

आप उन्हें उस तरह उखाड़ कर वापस नहीं भेज सकते जैसा शाहीन बागों के साथ किया था. लेकिन आप उन्हें ज्यादा समय तक डटे भी नहीं रहने दे सकते. आपने थोड़ा-सा भी सरेंडर किया कि आपकी कमान छूटी. क्योंकि, तब श्रम सुधारों का विरोध करने वाले राजधानी को घेरने आ जाएंगे. इसलिए, हमने कहा कि अब मोदी इस चुनौती के जवाब में जो कदम उठाते हैं वह राष्ट्रीय राजनीति की आगे की दिशा तय करेगी. हमारी अपेक्षा यही है कि वे थैचर का रास्ता चुनेंगे. सुधारों के अपने सबसे साहसिक कदम पर अगर मोदी जैसे नेता भी लड़खड़ाते हैं तो यह दुखद होगा.

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