सियासत बहुरूपिया है। इसके कितने रूप हैं कोई कभी नहीं समझ सकता। सोचिए ना, जो अशोक गहलोत गांधी परिवार के इतने करीब थे कि उनके हाथों कांग्रेस पार्टी की कमान देने तक देने का फैसला हो गया था। आज वही गहलोत गांधी परिवार के सामने चुनौतियां का पहाड़ बनकर खड़े हो गए हैं। सारा माजार सिर्फ कुछ घंटों में बदल गया। एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की दूरी इन्हीं कुछ घंटों में तय हो गई। अब कहा जा रहा है कि गांधी परिवार ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए गहलोत का पत्ता काट दिया है। तो क्या गहलोत का हाल भी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसा ही होने वाला है?
भविष्य में क्या होगा, किसने देखा? लेकिन जो हुआ वह गांधी परिवार की समझ से परे है। गहलोत ने साफ संदेश दे दिया कि गांधी परिवार उन्हें अमरिंदर सिंह समझने की भूल नहीं करे। याद है ना अमरिंदर सिंह के साथ क्या हुआ था? अशोक गहलोत की तरफ से अप्रत्याशित और बेहद सख्त संदेश मिलने के बाद चारो खानें चित्त दिख रहा कांग्रेस आलाकमान के पास क्या विकल्प बच गए हैं, इस पर विचार करने से पहले थोड़ी देर के लिए पंजाब चलते हैं।
जब गांधी परिवार ने पंजाब में किया था खेल
पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले थे। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी जिसके मुखिया थे कैप्टन अमरिंदर सिंह। कैप्टन के खिलाफ विधायकों के एक गुट ने बगावत कर दिया। कहा कि कैप्टन को बदला नहीं गया तो पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में औंधे मुंह गिरेगी। कांग्रेस आलाकमान ने विधायकों को दो बार दिल्ली बुलाया और हालात का जायजा लिया। उनसे पूछा गया कि आखिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि कैप्टन अमरिंदर से पंजाब की जनता नाराज है? तर्क-वितर्क हुए, दलीलें रखी गईं और फिर आलाकमान ने तय कर लिया कि कैप्टन अब मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे।
19 सितंबर 2021 को पंजाब कांग्रेस विधायक दल (CLP) की मीटिंग बुलाई गई। लेकिन इससे पहले 18 सितंबर को ही कैप्टन से इस्तीफा मांग लिया। उन्होंने राज्यपाल से मिलकर अपना इस्तीफा सौंप दिया और बोले कि आलाकमान ने उन्हें पिछले कुछ महीनों में बहुत प्रताड़ित किया है। अब उनके पास कोई चारा नहीं बचा। फिर कितनों के नाम उछले। मंथनों का दौर चला और आखिरकार चरणजीत सिंह चन्नी नए मुख्यमंत्री बन गए।
वो कैप्टन थे, ये जादूगर हैं
वो ‘कैप्टन’ थे। सेना में रहे थे। अनुशासन समझते थे। लड़ाई का मैदान और शत्रु की पहचान भी है उन्हें। पटियाला राजघराने से ताल्लुक है उनका। इसलिए उनमें नजाकत और नफासत है। अशोक गहलोत ‘जादूगर’ हैं। दशकों के सियासत से जो उन्होंने जो जादूगरी सीखी है, उसके दम पर वो लड़ाई का मैदान बदलने का माद्दा रखते हैं। शत्रु की पहचान की भी उनकी अपनी कसौटी है। इसलिए उन्होंने गांधी परिवार को साफ संदेश दिया- ‘यह जयपुर है, चंडीगढ़ नहीं।’
गहलोत की पेच में फंसा गांधी परिवार
गहलोत को पता है कि पंजाब कांग्रेस के अंदर पिछले साल जो चल रहा था, उससे बिल्कुल अलहदा मामला है राजस्थान कांग्रेस का। गुटबाजी तो पंजाब में भी हुई और यहां भी है। लेकिन पंजाब में मुख्यमंत्री का गुट कमजोर था, यहां सीएम ही सर्वशक्तिमान हैं। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धु कुर्सी की आस लगाए थे, यहां सचिन पायलट। लेकिन पंजाब में सिद्धू को कुर्सी नहीं मिली तो फिर यहां पायलट को क्यों? इसलिए गहलोत ने गांधी परिवार की शुरुआती कवायद पर ही पानी फेर दिया। विधायकों से बात होती, पायलट का नाम चलता, फिर सहमति बनाने की कवायद होती।
और गहलोत ने चल दी चाल
गहलोत को पूरी प्रक्रिया का पता था। इसलिए उन्होंने उसे शुरू ही नहीं होने दिए जिसका अंजाम उनके मुताबिक नहीं होना था। पासा फेंका और आलाकमान के सारे प्लान चौपट। सोनिया गांधी और उनकी दो संतानों, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने गहलोत की जगह अपने चुनिंदा चेहरे को राजस्थान की सत्ता सौंपने का जो सपना देखा था, उस पर चुटकी में पानी फिर गया। गहलोत ने एक चाल चली और गांधी परिवार ध्वस्त। कैप्टन की राजनीति वो नहीं है। इसलिए गांधी परिवार की मंशा भांपकर खुद को ससम्मान अलग कर लिया। यह उनकी मजबूरी भी थी।
लेकिन चारों खाने चित हो गए थे कैप्टन
जब केंद्रीय नेतृत्व ने नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष और चरणजीत सिंह चन्नी को प्रदेश का मुख्यमंत्री पद के लिए चुना तब तक कैप्टन विधायकों का समर्थन पूरी तरह खो चुके थे। उन्होंने विधायकों को तो दूर रखा ही, खुद केंद्रीय नेतृत्व में भी सोनिया गांधी के सिवा किसी और के करीब नहीं रहे। इस कारण जब उनके खिलाफ बगावत का बिगुल बजा तो वो बिल्कुल अलग-थलग पड़ गए और गांधी परिवार को आसानी से अपना चेहरा चुनने का मौका मिल गया।
गहलोत गजब हैं
इधर, अशोक गहलोत अपने विधायकों और समर्थकों के लिए 24*7 उपलब्ध रहने के लिए जाने जाते हैं। गांधी परिवार से उनकी करीबी तो जगजाहिर थी ही। चार दशकों की राजनीति में वो कांग्रेस के हर बड़े पदों पर रह चुके हैं। दो वर्ष पहले जब सचिन पायलट की अगुवाई में बगावत हुई तब गहलोत के जादू ने कांग्रेस आलाकमान का मन और मोह लिया और उनकी धमक और भी बढ़ गई।
गहलोत ने 31 दिनों तक सर उठाए रहे खतरे को खत्म कर दिया और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बच गई। जी हां, जिस तरह कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, गोवा, कर्नाटक जैसे राज्यों में बीजेपी के हाथों अपनी सत्ता गंवाई थी, वो राजस्थान में भी देखने को मिलता तो कोई हैरत की बात नहीं होती। लेकिन गहलोत ने अपने विधायकों के कसकर पकड़े रखा जिससे सचिन पायलट के पास न पार्टी में रहकर सरकार बनाने का मौका मिला और न पार्टी तोड़कर बीजेपी से समर्थन हासिल करने का।