केंद्र सरकार दालों की बढ़ती कीमत को नियंत्रित करने के लिए बड़ी तैयारी कर रही है. कहा जा रहा है कि अब दाल व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं को पीली मटर, तुअर और उड़द के स्टॉक का अनिवार्य रूप से खुलासा करना पड़ेगा. क्योंकि सरकार को लग रहा है कि व्यापारी और खुदरा विक्रेताओं ने दालों का तय लिमिट से ज्यादा स्टॉक कर रखा है. इससे पिछले कुछ हफ्तों से कुछ बाजारों में इन दालों की कीमतों में बढ़ोतरी का रुख देखने को मिल रहा है. एक महीने पहले की तुलना में अप्रैल की शुरुआत में तुअर की कीमतें 100 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ गईं. वहीं, मूंग और मसूर (दाल) में भी ऐसी ही तेजी देखी गई है.
द इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, कई दालों की ऊंची कीमतें कई महीनों से सरकार के लिए चिंता का कारण बनी हुई हैं. 2023-24 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में तुअर (अरहर) का उत्पादन 3.33 मिलियन टन होने का अनुमान है, जो पिछले फसल वर्ष की तुलना में थोड़ा कम है. इससे सरकार की चिंता और बढ़ गई है. कहा जा रहा है कि अगर तुअर के उत्पादन में गिरावट आती है, तो इसकी कीमत में और बढ़ोतरी हो सकती है. उपभोक्ता मामलों के विभाग के अनुसार, 2023 में 0.77 मिलियन टन आयात के बावजूद, तुअर की औसत खुदरा कीमतें 160 रुपये प्रति किलोग्राम से ऊपर रही हैं. सभी प्रकार की दालों में अरहर की खुदरा कीमत सबसे अधिक है.
दालों की थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति फरवरी में 18.48 फीसदी रही, जो जनवरी में 16.06 प्रतिशत थी. हालांकि, अप्रैल-मई में होने वाले आम चुनाव के साथ, सरकार ने खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि को रोकने के लिए कई प्रयास किए हैं. जैसे निर्यात प्रतिबंध लगाना, स्टॉक सीमित करना, अपने स्वयं के स्टॉक को उतारना और आयात शुल्क हटाना शामिल है. दिसंबर 2023 की शुरुआत में, केंद्र ने मार्च 2024 तक पीली मटर के शुल्क-मुक्त आयात की अनुमति दी और बाद में दालों की कीमतों को कम करने के प्रयासों के तहत इसे अप्रैल तक बढ़ा दिया.
देश में दाल का उत्पादन
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अगर इतनी अधिक पीली मटर का आयात किया जा रहा है तो यह बाजार और उपभोक्ताओं तक क्यों नहीं पहुंच रही है. उन्होंने कहा कि अनिवार्य स्टॉक का खुलासा करने जैसे कदम जमाखोरी को रोकेंगे. सरकारी अनुमान के अनुसार, भारत ने इस वित्तीय वर्ष में 31 मार्च तक लगभग 10 लाख टन पीली मटर का आयात किया है, जो हाल के दिनों में सबसे अधिक हो सकता है. भारत बड़े पैमाने पर कनाडा और रूस से पीली मटर का आयात करता है. फसल वर्ष 2022-23 में कुल दलहन उत्पादन 26.05 मिलियन टन था. खपत लगभग 28 मिलियन टन सालाना होने का अनुमान है और भारतीयों की क्रय शक्ति में वृद्धि के साथ यह लगातार बढ़ रही है.
थाली में कम होती दाल
जब दलहन फसलों का रकबा देखेंगे तो वह बढ़ा जरूर नजर आएगा. लेकिन जनसंख्या के हिसाब से इसकी खेती जितनी बढ़नी चाहिए वह नहीं बढ़ी. जब हम प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता देखेंगे तो यह यह बात समझ में आ जाएगी. इस वक्त सालाना प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता पहले से घट गई है. साल 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष दालों की उपलब्धता 22.1 किलोग्राम थी, जो 2021 में घटकर सिर्फ 16.4 किलोग्राम ही रह गई है.
जाहिर है कि बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए दलहन फसलों की खेती बढ़ने की जो रफ्तार होनी चाहिए वो नहीं है. यह उपलब्धता तो तब है जब पिछले सात-आठ साल में दलहन फसलों का एरिया और उत्पादन काफी बढ़ गया है. क्योंकि हम अब दलहन में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं. वरना अगर 2010 की बात करें तो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष दालों की उपलब्धता सिर्फ 12.9 किलो ही थी. जबकि भारत में शाकाहारी लोगों के लिए दालें प्रोटीन का अच्छा सोर्स हैं.
दलहन फसलों की उपेक्षा
अब बात करते हैं दलहन फसलों के एरिया की. केंद्रीय कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि आजादी के बाद भारत में दलहन का क्षेत्र गेहूं से भी अधिक हुआ करता था. मंत्रालय के पुराने दस्तावेज भी इस बात की तस्दीक करते हैं. साल 1972-73 तक गेहूं का एरिया लगभग डबल हो गया. जबकि दलहन फसलों के रकबे में मामूली सी वृद्धि हुई. साठ के दशक की शुरुआत से 2015-16 तक दलहन फसलों का एरिया स्थिर रहा. न ज्यादा घटा और न बढ़ा. इससे दालों की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया.
एक तरफ दलहन फसलों की खेती नहीं बढ़ी तो दूसरी तरफ हमारे वैज्ञानिक अधिक उत्पादन देने वाली किस्में बनाने में फेल रहे. इसलिए उत्पादकता में हम पीछे रहे. दलहन फसलों की कनाडा और चीन जैसी उत्पादकता होती तो फिर आज हम दालों के आयातक नहीं होते.