मुनेश त्यागी
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हो गए हैं। उनकी नियुक्ति के साथ जनता में आशा और विश्वास जागृत हो गया है कि उनके आने से जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिलेगा। जनता और वादकारी बहुत बड़ी आशा से उनसे ऐसी उम्मीद कर रहे हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अपनी कार्यप्रणाली में बहुत तेज तर्रार हैं। वे संवैधानिक मामलों के जानकार हैं विशेषज्ञ हैं और कई संवैधानिक बैंचों में न्यायाधीश हैं। इसी तरह भारत में ई-कोर्ट बनाने की और आधुनिक बनाने की ई-कमेटी में भी है और उसके चेयरमैन हैं।
अब यहां पर सबसे बड़ा सवाल खडा होता है कि आखिर जनता को पिछले 75 साल में सस्ता और सुलभ न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? इसमें क्या किया जाए? इसके लिए कौन जिम्मेदार है, सरकार, जुडिशरी या वादकारी या वकील कौन जिम्मेदार है? इस का निश्चय किया जाना और उसका निस्तारण किया जाना बहुत जरूरी है।
भारतवर्ष में इस समय लगभग 5 करोड मुकदमें अदालतों में पेंडिंग हैं। सुप्रीम कोर्ट में लगभग 80,000, विभिन्न हाईकोर्ट में 59,500 और निचली अदालतों में 4 करोड़ 20 लाख मुकदमें पेंडिंग है और अफसोस की बात तो यह है कि इनमें लाखों मुकदमे तो पिछले 40 साल से भी ज्यादा समय से अदालतों में पेंडिंग हैं, उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, उनका नंबर नहीं आ रहा है। बहुत सारे के वादों में तारीख पर तारीख लगती जा रही हैं और वात कार्यों की सस्ता और सुलभ न्याय प्राप्त करने की आशाएं धूमिल और क्षीण होती जा रही हैं।
यहीं पर अगर न्यायालय में तय पदों के खाली होने पर और खाली पड़े हुए पदों पर एक नजर दौड़ाई जाए तो पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट में 5 पद खाली हैं। विभिन्न हाईकोर्ट में 336 जजों के पद खाली हैं और हजारों मजिस्ट्रेट और जजों के 25% से भी ज्यादा पद खाली पड़े हुए हैं जो काफी समय से नहीं भरे जा रहे हैं। यहीं पर एक समस्या सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज नियुक्त करने की कोलिजियम की समस्या है।
कॉलेजियम और सरकार की मत भिन्नता के कारण सुप्रीम कोर्ट में और सर्वोच्च न्यायालय में बहुत सारे पद खाली पड़े हुए हैं। वहां पर समय से न्यायमूर्तियों की नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। वकीलों की कई संस्थाएं सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और निचली अदालतों में कई सालों से प्रयासरत हैं कि जजों की नियुक्ति, ट्रांसफर और मिसकंडक्ट के मामलों को देखने के लिए भारत में एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाया जाए, मगर सरकार इस बारे में कोई सुनवाई नहीं कर रही है और हकीकत तो यह है कि सरकार अपनी मनमर्जी का राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाना, थोपना चाहती है जो कि सरकार के इशारों पर चल सके, नाच सके।
न्यायालयों में जजों की संख्या को लेकर भारत का कानून कमीशन और भारत का सर्वोच्च न्यायालय कई बार, न्यायालयों में नियुक्त होने वाली जजों की संख्या को लेकर अपनी बात कह चुके हैं। 1987 में भारत के कानूनी आयोग ने कहा था कि भारत में 10 लाख जनसंख्या पर वर्ष 2000 तक, 107 जज नियुक्त किए जाने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने इस मुकाम को 1981 में ही प्राप्त कर लिया था। दुर्भाग्य है कि भारत की सरकार ने सरकारों ने इस सिफारिश पर कोई ध्यान नहीं दिया।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2002 में अपनी राय जाहिर की थी कि अगले पांच सालों में भारत में 10 लाख जनसंख्या पर 50 जज होने चाहिए। भारत में इस समय 10 लाख जनसंख्या पर केवल 18 जजिज हैं। इस प्रकार यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है की भारत की सरकारों का जिसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों शामिल हैं, उनका भारत की अभागी जनता को सस्ता और सुलभ न्याय दिलाने में कोई मंशा नहीं है, कोई रुचि नहीं है। वे लॉ कमीशन और सर्वोच्च न्यायालय की सिफारिशों पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं और उनकी सिफारिशों को भी उन्होंने ठंडे बस्ते में डाल दिया है, उन पर कोई कार्यवाही नहीं कर रहे हैं। इस प्रकार भारत की जनता, बरसों बरस से दुनिया में, सबसे ज्यादा अन्याय का शिकार बनी हुई है और उसकी कोई सुनने वाला नहीं है।
इन सब समस्याओं को देखकर सवाल यह है कि आखिर क्या किया जाए? हमारे देश में जो 5 करोड मुकदमों का पहाड़ खड़ा हुआ है, आखिर इनसे कैसे निपटा जाए? यहां पर हमारा कहना है,,,,
पहला, जब तक मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं हो जाती हैं, उनके पदों को नहीं भरा जाता है, तब तक जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता। इसलिए यहां पर न्यायपालिका और सरकार को मिलजुल कर काम करना होगा ताकि खाली पड़े पदों को समय से भरा जा सके।
दूसरा, न्यायिक वैकेंसीज को तुरंत भरा जाए, जब तक न्यायिक पदों को भर कर इन खाली पड़े पदों पर नियुक्तियां कर के जज काम नहीं करेंगे तो जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता।
तीसरे, विभिन्न हाईकोर्टों में 35 परसेंट जजों के पद खाली पड़े हुए हैं और निचली अदालतों में पिछले कई सालों से 25% पद खाली पड़े हुए हैं अतः इन्हें शीघ्रता शीघ्र भरा जाए और इन पर जज नियुक्त किया जाए। सरकार की नियत इस मामले में साफ नहीं है। सरकार इस ओर से पिछले कई सालों से आंख मूंद कर बैठे हुए हैं। वह शीघ्रता से इन पदों को भरने के लिए तैयार नहीं है, शीघ्रता से इन पदों को भरने की उसकी कोई इच्छा भी दिखाई नहीं देती।
चौथा, कोलीजियम एक असफल संस्था बनकर रह गई है। इसके स्थान पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में नियुक्तियों को लेकर, तबादलों को लेकर और जजों के मिसकंडक्ट को लेकर एक न्यायिक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग यानी नेशनल ज्यूडिशल कमिशन का गठन हो, जो इन मामलों की देखरेख करेगा।
पांचवा, कई सारे कानून पुराने पड़ गए हैं उन्हें या तो बदला जाए या उनमें आधुनिकतम संशोधन किए जाएं और उनके स्थान पर नए कानून बनाए जाएं ताकि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल सके और अनाप-शनाप की जो रुकावटें और बाधायें हैं, उन्हें खत्म किया जाए।
छटा, नए कानून बनाने के लिए जजों का, कानून विशेषज्ञों का, वकीलों का और विपक्षी पार्टियों का भी साथ लिया जाए। नए कानून बनाने में इन सब का प्रतिनिधित्व हो, ताकि जनता की जरूरतों के हिसाब से एक बेहतर कानून बनाया जा सके और उसी समय से सच्चा वास्तविक और सुलभ न्याय मिल सके और किसी पक्ष को कोई आपत्ति ना हो।
सातवां, जमानत को नियम और जेल को अपवाद बनाया जाए, क्योंकि हमारे देश में बहुत सारे मुकदमें तफ्तीश की अवस्था में और न्यायालयों में लंबित रहने की अवस्था में बहुत सारे वाजिब केसों में वाजिब जमानत नहीं मिल पाती और आरोपी कई सालों तक जेल में सडते रहते हैं, जो की आरोपियों के मौलिक अधिकारों का हनन है, इसलिए जमानत को नियम और जेल को अपवाद बनाया जाए,
आठवां, वकीलों की बेतहाशा बढ़ी हुई फीस ऊपर नियंत्रण लगाने का कानून बनाया जाए, ताकि गरीब जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मोहिया कराया जा सके, क्योंकि वकीलों की बेतहाशा बढ़ी हुई फीस के कारण बहुत सारे गरीब वादकारी अपने केसों को दायर ही नहीं कर पाते या दायर करने के बाद उनमें पैरवी भी नहीं कर पाते।
नौवां, हमारे मुल्क में बहुत सारे कानूनों में मुकदमा निपटाने की अवधि नियत नहीं है जिस कारण मुकदमे को लंबा खींचा जाता है। इसलिए जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए मुकदमा निपटारे की सीमा तय की जाए और और अदालत प्रयास करें कि निश्चित अवधि में वादकारियों को न्याय मिल सके ऐसा करने से न्यायालयों में आम जनता का विश्वास और बढ़ेगा उसकी नजरों में अदालत को और सम्मान मिलेगा और उसे यह अहसास और विश्वास बना रहेगा कि उसे न्याय देने के लिए उसे सच्चा और असली न्याय देने के लिए न्यायालय मौजूद है उसके साथ न्याय करके ही रहेगा।
दसवां, मुकदमा स्थगित करवाने पर भारी जुर्माना लगाने का प्रावधान हो, ताकि मुकदमा स्थगन करवाने की नियत और मनसा पर प्रभावी रोक लग सके और इसी के साथ-साथ मुकदमा अन्याय करने का और मुकदमा लंबा खींचने की नियत पर भी रोक लगाई जा सके, क्योंकि हमने देखा है कि बहुत सारे धनवान, ताकतवर लोग और अन्याय करने वाले लोग, मुकदमे को लंबा खींचने में ही अपनी जीत समझते हैं और वह किसी ना किसी बहाने मुकदमे में तारीख लेना ज्यादा उचित समझते हैं और मुकदमें में मुकर्रर की गई कार्यवाही को नहीं करते, इसलिए उनकी मंशा और नियत पर रोक लगाने के लिए उन पर भारी जुर्माना लगाया जाने की व्यवस्था की जाए।
ग्यारहवां, न्यायिक समाज, आमजन को न्याय देने का माध्यम और हथियार बने, अन्याय करने का नहीं। जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देना सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सस्ता और सुलभ न्याय लेना हर वादकारी का संवैधानिक हक है। इसे सरकार किसी भी दशा में कोई भी बहाना बनाकर मना नहीं कर सकती।
बारहवां, जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने में सरकार की, न्यायपालिका की या वकीलों की कोई भी बहानेबाजी या अटकलबाजी नहीं चलेगी क्योंकि मुकदमों को सही समय में निपटाए बिना और जनता को सस्ता और सुलभ न्याय दिए बिना, हमारा जनतंत्र, गणतंत्र और संविधान कायम नहीं रह सकते। ऐसा करने से हमारा संविधान धारा सही हो जाएगा।
तेरहवां, हम भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना की, इस बात से बिल्कुल सहमत है कि स्थानीय स्तर पर, तहसील स्तर पर, रिवेन्यू कोर्ट स्तर पर, नगर निगम स्तर पर और श्रम कार्यालय के स्तर पर कार्य करने वाले न्यायिक अधिकारी गण की यह जिम्मेदारी तय की जाए कि वे सबसे पहले न्यायिक प्रक्रिया को गति प्रदान करेंगे और जनता की समस्याएं सुनकर उनको समय से न्याय प्रदान करेंगे और इसी के साथ साथ पुलिस की एफ आई आर दर्ज करने की प्रक्रिया को, उसके इन्वेस्टिगेशन को त्वरित, वैज्ञानिक और चुस्त-दुरुस्त बनाया जाए ताकि जनता को समय से, सही और असली न्याय मिल सके। ऐसा करने से हमारे देश में मुकदमों का जो अंबार लग गया है, उसमें काफी हद तक कमी आएगी।
उपरोक्त समस्याओं को दूर करके ही हमारे देश की जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल सकता है, ऐसा करके ही संविधान के अनिवार्य सिद्धांतों का और मैंडेट्स का पालन किया जा सकता है। केवल और केवल ऐसा करके ही भारत में 5 करोड़ मुकदमों के पहाड़ को ढहाया जा सकता है। अन्याय से पीड़ित भारत की जनता को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराने के लिए उपरोक्त कदमों को उठाना सबसे जरूरी है। केवल तभी जनता को सस्ता और सुलभ न्याय मिल पाएगा। अन्यथा वह यूं ही अन्याय की मारी मारी फिरती रहेगी और उसे कभी भी न्याय नहीं मिल पाएगा।