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काश! मिल पाते डॉ. अंबेडकर और लोहिया

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अरुण कुमार त्रिपाठी

‘मेरे लिए डॉ. अंबेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे। और गांधीजी को छोड़कर बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जातिप्रथा एक न एक दिन खत्म की जा सकती है।’ – डॉ. राम मनोहर लोहिया, एक जुलाई, 1957।

डॉ. अंबेडकर के बारे में व्यक्त डॉ. लोहिया के यह उद्गार अगर लोहियावादियों ने ध्यान से पढ़ा होता तो अंबेडकरवादियों से एकता करने में 37 साल न लग जाते (1956-1993)। अगर इस बयान को अंबेडकरवादियों ने ध्यान से पढ़ा होता तो महात्मा गांधी को गाली देने की बजाय उनके महान शिष्य लोहिया के माध्यम से उनके विचारों को समझते क्योंकि गांधी और अंबेडकर अपने विवाद का व्यावहारिक समाधान तो निकालते ही रहे हैं लेकिन सैद्धांतिक समाधान अगर किसी के पास है तो लोहिया के पास।
संयोग से उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती के बहाने लोहियावादियों और अंबेडकरवादियों की नई एकता आज तूफान उठाए हुए है। उस एकता में सत्तापरिवर्तन की अल्पकालिक शक्ति तो है ही उसके सैद्धांतिक समागम में व्यवस्था परिवर्तन की भी ताकत छुपी है। सवाल है कि क्या सपा और बसपा उसे समझ रही हैं?
उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ आकर कमाल तो किया है। उसी के कारण भाजपा फूलपुर में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट तो हारी ही गोरखपुर की अजेय कही जाने वाली योगी आदित्यनाथ की सीट भी गँवा बैठी। कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर यह गठबंधन आगे भी रहा तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को मुँह की खानी होगी। इस भावी गठबंधन को सैद्धांतिक जामा पहनाने के लिए सपा समर्थकों ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया के चित्रों के साथ प्रदर्शन किया है। उनका दावा है कि सन 1956 में डॉ. लोहिया और भीमराव अंबेडकर का मिलन होने से रहा गया। आज उनकी विरासत के दावेदार उस सपने को पूरा करने निकले हैं। उधर सपा और बसपा के कार्यकर्ता गाँवों में एक-दूसरे से प्रेम पूर्वक मिलने लगे हैं। विशेष तौर पर सपा से संबद्ध मध्य जातियों के लोग दलित जातियों के साथ अतिरिक्त आदर के साथ पेश आने लगे हैं। पता नहीं यह अखिलेश यादव का जादू है या सत्ता पाने के लिए बना वोटों का मीजान। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया किन बिंदुओं पर समान रूप से सोचते थे, उनके मतभेद कहाँ थे और उनका मिलन भारतीय राजनीति में क्या भूचाल ला सकता था?
डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया दोनों के भीतर भारतीय जाति व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश की ज्वाला धधक रही थी। वे उसे भस्म करके दलितों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के लिए बराबरी पर आधारित समाज बनाना चाहते थे। डॉ. लोहिया इसे समाजवाद का नाम देते थे लेकिन डॉ. अंबेडकर इसे गणतंत्र कहते थे। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या अखिलेश यादव और मायावती किसी बड़े सपने पर आधारित सैद्धांतिक मिलन की ओर बढ़ रहे हैं या अपनी सत्ता के लिए कोई काम चलाऊ जुगाड़ तैयार कर रहे हैं? जुगाड़ वह उपकरण है जिसे ट्रैक्टर के कर्ज में डूबे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने घरेलू टेक्नालाजी के आधार पर अपने कृषि उपयोग के लिए ईजाद किया था। उसमें इंजन पंपिंग सेट का लगाया जाता है और पहिया टैक्टर का। उसका रजिस्ट्रेशन नंबर नहीं होता और उसकी जगह पर लिखा होता है – जय बाबा टिकैत या बम-बम भोले।
जिन्हें भी सपा और बसपा के इस मिलन को परिवर्तन का एक दीर्घकालिक सैद्धांतिक औजार बनाना है उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. अंबेडकर के उस पत्र व्यवहार को जानना चाहिए जो उनके बीच में हुआ था और उनके भीतर के उस आक्रोश को भी समझना चाहिए जो वे समय-समय पर जाति व्यवस्था के घृणित रूप पर व्यक्त करते थे और जिस पर आजकल बड़े-बड़े नेता खामोश रहना ही पसंद करते हैं या उसे सिर झुकाकर अपना लेते हैं।
डॉ. अंबेडकर चाहते थे कि वे अपनी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग करके सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाएँ। इसी उद्देश्य से उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया से पत्राचार किया था। उधर कांग्रेस के ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए डॉ. लोहिया को बाबा साहब जैसे दिग्गज बुद्धिजीवी का साथ चाहिए था। इसलिए डॉ. लोहिया ने 10 दिसंबर, 1955 को हैदराबाद से बाबा साहेब को पत्र लिखा, ‘प्रिय डॉक्टर अंबेडकर, मैनकाइंड (अखबार) पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोलकर रखने का प्रयत्न करेगा। इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। आप जिस विषय पर चाहें लिखिए। हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें, तो मैं चाहूँगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो बल्कि आश्चर्य भी करे। मैं चाहता हूँ कि क्रोध के साथ दया भी जोड़नी चाहिए। ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के भी नेता बनें। मैं नहीं जानता कि समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आपकी कोई दिलचस्पी होगी या नहीं। सम्मेलन में आप विशेष आमंत्रित अतिथि के रूप में आ सकते हैं। अन्य विषयों के अलावा सम्मेलन में खेत मजदूरों, कारीगरों, औरतों, और संसदीय काम से संबंधी समस्याओं पर भी विचार होगा और इनमें से किसी एक पर आपको कुछ बात कहनी ही है।’ – सप्रेम अभिवादन सहित, आपका राम मनोहर लोहिया।
अलग-अलग व्यस्तताओं और कार्यक्रम में तालमेल न हो पाने के कारण वे दोनों तो नहीं मिले लेकिन डॉ. लोहिया के दो मित्र विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने बाबा साहेब अंबेडकर से मुलाकात की। इस मुलाकात की पुष्टि करते हुए और उसके प्रति उत्साह दिखाते हुए बाबा साहेब ने डॉ. लोहिया को पत्र लिखा, ‘प्रिय डॉक्टर लोहिया आपके दो मित्र मुझसे मिलने आए थे। मैंने उनसे काफी देर तक बातचीत की। अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति की बैठक 30 सितंबर, 56 को होगी और मैं समिति के सामने आपके मित्रों का प्रस्ताव रख दूँगा। मैं चाहूँगा कि आपकी पार्टी के प्रमुख लोगों से बात हो सके ताकि हम लोग अंतिम रूप से तय कर सकें कि साथ होने के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं। मुझे खुशी होगी अगर आप दिल्ली में मंगलवार दो अक्तूबर 1956 को मेरे आवास पर आ सकें। अगर आप आ रहे हैं तो कृपया तार से मुझे सूचित करें ताकि मैं कार्यसमिति के कुछ लोगों को भी आपसे मिलने के लिए रोक सकूँ।’ आपका, बी.आर. अंबेडकर।
ध्यान रखिए कि उसी महीने में बाबा साहेब अंबेडकर 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में धम्म-दीक्षा लेने जा रहे थे। उसी के समांतर वे डॉ. लोहिया को भी एक साथ आने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। यानी वे धम्मक्रांति करने के बाद राजनीतिक क्रांति की तैयारी भी कर रहे थे और उस काम में लोहिया उन्हें अच्छे साथी प्रतीत होते लगे थे। इसी आशा के साथ उन्होंने धम्म-दीक्षा लेने के बाद कहा था, ‘मैं धम्म-दीक्षा ग्रहण करने के बाद राजनीति नहीं छोड़ूँगा। बैट लेकर तंबू में लौटने वाला खिलाड़ी नहीं हूँ।’ गौर करने की बात है कि बाबा साहेब अपने भाषणों में क्रिकेट के रूपक अक्सर इस्तेमाल करते थे।
डॉ. लोहिया ने बाबा साहेब के पत्र के जवाब में एक अक्तूबर 56 को लिखा, ‘आपके 24 सितंबर के कृपा पत्र के लिए बहुत धन्यवाद! आपके सुझाए समय पर दिल्ली पहुँच पाने में बिल्कुल असमर्थ हूँ। फिर भी जल्दी से जल्दी आपसे मिलना चाहूँगा। आप से दिल्ली में 19 और 20 अक्तूबर को मिल सकूँगा। अगर आप 29 अक्तूबर को बंबई में हैं तो वहाँ आपसे मिल सकता हूँ। कृपया मुझे तार से सूचित करें कि इन दोनों तारीखों में कौन सी तारीख आप को ठीक रहेगी। आपकी सेहत के बारे में जानकर चिंता हुई। आशा है आप अवश्य सावधानी बरत रहे होंगे। मैं केवल इतना कहूँगा कि हमारे देश में बौद्धिकता निढाल हो चुकी है। मैं आशा करता हूँ कि यह वक्ती है और इसलिए आप जैसे लोगों का बिना रुके बोलना बहुत जरूरी है।’ आपका, राम मनोहर लोहिया।
इस बीच डॉ. अंबेडकर से मिलने वाले डॉ. लोहिया के मित्रों ने उन्हें 27 सितंबर को पत्र लिखकर पूरा ब्योरा दिया। विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने डॉ. लोहिया को लिखा, ‘हम लोग दिल्ली जाकर डॉ. अंबेडकरजी से मिले। 75 मिनट तक बातचीत हुई। डॉ. अंबेडकर आपसे जरूर मिलना चाहेंगे। वे पार्टी का पूरा साहित्य चाहते हैं और मैनकाइंड के सभी अंक। वे इसका पैसा देंगे। वे हमारी राय से सहमत थे कि श्री नेहरू हर एक दल को तोड़ना चाहते हैं जबकि विरोधी पक्ष को मजबूत होना चाहिए। वे मजबूत जड़ों वाले एक नए राजनीतिक दल के पक्ष में हैं। वे नहीं समझते कि मार्क्सवादी ढंग का साम्यवाद या समाजवाद हिंदुस्तान के लिए लाभदायक होगा। लेकिन जब हम लोगों ने अपना दृष्टिकोण रखा तो उनकी दिलचस्पी बढ़ी। हम लोगों ने उन्हें कानपुर के आमक्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ने का न्योता दिया। इस ख्याल को उन्होंने नापंसद नहीं किया। लेकिन कहा कि वे आपसे पूरे भारत के पैमाने पर बात करना चाहते हैं। ऐसा लगा कि वे अनुसूचित जाति संघ से ज्यादा मोह नहीं रखते। श्री नेहरू के बारे में जानकारी लेने में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी। वे दिल्ली से एक अँग्रेजी अखबार भी निकालना चाहते थे। वे हम लोगों के दृष्टिकोण को बहुत सहानुभूति, तबीयत और उत्सुकता के साथ, पूरे विस्तार से समझना चाहते थे। उन्होंने थोड़े विस्तार से इंग्लैंड की प्रजातांत्रिक प्रणाली की चर्चा की जिससे उम्मीदवार चुने जाते हैं और लगता है कि जनतंत्र में उनका दृढ़ विश्वास है।’
यह पत्र बताता है कि डॉ. अंबेडकर की रुचि यूरोपीय ढंग (सोवियत रूस के माडल) के समाजवाद में तो नहीं थी लेकिन डॉ. लोहिया के जाति व्यवस्था विरोधी राजनीतिक विचारों में उनकी दिलचस्पी थी। इसी को समझकर डॉ. लोहिया अपने साथियों को लिखते हैं, ‘तुम लोग डॉ. अंबेडकर से बातचीत जारी रखो। डॉ. अंबेडकर की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे सिद्धांत में अटलांटिक गुट से नजदीकी महसूस करते हैं। मैं नहीं समझता कि इस निकटता के पीछे सिद्धांत के अलावा और भी कोई बात है। मैं चाहता हूँ कि डॉ. लोहिया समान दूरी के खेमे की स्थिति में आ जाएँ। तुम लोग अपने मित्र के जरिए सिद्धांत की थोड़ी बहुत बात चलाओ।’
इससे आगे डॉ. लोहिया अपने साथियों को लिखते हैं, ‘डॉ. अंबेडकर को लिखी चिट्ठी की एक नकल भिजवा रहा हूँ। अगर वे चाहते हैं कि मैं उनसे दिल्ली में मिलूँ तो तुम लोग भी वहाँ रह सकते हो। मेरा डॉ. अंबेडकर से मिलना राजनीतिक नतीजों के साथ इस बात की भी तारीफ होगी कि पिछड़ी और परिगणित जातियाँ उनके जैसे विद्वान पैदा कर सकती हैं।’ तुम्हारा, डॉ. राम मनोहर लोहिया। बाबा साहेब अंबेडकर ने लोहिया को 5 अक्तूबर को लिखा, ‘आपका 1 अक्तूबर 56 का पत्र मिला। अगर आप 20 अक्तूबर को मुझसे मिलना चाहते हैं तो मैं दिल्ली में रहूँगा। आपका स्वागत है। समय के लिए टेलीफोन कर लेंगे।’ आपका बी.आर. अंबेडकर।
लेकिन मुलाकात का वह संयोग नहीं आया और आ गया छह दिसंबर 1956 का दुर्योग। उस दिन बाबा साहेब का परिनिर्वाण हो गया और उनकी और डॉ. लोहिया की इतिहास की धारा बदलने की संभावना वाली भेंट नहीं हो सकी। लेकिन डॉ. अंबेडकर के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुए लोहिया ने मधु लिमये को जो पत्र लिखा वह बाबा साहेब के प्रति लोहिया के अगाध प्रेम और अपार सम्मान को व्यक्त करने वाला है। लोहिया लिखते हैं, ‘मुझे डॉक्टर अंबेडकर से हुई बातचीत उनसे संबंधित चिट्ठी पत्री मिल गई है और उसे मैं तुम्हारे पास भिजवा रहा हूँ। तुम समझ सकते हो कि डॉ. अंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा बहुत व्यक्तिगत रहा है और वह अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएँ, केवल संगठन में नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था। मैं एक पल के लिए भी नहीं चाहूँगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नजर से देखो। मेरे लिए डॉ. अंबेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे। और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है।’
हालाँकि डॉ. लोहिया ने डॉ. अंबेडकर और जगजीवन राम जैसे दलित समुदाय से आए देश के दो शीर्ष नेताओं की तुलना करते हुए यह भी कहा था कि एक जलन की राजनीति करते हैं तो दूसरे समर्पण की। यह दोनों उचित नहीं है। इसके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के विकृत रूप पर डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया दोनों को समान रूप से आक्रोश आता था। अगर डॉ. अंबेडकर की ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ किताब उनके जीवनकाल में इसलिए नहीं छप सकी क्योंकि उन्हें समय से वह चित्र नहीं मिल सका जिसमें भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने काशी में दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए थे। उस किताब में डॉ. अंबेडकर ने लिखा है, ‘अब ब्राह्मणों ने संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने एक शरारतपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। वह है वेदों के निर्भ्रांत होने का। यदि हिंदुओं की बुद्धि को ताला नहीं लग गया है और हिंदू सभ्यता और संस्कृति एक सड़ा हुआ तालाब नहीं बन गई है तो इस सिद्धांत को जड़मूल से उखाड़ फेंकना होगा।’
उधर बनारस में दो सौ ब्राह्मणों के पद प्रक्षालन पर टिप्पणी करते हुए लोहिया लिखते हैं, ‘भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति ने पुण्य नगरी बनारस में सार्वजनिक रूप से दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए। सार्वजनिक रूप से किसी के पैर धोना अश्लीलता है। इस काम को करना दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए।’
आज जब वेदों में सारी आधुनिक विद्या होने का एलान किया जा रहा है और योगियों और साध्वियों के माध्यम से ब्राह्मणवाद नए सिरे से वापस लौट रहा है तब डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया के अनुयायियों के समक्ष व्यवस्था परिवर्तन की गंभीर लड़ाई उपस्थित है। क्या वे सिर्फ सत्ता परिवर्तन की तात्कालिक लड़ाई जीतने के लिए तमाम समझौते और जुगाड़ करेंगे या व्यवस्था परिवर्तन के सैद्धांतिक सवालों को उठाने का खतरा मोल लेंगे?
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