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सरकारी स्कूलों की ज़रूरत और निजी स्कूलों में लूट का कारोबार

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सुशील मानव

 स्कूलों में दाखिले का दौर आ गया है और अभिभावक अपने बच्चों को लेकर इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे हैं। एक सज्जन हैं राजा राम (बदला गया नाम)। वह प्रयागराज जिले के ही एक इलाके में रहते हैं। उनका बेटा छः साल का हो गया है। प्ले स्कूल से निकालकर अब उसे कक्षा एक में एडमिशन दिलवाना है। उनकी माली हालत ऐसी नहीं है कि वह किसी अच्छे निजी स्कूल की फीस और उसके डोनेशन का खर्च वहन कर सकें। जबकि निजी स्कूलों की एक महीने की फीस भी 10 हजार से ऊपर है। इलाके के प्राथमिक स्कूलों की हालत खस्ता है। ऐसे में राजा राम के लिए निजी स्कूल मजबूरी बन गयी है। हालांकि केंद्रीय स्कूल भी एक विकल्प है।

एक निजी स्कूल में जाने पर उनसे कहा गया कि मोबाइल एप डाउनलोड कर लीजिए और ऑनलाइन फॉर्म भर दीजिए। लोगों ने बताया कि लॉटरी सिस्टम है एडमिशन होना बहुत मुश्किल है क्योंकि बहुत सारे बच्चों के आवेदन आते हैं। कहीं से पता लगा कि केंद्रीय विद्यालय में सांसद कोटे से भी 10 एडमिशन होते हैं। दौड़-भागकर राजा राम स्थानीय (फूलपुर)सांसद के यहां बच्चे के दाखिले की दर्ख्वास्त लेकर पहुंच गए। लेकिन वहां भी बताया गया कि सांसद कोटे की 10 बच्चों की एडमिशन की सिफारिशें पहले ही भेजी जा चुकी हैं। ऐसे में उन्हें खाली हाथ वापस लौटना पड़ा।

यह कहानी किसी एक राजाराम और किसी एक इलाके की नहीं बल्कि देहात से लेकर कस्बों और शहर तक घर-घर की है।
इससे पहले 21 मार्च को लोकसभा में कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने केंद्रीय विद्यालय में सांसद कोटे की 10 सीटों को बढ़ाकर 50 करने की गुजारिश की। उन्होंने कहा कि सांसद कोटे से प्रवेश के लिये बहुत ज़्यादा अनुरोध आते हैं। ऐसे में 10 सीटें काफी कम हैं। जिसके जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अगर सदन स्कूलों में सांसद कोटा खत्म करने के लिये एकमत है तो सरकार इस दिशा में काम कर सकती है।

बता दें कि केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय सरकार द्वारा स्थापित ऐसे विद्यालय हैं जहां बुनियादी ढांचा बेहद मजबूत है और जहां सरकार अच्छा पूंजी निवेश करती है। जबकि देश के अन्य सरकारी प्राथमिक,माध्यमिक,उच्चतर विद्यालयों में न तो बुनियादी ढांचा बहुत अच्छा है न ही सरकार बहुत ज़्यादा पूंजी निवेश करती है। जिसके चलते सरकारी स्कूलों के बजाय निम्न मध्यवर्ग,मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। बावजूद इसके अगर सांसद यह कह रहे हैं कि उनके पास बहुत ज़्यादा अनुरोध आ रहा है तो महंगी निजी शिक्षा ढांचे पर सवाल उठता है। इससे पहले शहरों में स्थित राजकीय इंटरमीडियएट कॉलेज (जीआईसी)और राजकीय बालिका इंटरमीडियएट कॉलेज (जीजीआईसी)में एडमिशन के लिये सोर्स सिफारिश लगानी पड़ती थी। एक समय में इन कॉलेजों में बच्चों का दाखिला दिलवाना ही बड़ी बात होती थी।

गांव में बुनियादी शिक्षा व्यवस्था का अभाव

गांवों में बुनियादी शिक्षा व्यवस्था का घोर अभाव है। फूलपुर के ठाकुर बिरादरी के संदीप सिंह गुजरात में किसी कंपनी में काम करते हैं और उनकी संगिनी गांव का अपना पक्का मकान छोड़कर इलाहबाद-झूँसी में किराये का कमरा लेकर रहती हैं सिर्फ़ इसलिये कि अपने बच्चों को शहर के निजी स्कूलों की शिक्षा दिला सकें। यही कहानी नीलेश सिंह की है। नीलेश भारतीय सेना में कार्यरत हैं और उनकी पत्नी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये झूंसी में किराये का कमरा लेकर रहती हैं। उत्तर प्रदेश के हर गांव में इस तरह के कई मामले हैं जहां मां-बाप सिर्फ़ बच्चों की शिक्षा के लिये शहरों में पलायन के लिए विवश हुये हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति कमरा लेकर पढ़ाने की नहीं है उन लोगों ने अपने बच्चों को शहर में रह रहे अपने रिश्तेदारों के पास छोड़ रखा है ताकि उनका बच्चा निजी स्कूल में अच्छी तालीम हासिल कर सके।

आंबेडकर नगर जिले के अमोला बुजुर्ग गांव के बिजेंदर पहली बार लॉकडाउन लगा तब से वो अपने बीवी बच्चों को लेकर गांव में ही हैं। बिजेंदर नोएडा में एक एक्सपोर्ट कारखाने में एंब्राइडरी का काम करते थे। लेकिन 2020 में लॉकडाउन के बाद कंपनी ने उन्हें वापस काम पर नहीं रखा। बिजेंदर अपने बेटे की पढ़ाई बर्बाद होने पर दुखी हैं। वो बताते हैं कि “बेटे का एडमिशन खोड़ा में साईराम स्कूल में कराया था तब जब वो पांच साल का था। अभी आठ साल का है। समझ नहीं आ रहा क्या करूँ। ढाई साल से डिस्टर्बेंस ही तो चल रहा है। जब तक क्लास नहीं चलेगा ऐसे एडमिशन करवाकर क्या करें। फीस भरना”। ऑनलाइन स्कूल के बारे में कहते हैं कि “गांव में जो स्टैंडर्ड स्कूल हैं उन्हीं में ऑनलाइन क्लास चल रहा है। वहां फीस बहुत ज़्यादा है। वो हमारी क्षमता की बात नहीं हैं। लोकल स्कूलों का कारोबार ठप्प पड़ा है। वैसे भी नेटवर्क गांव में आता नहीं है। तो ऑनलाइन क्लास होगा भी तो कैसे। कमाई नहीं है क्या करें कैसे पढ़ायें बच्चों को”।

महंगी फीस मुद्दा क्यों नहीं है

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र साहिबाबाद के राजेंद्र नगर स्थित डीएलएफ पब्लिक स्कूल के पोर्टल पर मौजूद सूचना के मुताबिक डीएलएफ में कक्षा एक में नए एडमिशन के लिये कुल 1,83,120 रुपये फीस लग रही है। जिसमें 1500 रजिस्ट्रेशन फीस, 40,700 एडमिशन चार्ज, और 32,355 रुपये तिमाही ट्यूशन फीस और 10 हजार रुपये सिक्योरिटी फीस और अन्य खर्च 1500 रुपये जमा करवाया जा रहा है। इसमे बस फीस, मील चार्ज और पढ़ाई के अन्य ख़र्च शामिल नहीं हैं। जबकि इलाहाबाद के विष्णु भगवान पब्लिक स्कूल में 1400 रुपये महीने की स्कूल फीस है,जबकि एडमिशन फीस 11 हजार रुपये है। लखनऊ के एमिटी इंटरनेशनल स्कूल में स्कूल फीस 16,368 रुपये त्रैमासिक है। एडमिशन फीस वगैरह का डिटेल नहीं मिल पाया है।

इलाहाबाद शहर में एक कोचिंग संस्थान में क्लर्किल काम करने वाले प्रदीप कुमार 10 हजार रुपये मासिक वेतन पर काम करते हैं। वो अपने दो बच्चों को बीबीएस कॉलेज में पढ़ाते हैं। जिनकी महीने की फीस 4 हजार रुपये के आस-पास है। इस तरह उनकी कमाई का लगभग 40-50 प्रतिशत बच्चों की फीस में चला जाता है। स्कूल बस का किराया बचाने के लिये प्रदीप कुमार खुद 20 किलोमीटर बाइक चलाकर रोज़ाना बच्चों को स्कूल छोड़ते हैं और फिर बच्चों को स्कूल से घर ले आते हैं। इस तरह वो रोज़ाना इलाहाबाद शहर से अपने घर के चार चक्कर काटकर कुल 80 किलोमीटर की दूरी बाइक से तय करते हैं महज इसलिये कि उनके बच्चों को निजी स्कूल में बेहतर शिक्षा मिल सके। प्रदीप कुमार कहते हैं मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे भी मेरी तरह दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी छोटी-छोटी चीजों के लिये तरसें।

क्यों है निजी स्कूलों की महंगी शिक्षा के प्रति इतना मोह

दरअसल देश की मौजूदा औपनिवेशिक व्यवस्था ने देश समाज की मानसिकता को भी औपनिवेशिक बना दिया है। रोटी कमाने की भाषा में शिक्षा मौजूदा प्राथमिक माध्यमिक विद्यालयों में नहीं दी जाती है। इसलिये लोग अपने पेट काट कर भी महंगे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाना चाहते हैं ताकि वो रोटी कमाने की भाषा सीख सके। हर व्यक्ति अपनी समाजार्थिक अवस्थिति में सुधार करना चाहता है। जिसका रास्ता शिक्षा से होकर जाता है। इसीलिये निम्न मध्यमवर्ग का व्यक्ति अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च कर रहा है।

निजी स्कूलों में महंगी शिक्षा के बावजूद लोग अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा क्यों ख़र्च कर रहे हैं जबकि उनके पास सरकारी स्कूलों का विकल्प है। इस सवाल के जवाब में शिक्षाविद् प्रेमपाल शर्मा कहते हैं कि इसके दो कारण हैं। सरकारी स्कूलों में तनख्वाह चाहते हो,पेंशन चाहते हो और काम नहीं करना चाहते हो। निजी स्कूलों में शिक्षक 20 हजार की तनख्वाह में रिजल्ट अच्छा देते हैं। टाइम से पहुंचते हैं। सरकारी शिक्षक अपना रोना धोना शुरु कर देते हैं। उनमें से कुछ आरक्षण और जाति की लड़ाई लड़ते रहेंगे। एक दूसरे पर आरोप लगाते रहेंगे। अगर सरकारी स्कूल ऐसे रहेंगे तो क्या होगा। सरकारी स्कूल उस ढांचे से नहीं चल सकते जो 1950-60 के दशक में नौकरी देने के लिये बने थे।

किसी भी तार्किक और सरोकारी शख्स के लिए निजी स्कूल मॉडल नहीं हो सकता है। लेकिन समस्या का समाधान भी होना जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है। सरकारी स्कूल दुरुस्त हों,सरकारी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी पूरी नैतिकता और ईमनादारी से निभायें। खुद को सरकारी दामाद मानकर न चलें। लोग सरकारी प्राथमिक,माध्यमिक,उच्चतर विद्यालयों में नहीं पढ़ाना चाहते लेकिन सरकारी केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं। नवोदय विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं। ऐसी मानसिकता क्यों है। इस सवाल के जवाब में प्रेमपाल शर्मा कहते हैं-क्योंकि केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय में बेहतर सुविधायें हैं। केंद्रीय विद्यालयों में सांसद कोटा नहीं होना चाहिये ये भेदभावपूर्ण है। सरकार को चाहिए कि केंद्रीय विद्यालय की तर्ज़ पर सरकारी प्राथमिक,माध्यमिक,उच्चतर विद्यालयों को विकसित करे,वही सुविधायें उनमें भी ले आये।
सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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