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नई संसद, पुरानी संसद, वो शाम और ‘माया-जाल’

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संसद भवन के गलियारे में उस दिन अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वह मायावती थीं। वह चहक रही थीं। सांसदों की उस भीड़ में सवाल और कैमरे माया पर ही फोकस थे। इसकी वाजिब वजह थी। कुछ मिनट पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में एक वोट से विश्वासमत हारे थे। माहौल कुछ ऐसा था जैसे वर्ल्ड कप फाइनल जीतने के बाद विजयी खेमे का होता है। मायावती इस रोमांचक फाइनल की मैन ऑफ द मैच रही थीं। हाथी ने उस दिन चाल सीधी नहीं चली थी। माया की गुगली को अटल भांप नहीं पाए थे और 13 महीने पुरानी एनडीए सरकार क्लीड बोल्ड हो चुकी थी।

अटल सरकार गिरने के ठीक बाद उस शाम संसद के मुख्य दरवाजे पर विपक्ष का विजयोत्सव चल रहा था। सभी के चेहरों पर विजयी मुस्कान थी। सुब्रमण्यन स्वामी, अजित जोगी, मुलायम सब झूम रहे थे। लालू की खुशी संभले नहीं संभल रही थी। लालू-मुलायम जिंदाबाद के नारों से 144 खंभों वाला संसद का गलियारा गूंज रहा था। विपक्षी सांसदों का जोश ऐसा था कि लालू उनके बीच लगभग पिस से रहे थे। कोई और दिन होता, तो वह झल्ला जाते। अड़म-बड़म करते। लेकिन उनका चेहरा अभी-अभी मिली जीत से दमक रहा था। मिशन पूरा होने पर खुशी से फूले नहीं समा रहे लालू पत्रकारों को बिहार जाकर रिलैक्स करने की सलाह दे रहे थे।

दूसरी तरफ मीडिया एक वोट की इस रोमांचक हार-जीत की हर तह तक जाने को बेताब था। चारों तरफ से कैमरों से घिरीं मायावती चहकते हुए सारे जवाब दे रही थीं। दरअसल माया ने बीजेपी से ज्यादा अटल को हैरान किया था। और वह इसकी वजह बता रही थीं। मायावती की आंखों की चमक बता रही थी कि उनका इंतकाम पूरा हुआ है। वह इसे खुले मन से जाहिर भी कर रही थीं।

खुशी से लबरेज माया खुद ही पत्रकारों से सवाल दागती हैं- क्या पूछना है बताओ? सवाल आता है- किसे वोट दिया आपने? माया हंसते हुए खुद को श्रेय देती हैं- मौजूदा सरकार के खिलाफ दिया है और हमारी वजह से ही सरकार गिरी है। सवाल वापस आता है- यह निर्णय क्यों लेना पड़ा आपको? और माया के दिल में बीजेपी के खिलाफ छह महीने से दबी बदले की आग का झोंका बाहर आ जाता है। वह कहती हैं- यह उत्तर प्रदेश का जवाब है बीजेपी को। जब हमने उत्तर प्रदेश में छह महीने के बाद बीजेपीवालों को सरकार सौंपी थी, तो उन्होंने कहा था कि हमारा विधानसभा का स्पीकर पावर का दुरुपयोग नहीं करेगा। लेकिन बीजेपी के स्पीकर ने पावर का दुरुपयोग किया। हमारे विधायक तोड़े। उनको मिनिस्टर बनाकर अपनी सरकार बचाई। हमारी पार्टी तोड़ी। तो यह उत्तर प्रदेश का जवाब है। हम अपनी पॉलिसी ऐन वक्त पर डिस्क्लोज करना चाहते थे।

1999 में पुरानी संसद की वो शाम और खुशी से चहकतीं माया
उनसे फिर सवाल पूछा जाता है- अब आगे क्या करेंगी? और इस सवाल के जवाब में माया ने वह बात कही जो उन्हें आज भी सियासत की सबसे अबूझ पहेली बनाता है। वह कहती हैं- अपने कार्ड हम पहले नहीं खोलते हैं। 17 अप्रैल 1999 की संसद की उस शाम को गुजरे 24 साल से ज्यादा वक्त बीच चुका है। देश की सियासत ही नहीं, संसद भी बदल चुकी है। लालू ने जिस बीजेपी को जड़ से उखाड़ फेंकने का अभियान का पूर्ण हो जाने का उद्घोष किया था, वह बीजेपी अब देश की सबसे बड़ी पार्टी है। पिछले 9 सालों से देश की सत्ता पर काबिज है। और जिस माया के बिना यूपी में सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती थी, वह आज हाशिए पर हैं। अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

उस शाम के बाद वक्त ने भी क्या करवट ली है। मोदी के हाथों नई संसद के उद्घाटन पर जब लगभग पूरा विपक्ष खफा होकर बैठा है, माया एक बार फिर बीजेपी के साथ खड़ी हैं। यूपी की सियासत का यह हाथी अब बूढ़ा और कमजोर जरूर हो चला है, लेकिन सियासी शतरंज के चालें कौन बूझ पाया है। 2024 के लिए जब सेनाएं सज रही हैं, ऐसे में एक दिन के अंदर अपने कार्ड बदलने वालीं माया क्या वाकई आम चुनाव से एक साल ही अपने कार्ड खोल चुकी हैं?

फ्लैश बैक: इस कथा के सीजन-1 का रिमाइंडर
यूपी में 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद मुलायम-कांशीराम की दोस्ती टूटी और यूपी की राजनीति में एक नई जोड़ी बनी सूंड में कमल उठाए हाथी की। जून 1995 में बीजेपी ने बीएसपी को समर्थन देकर माया को मुख्यमंत्री बनवाया। माया के फैसलों से असहज बीजेपी को यह दोस्ती जल्द तोड़नी पड़ी। समर्थन वापस लिया गया। माया की कुर्सी छिन गई। यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा। 1996 में यूपी में फिर चुनाव हुए। बहुमत तक कोई दल नहीं पहुंचा। डेढ़ साल तक कोई सरकार नहीं बन पाई। और बीजेपी और बीएसपी ने तल्खियों को किनारे रख फिर मिलकर सरकार बनाने का फैसला किया। मुख्यमंत्री के लिए छह-छह महीने का फॉर्म्युला तय हुआ। माया ने पहले छह महीने कुर्सी संभाली। इन छह महीनों में बीजेपी माया के फैसलों को खून के घूंट पीकर सहती रही। अगले छह महीने कल्याण के थे। कल्याण ने भी माया वाले अंदाज में तड़ातड़ फैसले लिए। माया के कुछ फैसले पलटे भी। नाराज माया का सब्र एक महीने के अंदर ही टूट गया और बीएसपी ने कल्याण की कुर्सी खींच ली। कल्याण ने भी जवाब में बीएसपी के विधायक खींचकर अपनी सरकार बचा ली। हालांकि एक साल के अंदर कल्याण की कुर्सी भी चली गई और यूपी के सियासी चैप्टर में जगदंबिका पाल वाला एक दिन के सीएम का चर्चित किस्सा जुड़ गया।

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