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मध्‍य प्रदेश की खबरें

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मध्य प्रदेश को “भारत का दिल” कहा जाता है क्योंकि यहां बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जो देखने को मिलती हैं। यह लगभग सभी धर्मों की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का घर रहा है। पूरे राज्य में असंख्य स्मारक, जटिल नक्काशीदार मंदिर, स्तूप, किले और महल बिखरे पड़े हैं। इसीलिए मध्‍य प्रदेश भारत का हृदय स्‍थल कहा जाता है। इसकी राजधानी भोपाल है। इसके बाद इंदौर यहां का सबसे बड़ा शहर है।यहां कुछ शहरों की अपनी अलग पहचान है। जैसे इंदौर को आर्थिक राजधानी कहा जाता है तो उज्‍जैन को धार्मिक राजधानी। जबलपुर संस्‍कारधानी है तो ग्‍वालियर को साहित्‍य की राजधानी माना जाता है।

यहां देश के सर्वाधिक टाइगर रिजर्व हैं। मालवा, निमाड, बुंदेलखंड और बघेलखंड में बंटे हुए कई जिले हैं। रतलाम, पन्‍ना, रायसेन, खंडवा, खरगोन, रीवा, विदिशा, गुना, छिंदवाड़ा आदि जिले अपने स्‍वाद, संस्‍कृति, पर्यटन और विरासत के चलते ख्‍यात हैं।

मध्य प्रदेश के मंत्री ने जिन्हें ‘पेट माफिया’ बताया, वो हर साल ले रहे 5 लोगों की जान

मध्य प्रदेश के मंत्री ऐंदल सिंह कंषाना ने रेत माफिया को ‘पेट माफिया’ बताया था। उन्होंने कहा था कि इन लोगों के पास कोई रोजगार नहीं है, इसलिए पेट पालने के लिए यह काम कर रहे है। मंत्री के इस बयान का जमकर विरोध हो रहा है। अभी तक हुई घटनाओं में यह सामने आया है कि रेत माफिया हर साल कई लोगों की कुचलकर जान ले रहे हैं।

रेत माफिया ने अंबाह में वनटीम पर हमला कर जब्त किए गए ट्रैक्टर को छुड़ा लिया। इस घटना पर विधानसभा में पूछे गए सवाल पर सुमावली के विधायक और मप्र सरकार के कृषि मंत्री ऐंदल सिंह कंषाना ने रेत माफिया को पेट माफिया की उपाधि देते हुए कह दिया, कि मुरैना में कोई रोजगार नहीं, पेट पालने के लिए रेत का कारोबार किया जा रहा है।

सरकार के जिम्मेदार मंत्री अवैध रेत के कारोबार और रेत माफिया को किसी भी नजर से देखें, लेकिन रूह कंपा देने वाली हकीकत यह है, कि अवैध रेत के इस कारोबार के आगे रेत माफिया लोगों की जान की कीमत नहीं समझ रहे। अवैध रेत लेकर अंधी रफ्तार में दौड़ रहे रेत माफिया के वाहन हर साल औसतन पांच लोगों की जान ले रहे हैं।

विधानसभा में रो पड़े एमपी के मंत्री

भोपाल। मध्य प्रदेश विधानसभा में उस समय सन्नाटा छा गया, जब पुलिस प्रताड़ना से जुड़े एक प्रश्न का उत्तर देते हुए मोहन सरकार के राज्यमंत्री नरेंद्र शिवाजी पटेल रो दिए। भावुक पटेल पहले तो उत्तर ही नहीं दे पाए, कुछ देर बाद संभले और जवाब दिया।

प्रश्न रीवा जिले के सेमरिया से कांग्रेस विधायक अभय मिश्रा और उनके पुत्र विभूति नयन मिश्रा के ऊपर फर्जी प्रकरण बनाने को लेकर था। प्रश्न पूछते-पूछते भावुक मिश्रा ने यहां तक कह दिया कि मेरा बेटा आत्महत्या कर लेगा। हमारी क्या औकात है। कांग्रेस के सभी सदस्यों ने मिश्रा का समर्थन करते हुए पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए।

100 साल से भी पुरानी सोनकच्छ की मावाबाटी को जीआई टैग दिलाने की तैयारी

 अपने बेहतरीन स्वाद व अन्य मिठाइयों की तुलना में अधिक दिनों तक सुरक्षित रहने वाली देवास जिले के सोनकच्छ की प्रसिद्ध मावाबाटी देश में अपनी अलग पहचान बना सकती है। इस मावाबाटी के लिए जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग हासिल करने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है।

आगामी लगभग एक माह में सोनकच्छ की मावाबाटी से जुड़ी विभिन्न जानकारी सहित इसमें उपयोग आने वाली सामग्री दूध, मावा आदि की टेस्टिंग करवाकर रिपोर्ट के साथ फाइल वरिष्ठ स्तर पर सौंपी जाएगी। इस प्रक्रिया के लिए देवास के उद्यानिकी विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई है।दो दिन पूर्व उज्जैन में आयोजित जीआई टैग संबंधी प्रस्तुतीकरण व परिचर्चा में सोनकच्छ की मावाबाटी के संबंध में जानकारी दी गई। इस दौरान मावाबाटी बनाने वाले एक हलवाई कनछेदीलाल विश्वकर्मा को भी साथ ले जाया गया था।

जीआई टैग मिला तो डेढ़ से दोगुना तक हो सकते हैं दाम

मावाबाटी को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रस्तुतीकरण देते समय प्रस्तावक रहे आभा फाउंडेशन देवास के आशीष राठौर के अनुसार जीआई टैग मिलने से मावाबाटी बनाने वाले परिवारों को फायदा मिलेगा। वर्तमान में 300-400 रुपये किलो मिलने वाली मावाबाटी का भाव 500 से 600 रुपये तक पहुंच सकता है।

मिट्टी के पात्र में दी जाने वाली मावाबाटी 10-12 दिनों तक सुरक्षित रहती है। जीआई टैग मिलने से सोनकच्छ की अलग पहचान देश, विदेश में बनेगी। जहां भी मावाबाटी बेची जाएगी, सोनकच्छ के नाम का जिक्र रहेगा।

किसी केमिकल का उपयोग नहीं

सोनकच्छ में बनने वाली वास्तविक मावाबाटी में किसी प्रकार के केमिकल का उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें मावे की छोटी गोली बनाकर अंदर सूखा मेवा का उपयोग किया जाता है। इसके बाद इस गोली को एक अन्य बड़ी गोली के अंदर डाला जाता है।

पकाने के लिए लकड़ी की भटि्टयों का उपयोग किया जाता जिसमें आंच मध्यम या कम रखी जाती है। सोनकच्छ में मावाबाटी का इतिहास 100 साल से भी अधिक पुराना है।

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