Site icon अग्नि आलोक

28 दिसम्बर को कांग्रेस नागपुर में विशाल रैली से लोकतंत्र के अपहरण के खिलाफ फुकेगी बिगुल

Share

28 दिसम्बर को कांग्रेस स्थापना के 138 वर्ष पूरे होने पर पार्टी नागपुर में एक विशाल रैली आयोजित करने जा रही है। कांग्रेस कार्यसमिति ने इस रैली का नाम ‘हैं तैयार हम’ दिया है जिसमें लगभग 10 लाख लोगों के पंहुचने की उम्मीद है।

नागपुर से कांग्रेस का विशेष ऐतिहासिक रिश्ता है। आज से 103 वर्ष पहले यहां हुए पार्टी के अधिवेशन (26 दिसम्बर से 31 दिसम्बर 1920) से ही सितम्बर 1920 में कोलकता में आयोजित कांग्रेस के विशेष सत्र से प्रस्तावित ‘असहयोग आंदोलन ‘को गांधी जी के आवाहन पर स्वीकार किया गया था। कांग्रेस का यह अधिवेशन आगामी राष्ट्रीय आंदोलन में मील का पत्थर साबित हुआ। पार्टी उसी ऐतिहासिक नागपुर से अपने स्थापना दिवस के अवसर पर  ‘हैं तैयार हम’ के उद्घोष के साथ मोदी सरकार की निरंकुशता के खिलाफ निर्णायक संघर्ष का आगाज़ करने जा रही है।

नागपुर को विगत वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय के रूप में ज्यादा प्रसिद्धि मिली है और संघ का मुख्यालय भाजपा सरकार का सत्ता का केंद्र बनकर उभरा है। भाजपा के राष्ट्रीय राजनीति में उभार के बाद से ही सरकार को यहां से निर्देश मिलते रहे हैं।

2024 के आगामी लोकसभा के आम चुनावों के साथ नरेंद्र मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल समाप्त होने को है। देश लोकसभा चुनाव के लिए तैयार हो गया है और  सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने तरकश से एक दूसरे पर तीर चलाने लगे हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल की ईमानदार समीक्षा हो।

पिछले दिनों ही शीतकालीन सत्र में संसद की सुरक्षा को धत्ता बता कर कुछ नौजवानों को हमने संसद के अंदर स्मोक बम से पीले धुएं छोड़ते और संसद में अफरातफरी मचाते हुए देखा। कुछ नौजवान संसद परिसर में रोजगार, शिक्षा और मंहगाई के मुद्दों वाले नारे लगाते हुए सुरक्षा कर्मियों द्वारा गिरफ्तार किये गए। इस घटना से संसदीय सुरक्षा का महत्वपूर्ण प्रश्न तो खड़ा हुआ ही लेकिन उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह उठा कि आखिर इन नौजवानों को आजाद भारत में अपनी ही सरकार के खिलाफ ऐसा कदम क्यों उठाना पड़ा?

ऐसा करने वाले न तो उग्रवादी थे और न ही उन्होंने कोई नाजायज सवाल उठाए। तो आखिर उन्हें 94 साल पहले की उस घटना को क्यों दोहराना पड़ा जब सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ ब्रिटिश एसेम्बली में अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए कुछ ऐसा ही कदम उठाया था, पर्चे फेंके थे और नारे लगाए थे। ये नौजवान भी कहीं न कहीं उस घटना से और हमारे क्रांतिकारियों से प्रेरित थे। इस घटनाक्रम में राहुल गांधी ने जरूरी सवाल उठाया है कि संसद की सुरक्षा के सवाल के साथ यह देखना जरूरी है कि आखिर उन नौजवानों को ऐसे कदम क्यों उठाने पड़े और इसका जिम्मेदार कौन है?

सरकार जिन्हें अर्बन नक्सल, आतंकवादी और देशद्रोही और न जाने क्या-क्या करार दे रही है, जबकि उन नौजवानों को संसद का पास जारी करने वाले कोई और नहीं बल्कि भाजपा सांसद प्रताप सिन्हा ही हैं। विपक्ष द्वारा संसदीय सुरक्षा में हुई इस चूक के जिम्मेदार दोषियों पर कार्यवाही करने या संसदीय सुरक्षा से इतना बड़ा खिलवाड़ होने पर गृहमंत्री से सदन में बयान देने की वाजिब मांग का जवाब सरकार ने 143 सांसदों को सदन से निलंबन करके दिया है।

मोदी सरकार ने इस घटनाक्रम से उठने वाले मुख्य सवालों से ध्यान भटकाने के लिए निलंबित सांसदों के प्रदर्शन में  राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ का मजाक उड़ाने का आरोप लगा कर विपक्ष पर उल्टा हमला बोला है। जबकि प्रधानमंत्री स्वयं पद और सदन की गरिमा को ताक पर रख कर भरी संसद में मिमिक्री करने का बेहतरीन नमूना पेश कर चुके हैं। हमेशा की तरह सरकार पोषित मुख्य मीडिया और सरकारी तंत्र इस काम में लग चुका है और इसे जाट समाज का अपमान बता रहा है।

यहां यह ध्यान देने का विषय है कि सरकार और मिडिया के लिए संसद की सुरक्षा में हुई गंभीर चूक या आजाद भारत में पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर सांसदों के निलंबन की यह अलोकतांत्रिक घटना कोई मायने नहीं रखती। और तो और, मोदी सरकार ने इस बीच विपक्षविहीन संसद में एकपक्षीय और मनमाने तरीके से कई महत्वपूर्ण और चिंताजनक अध्यादेश भी पास कर दिए। संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में ये दिन किसी स्याह धब्बे की तरह सदैव अंकित रहेंगें।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पहले से मोदी सरकार पर बार-बार यह आरोप लगाते आ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार संसद के अंदर विपक्ष को अपनी बात नहीं रखने देती। किसान आंदोलन, राफेल घोटाले, अडानी प्रकरण, मणिपुर हिंसा, भाजपा सांसद बृजभूषण शरण द्वारा महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के खिलाफ चले उनके लम्बे प्रतिरोध आंदोलन सहित अन्य सवालों पर सदन में न बोलने देना, मुख्य सवालों को संसद के पटल से हटा देना और उनका माइक ऑफ कर देने की घटनाएं हम जब-तब देखते आये हैं।

अंततः राहुल गांधी ने इसके खिलाफ जनता के बीच जाने और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के जरिये कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा के माध्यम से इन सवालों को जन-जन तक पंहुचाने का निर्णय लिया और उसमें व्यापक सफलता पाई। उन्होंने जनता के मूलभूत सवालों की अनदेखी करने, संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के खुलेआम अपहरण, अडानी के हाथों देश के संसाधनों को बेचने और नियमों में फ़ेरबदल कर लाभ पंहुचाने, मंहगाई, बेरोजगारी जैसे ज्वलन्त सवालों पर मौन साधने, देश को साम्प्रदायिक विभाजन के गर्त में धकेलने और संसद में सरकार को अपनी जवाबदेही से भागने का मोदी सरकार पर आरोप लगाया।

विपक्षी सांसदों में संजय सिंह, डोरेक ओ ब्रायन, राघव चढ्ढा, महुआ मोइत्रा जैसे अन्य मुखर नाम भी इस कड़ी में आते हैं जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने पर बार-बार निलंबन-निष्कासन का दंश झेला। अपने निष्कासन के खिलाफ विपक्षी सांसद और नेताओं ने गांधी प्रतिमा पर धरना देने, पुरानी संसद से मार्च निकालने और जंतर-मंतर पर प्रदर्शन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर विरोध-प्रदर्शन में उतरने का फ़ैसला किया है। वे लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे भाजपा- संघ ने अपने कुत्सित प्रयासों से अपहृत कर लिया है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी अक्सर अपने बयानों में जिन दो विचारधाराओं की लड़ाई का जिक्र करते हैं वह कांग्रेस और संघ के बीच की विचारधारात्मक लड़ाई है। स्वतंत्रतापूर्व से ही संघ के विचारकों ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर विभाजन की नींव डाली थी। उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर भारत के साम्प्रदायिक विभाजन के लिये लागातार प्रयास किए। अंग्रेजों के लिए उनकी यह मांग अपने उद्देश्यों के अनुकूल थी,  जिसका बीज उन्होंने 1857 के प्रथम स्वंत्रता संग्राम की चट्टानी हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए ‘डिवाइड एंड रूल’ पॉलिसी के साथ डाला था।

ब्रिटिश महारानी ने अंतिम ब्रिटिश वायसराय माउंटबेटन को भारत का विभाजन करने के फ़रमान के साथ इंडिया भेजा था। माउंटबेटन के इस अभियान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग दोनों ने महत्वपूर्ण सहयोगी भूमिका निभाई। दोनों ही अपने-अपने साम्प्रदायिक हितों के अनुरूप स्वयं सत्ता केंद्र बनना चाहते थे। संघ ने इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से खुद को दूर रखा और अंग्रेजों का सहयोग किया। संघ की राह में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस सदैव एक रोड़ा बनी रही जो एक धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक राष्ट्र निर्माण के लिए संकल्पित थी। कांग्रेस धार्मिक आधार पर देश के इस विभाजन को कतई स्वीकार करने को तैयार न थी लेकिन देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक कर जिन्ना और सावरकर जैसे सहयोगियों के सहारे अंग्रेजों ने अपने इस उद्देश्य को सफलता पूर्वक अंजाम दिया।

विभाजन की इस त्रासदी और सम्प्रदायिकता की आग में जल रहे देश में घटने वाली हिंसा की दिल दहलाने वाली घटनाओं से दुखी महात्मा गांधी ने जहां एक तरफ इसे रोकने के लिए आमरण अनशन शुरू किया, वहीं कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर होने वाले इस विभाजन को खारिज कर नागरीकों से अपनी स्वेक्षा से जहां भी वे रहना चाहें, उसे स्वेच्छा से चुनने की अपील की । लिहाजा अपनी मातृभूमि से प्यार करने वाले लाखों मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना गंवारा न किया, ठीक वैसे ही कुछ हिंदुओं ने भी पाकिस्तान में ही रहना स्वीकार किया। संघ को यह कभी गंवारा न हुआ। इस खीझ और प्रतिक्रिया में सावरकर के अनन्य शिष्य नाथूराम गोडसे ने आमरण अनशन पर बैठे महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी।

आजाद भारत का नया संविधान बना जिसे हमारे राष्ट्रनायकों ने भारतीय राष्ट्र की तमाम क्षेत्रीय, भाषाई, संस्कृतिक विषमताओं को सम्मिलित करते हुए बहुलतावादी, धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक बनाया। एक ऐसा संविधान जहां दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंयकों सहित समाज के सभी वर्ग बिना किसी जाति, लिंग, धर्म, क्षेत्र और भाषाई भेदभाव के समान अवसर और हक़-अधिकार का लाभ उठा सकें।

लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वतंत्रोपरांत भी साम्प्रदायिक विभाजन का अपना अभियान सतत जारी रखा। अंततः कालांतर में राममंदिर आंदोलन के बाद उसे अपने इस अभियान में उल्लिखित सफलता हाथ लगी जिसने उसके लिए सत्ता की राह प्रशस्त की। इसी कड़ी में आज मोदी सरकार के रूप में हम एक निरंकुश सत्ता देख रहे हैं। जो अपने साम्प्रदायिक  उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सत्ता का दुरुपयोग कर वह संविधान और लोकतंत्र का खुलेआम अपहरण करने पर आमादा है।

संघ-भाजपा इस सत्ता संरक्षण में खुलेआम धार्मिक उन्माद फैलाने, भय और हिंसा से लोगों को डराने, लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर एकाधिकार स्थापित करने, संवैधानिक संस्थाओं पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने तथा उसे अपने कुत्सित उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने, चंद पूंजीपतियों को देश के संसाधनों को उन्हें सौंप कर उनसे अथाह धन संग्रह करने, देश के मीडिया को अपना प्रवक्ता बनाने, जनता के आंदोलनों का दमन करने और उन्हें लांछित करने, विपक्ष को सरकारी जांच एजेंसियों ईडी-सीबीआई से डराने-धमकाने, रोजी-रोजगार, शिक्षा-मंहगाई जैसे जनता के मूलभूत सवालों से ध्यान भटकाने, प्रतिरोध में उठने वाली आवाजों का दमन करने, शिक्षा का साम्प्रदायिकरण कर इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने, कुलमिलाकर समाज को प्रतिक्रियावादी बनाने आदि तरीकों से अपना पूर्ण एकाधिकार स्थापित करना चाहते हैं।

ठीक इन्ही कारणों से कांग्रेस ने आरएसएस मुख्यालय के रूप में पहचान पा चुके नागपुर से आगामी लोकसभा चुनावों का बिगुल फूंकने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। ऐतिहासिक इसलिए कि आने वाले दिनों में यह चुनाव इस देश का वास्तविक भविष्य तय करने वाला होगा जिसपर दुनिया भर की लोकतांत्रिक और अमन पसन्द शक्तियों की निगाह होगी।

यह चुनाव ये तय करेगा कि क्या भारत की जनता भाजपा-संघ को देश को हिंदुत्व के नाम पर विभाजन के गर्त में धकेलने देगी? क्या वह अकूत पूंजी, संसाधनों और मीडिया के सहारे आम आदमी के जीवन के मूलभूत सवालों से मुंह चुराती रही मोदी सरकार को यूं ही खुलेआम लोकतंत्र का अपहरण करने देगी? क्या वह रोजी- रोटी, मंहगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर इस सरकार से जवाबदेही नहीं लेगी? क्या वह सामाजिक समरसता के बजाय धार्मिक उन्माद की भाजपाई चाल में पुनः उलझ कर रह जायेगी? या वह इस देश की लोकतांत्रिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने, संसदीय लोकतंत्र, संवैधानिक मूल्यों और उसकी संस्थाओं को बचाने के लिए कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ खड़ी होगी? और क्या वह संघ-भाजपा द्वारा भारतीय लोकतंत्र के समक्ष पेश किये गए इस एकाधिकारवादी खतरे के खिलाफ लोकतंत्र के पक्ष में अपना निर्णायक जनादेश देगी?

इन सभी सवालों का जवाब विपक्ष की ताकतों के एकताबद्ध और ईमानदार संघर्ष में उतरने पर ही मिलेगा। यह देश उनसे उम्मीद करता है कि राष्ट्रहित में वे अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों की तिलांजलि देगें और बिना किसी भटकाव के बेहतर सामंजस्य से एकजुटता का प्रदर्शन करेंगे। इस संघर्ष में सभी देशभक्त शक्तियां अपना पूरा हाथ बंटाएंगी और दुश्मन को शिकस्त देंगी।

कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में इस लड़ाई का खुला ऐलान कर दिया है। उन्होंने सभी जनपक्षधर शक्तियों से ‘डरो नहीं’ के नारे के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का आवाहन किया है। कांग्रेस इस फासिस्ट सत्ता केंद्र का प्रतीक बन चुके आरएसएस मुख्यालय नागपुर से ‘हैं तैयार हम’ के नारे के साथ 2024 के महासमर का बिगुल फूंकने को तैयार हो चुकी है।

(क्रांति शुक्ल वर्ल्ड विजन फाउंडेशन के निदेशक और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं।)

Exit mobile version