अग्नि आलोक

अमन और तरक़्क़ी की पुकार लगा रहे हैं कश्मीर के लोग 

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वर्षा भम्माणी मिर्जा 

मैं उन दो करोड़ लोगों में शामिल हूं जिन्होंने बीते सीजन में कश्मीर की सैर की। सीजन का आखिरी  दौर था और होटल, रेस्तरां, ट्रेवल एजेंसियां,ऑटो और शिकारा चलाने वाले बेहद ख़ुश थे कि इस बार खूब टूरिस्ट आए और कई के तो घर,दुकान,गाड़ियों के लोन भी अदा हो गए। यही तसल्ली सड़क और झील किनारे रोज़गार करने वालों और पहलगाम के घोड़े वालों में भी थी। खूब तो ऊनी कपड़े पसंद किये गए, खूब मखमली केसर और अखरोट सैलानी अपने घर ले गए। उनका बस चलता तो घाटी का बेमिसाल मौसम भी साथ ले आते। वह आया भी,तस्वीरों में कैद होकर।  फ़ोन की स्क्रीन पर जैसे देवदार और चिनार की खूबसूरती समा गई थी। और भी जो  देखने में आया वह था कश्मीर में जारी विकास का काम और साथ में चप्पे -चप्पे पर मौजूद फ़ौज। फौजी जवान दिन-रात डल झील के चारों और अपनी चौकन्नी निगाह और स्टैनगन के साथ मुस्तैद थे।अब यहां चुनाव हैं। सियासी दलों ने ख़म ठोक दिए हैं जो चुनाव में नहीं शामिल होने की बाद कर रहे थे, वे भी अब लौट आए हैं। एक दाल को खतरा यह भी है कि यदि यहां चुनाव नहीं जीते तो उस सोच का क्या होगा जो बीते समय में देश के सामने रखी गई।

चुनाव आयोग ने हरियाणा के साथ जम्मू कश्मीर में भी चुनाव की तारीख़  घोषित कर दी हैं । यहां 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्टूबर को तीन चरणों में चुनाव होंगे। नतीजे 4 अक्टूबर को आएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने 30 सितंबर तक जम्मू और कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली के लिए समय-सीमा तय की थी। राज्य का दर्जा वापस लेने, धारा 370 और 35 ए को हटाए जाने के बाद क्षेत्र में यह पहला चुनाव है। वाक़ई यहां की जनता को इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार था। बातचीत में वे यही उम्मीद जताते कि राज्य का दर्जा फिर बहाल हो और हमारी अपनी सरकार हो। हाल ही में हुए लोकसभा  चुनावों में भी जम्मू और कश्मीर की जनता ने बढ़ कर मतदान किया। देश के दूसरे हिस्सों में जहां मतदान घटा वहीं, यहां 35 साल बाद सर्वाधिक वोटिंग  हुई । लगभग 58 फ़ीसदी  मतदान हुआ था जो 2019 के मुकाबले 14 फ़ीसदी ज़्यादा था । एक लोकसभा सीट पर तो भारी उलटफेर हुआ। नेशनल कांफ्रेंस का प्रमुख चेहरा उमर अब्दुल्ला ही चुनाव हार गए। उन्हें बारामुला से निर्दलीय इंजीनियर रशीद ने हराया था। रशीद ने यह चुनाव तिहाड़ जेल से लड़ा था। यही हाल पीडीपी (पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ) की महबूबा मुफ़्ती का हुआ। वे अनंतनाग -राजौरी सीट से हार गईं। महबूबा के पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद पहले  कांग्रेस में थे और केंद्रीय मंत्री रहे। बाद में उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर पीडीपी का गठन किया। उनकी दूसरी बेटी रुबिया सईद  का 1989 में आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था, जिनके बदले में पांच आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा। इस बार हैरानी की बात यह थी कि भारतीय जनता पार्टी ने घाटी में लोकसभा चुनावों में हिस्सा नहीं लिया था। कुल पांच सीटों में से दो भाजपा (उधमपुर और जम्मू ),दो नेशनल कांफ्रेंस और एक निर्दलीय ने जीती। अब यह क्षेत्र 90 सीटों पर अपने नुमाइंदे चुनेगा। 

 राज्य में अंतिम सरकार भाजपा और पीडीपी गठबंधन की थी। इसके बाद जम्मू कश्मीर और लद्दाख को अलग कर केंद्र शासित (यूनियन टेरिटरी) बना दिया गया। इस बार दोनों दलों के बीच कोई गठबंधन नहीं है। नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ज़रूर गठजोड़ में है और पांच सीटों पर दोनों के बीच दोस्ताना चुनाव होंगे। उम्मीदवार खड़े होंगे लेकिन एक-दूसरे के ख़िलाफ़ प्रचार नहीं होगा। इस क्षेत्र से कांग्रेस की बड़ी आवाज़ रहे गुलाम नबी  आज़ाद ने भी पार्टी छोड़ नई पार्टी बना ली थी जो लोकसभा चुनाव में कुछ भी हासिल नहीं कर पाई। अब आज़ाद इस बार ना चुनाव लड़ेंगे ना प्रचार करेंगे।  नेशनल कांफ्रेंस 51 और कांग्रेस 32 पर चुनाव लड़ेगी। इसके अलावा दोनों पार्टियों के गठबंधन में शामिल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम ) और जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी को एक-एक सीट दी गई है। गठबंधन के बाद से सवाल तैर रहे हैं कि क्या ये गठबंधन जम्मू-कश्मीर में कामयाब हो पाएगा? इस सवाल के जवाब में राजस्थान के पूर्व उप-मुख्यमंत्री का जवाब दिलचस्प है। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने पूर्ववर्ती राज्य की बेहतरी के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गठबंधन किया है। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठबंधन कोई नया नहीं है। लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन किया गया था। जयपुर के दांतली में पत्रकारों से बातचीत करते हुए सचिन पायलट ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू-कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ गठबंधन किया था। बाद में उसके नेताओं को ही जेल में डाल दिया। पायलट का बयान दिलचस्प इसलिए भी है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के डॉ फ़ारूख़ अब्दुल्लाह की बेटी से अब उनका तलाक़ हो गया है। बहरहाल उनके बेटे उमर अब्दुल्लाह पहले नखरे कर रहे थे कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। उनका कहना था कि ऐसी चुनी हुई सरकार का क्या फायदा जिसे हर फैसले से पहले एलजी के पास जाकर  गुहार लगानी पड़े लेकिन फिर उन्होंने फैसला बदलते हुए कहा कि इससे पार्टी के मनोबल और मतदाता के उत्साह में कमी आएगी। अब वे अपने परिवार की पुरानी सीट गांदरबल से चुनाव लड़ रहे हैं। 

सवाल यह भी है कि इस चुनाव में किसकी प्रतिष्ठा दाव पर है ? यह चुनाव भाजपा के लिए बहुत मायने इसलिए भी रखता है क्योंकि धारा 370  हटने के बाद कश्मीर में पहला चुनाव है। अक्टूबर 2019 तक यह राज्य था। फिर नए सिरे से विधानसभा सीटों का परिसीमन भी किया गया। परिसीमन आयोग ने सात सीटें बढ़ाने की सिफ़ारिश की थी। इसके बाद जम्मू में 37 से 43 और कश्मीर में 46 से 47 सीटें हो गईं।प्रवासी नागरिकों के नाम दर्ज़ हो सकें इसके लिए खास केंद्र बनाए गए हैं, वैबसाइट खोली गईं हैं। पहली बार नौ विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए भी आरक्षित की गई हैं। अगर भाजपा यह चुनाव नहीं जीत पाती है तो देश में एक संदेश और जाएगा कि स्थानीय जनता ने उस बड़े अजेंडे को नकार दिया है जिसका वादा पार्टी ने पहले किया और फिर पूरा किया। लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिला वह बड़ा झटका था जब वह राम मंदिर निर्माण प्रारंभ करने के बाजवजूद फैज़ाबाद-अयोध्या सीट पर चुनाव हार गई। पार्टी कभी नहीं चाहेगी कि कुछ ऐसा ही संदेश यहां से भी आए। पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह ने कांग्रेस से दस सवाल कश्मीर को लेकर किए थे। एक सवाल यह भी था कि क्या कांग्रेस, नेशनल कान्फ्रेंस के जम्मू-कश्मीर में अलग झंडे के वादे, आर्टिकल 370 को वापस लाकर राज्य को फिर से अशांति और आतंकवाद के युग में धकेलने के निर्णय का समर्थन करती है?

 वैसे जवाब अब जनता को देना है। वही तय करेगी कि अपने राज्य को मिला विशेष दर्जा उसे बहाल करना है या वह फिलहाल की स्थिति से ख़ुश है। आर्टिकल 370 हटाने के बाद राज्य में विकास कार्य जारी हैं। स्थानीय जनता इन विकास कार्यों से खुश भी है लेकिन अधिकांश बातचीत में यही कहते हैं कि यहां काम हो रहा है लेकिन हम कश्मीरियों के जज़्बात को समझना भी ज़रूरी है। कश्मीरी मोहब्बत की ज़ुबां बोलता और समझता है। हम भी अपने बच्चों की अच्छी तालीम चाहते हैं ,डर में जीना नहीं चाहते हैं। सच है कश्मीरी विकास की यात्रा में भागीदारी चाहते हैं लेकिन उन्हें शक है क्योंकि अब तक राज्य सरकारों ने भी उनके साथ इंसाफ नहीं किया है। वह लंबे समय से आतंक के साए में रहा है। वहां के बच्चों ने हमेशा  खूबसूरत चिनार के बीच फ़ौज को भी देखा है। अब राज्य इन्हीं चिनारों की निगेहबानी में चुनाव में शामिल हो रहा है। सोलहवीं सदी में हुईं हब्बा खातून (जूनी ) इस ज़मीं की बड़ी शायरा हैं। कश्मीर जाकर यह भी लगा कि उनकी इस कश्मीरी नज़्म की तरह अब यहां के लोग भी अमन और तरक़्क़ी की पुकार लगा रहे हैं –

दूर चरागाहों पर बहार उतर आई है 

तुमने क्या मेरी पुकार नहीं सुनी? 

पहाड़ी झीलों में फूल खिलखिला रहे 

पठारी मैदान हमें ऊँची आवाज़ में बुला रहे 

दूर जंगलों में 

बकायन में फूल आ गए हैं— 

तुमने क्या मेरी पुकार नहीं सुनी?

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