प्रगतिशील, जनवादी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों का साझा बयान
देश के अग्रणी प्रगतिशील, जनवादी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों ने अपने साझा बयान में तेलंगाना सरकार द्वारा सोलह संगठनों पर लगायी गयी पाबंदी की निंदा की है और सरकार से यह मांग की है कि वह इस पाबंदी को तत्काल निरस्त करे।
संगठनों पर पाबंदी को उचित ठहराने के सरकारी आदेश में यह भी जोड़ा गया है कि उपरोक्त संगठन न केवल नए कृषि कानूनों की वापसी के लिए जारी आंदोलनों में, धरना प्रदर्शनों में शामिल रहते आए हैं बल्कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स को लेकर लंबे समय से जारी रही मुहिम में भी सक्रिय रहे हैं। इतना ही नहीं, सरकारी आदेश यह भी कहता है कि यह शहरी इलाकों में सक्रिय रहते हैं और ‘‘केन्द्र और राज्य सरकारों के खिलाफ मुददा उठाते हुए’’ लोगों को भी इसमें जोड़ते हैं।
तेलंगाना सरकार का यह कथन एक तरह से हर किस्म के जनतांत्रिक प्रतिरोध के, असहमति की हर आवाज़ के अपराधीकरण का रास्ता खोलता है, जिसे अगर चुनौती नहीं दी गयी तो मुल्क के बाकी हिस्से में भी इस तर्क का इस्तेमाल बढ़ेगा।
सरकार का यह भी कहना है कि यह सभी संगठन भीमा कोरेगांव मामले में जेलों में बंद लेखकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों की रिहाई के लिए भी सक्रिय रहते हैं।
क्या सरकार इसी बहाने यह कहना चाहती है कि अगर किसी को गलत ढंग से फंसा कर जेल में ठूंसा जाए, उस स्थिति में भी हमें कुछ नहीं करना चाहिए। दरअसल इस विशिष्ट मामले में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के अग्रणी तकनीकीविदों द्वारा की गयी जांच में यह विचलित करनेवाला तथ्य भी सामने आया है कि किस तरह इन बंदियों में से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन के कम्प्युटर में ‘सबूत’ प्लांट किए गए ताकि उन सभी को फर्जी मुकदमे में फंसाया जा सके। अपने साझे बयान में इन अग्रणी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों ने कहा है कि जनता के प्रति किए गए अपने वायदों को पूरा करने में असफल तेलंगाना सरकार उसके खिलाफ बढ़ते असंतोष से ध्यान बंटाने के लिए ऐसे दमनकारी कदम उठा रही है। इन सोलह संगठनों पर पाबंदी को निरस्त करने की मांग दोहराते हुए इस साझे बयान में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि भीमा कोरेगांव मामले में लगभग तीन साल से जेलों में इन सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ दायर इन मुकदमो को समाप्त किया जाए तथा उन सभी को तत्काल जेल से जमानत दी जाए।
तेलंगाना सरकार द्वारा कुछ समय पहले क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय सोलह जनतांत्रिक संगठनों को ‘‘गैरकानूनी’’ कहते हुए पाबंदी लगायी है। सरकार का कहना है कि यह संगठन – तेलंगाना प्रजा फ्रंट, तेलंगाना असंगठित कार्मिक सामाख्या, तेलंगाना विद्यार्थी वेदिका, डेमोक्रेटिक स्टुडेंटस आर्गनायजेशन, तेलंगाना विद्यार्थी संगम, आदिवासी स्टूडेंट्स यूनियन, कमेटी फार द रीलिज आफ पोलिटिकल प्रिजनर्स, तेलंगाना रैथंगा समिति, तुडुम डेब्बा, प्रजा कला मंडली, तेलंगाना डेमोक्रेटिक फ्रंट, फोरम अगेन्स्ट हिन्दू फैसिजम ऑफेन्सिव, सिविल लिबर्टीज कमेटी, अमरूला बंधु मित्राला संगम, चैतन्य महिला संगम और रेवोल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन – जो ‘विरसम’ नाम से अधिक जाना जाता है – प्रतिबंधित माओवादी संगठन से संबंद्ध हैं तथा उन्हीं के मोर्चा संगठन के तौर पर काम करते हैं तथा ‘सरकार के खिलाफ युद्ध’ छेड़े हुए हैं।
यह स्पष्ट है कि इन संगठनों पर पाबंदी लगाते हुए तेलंगाना सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फैसले को मददेनज़र रखना भी जरूरी नहीं समझा है जिसके तहत जस्टिस काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मि़श्रा की द्विसदस्यीय पीठ ने बताया था कि महज किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता जब तक वह खुद हिंसा में खुद संलिप्त नहीं होता या हिंसा भड़काता नहीं है। (2011)
संगठनों पर पाबंदी को उचित ठहराने के सरकारी आदेश में यह भी जोड़ा गया है कि उपरोक्त संगठन न केवल नए कृषि कानूनों की वापसी के लिए जारी आंदोलनों में, धरना प्रदर्शनों में शामिल रहते आए हैं बल्कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स को लेकर लंबे समय से जारी रही मुहिम में भी सक्रिय रहे हैं। इतना ही नहीं, सरकारी आदेश यह भी कहता है कि यह शहरी इलाकों में सक्रिय रहते हैं और ‘‘केन्द्र और राज्य सरकारों के खिलाफ मुददा उठाते हुए’’ लोगों को भी इसमें जोड़ते हैं।
तेलंगाना सरकार का यह कथन एक तरह से हर किस्म के जनतांत्रिक प्रतिरोध के, असहमति की हर आवाज़ के अपराधीकरण का रास्ता खोलता है, जिसे अगर चुनौती नहीं दी गयी तो मुल्क के बाकी हिस्से में भी इस तर्क का इस्तेमाल बढ़ेगा।
सरकार का यह भी कहना है कि यह सभी संगठन भीमा कोरेगांव मामले में जेलों में बंद लेखकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों की रिहाई के लिए भी सक्रिय रहते हैं।
क्या सरकार इसी बहाने यह कहना चाहती है कि अगर किसी को गलत ढंग से फंसा कर जेल में ठूंसा जाए, उस स्थिति में भी हमें कुछ नहीं करना चाहिए। दरअसल इस विशिष्ट मामले में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के अग्रणी तकनीकीविदों द्वारा की गयी जांच में यह विचलित करनेवाला तथ्य भी सामने आया है कि किस तरह इन बंदियों में से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन के कम्प्युटर में ‘सबूत’ प्लांट किए गए ताकि उन सभी को फर्जी मुकदमे में फंसाया जा सके।
बयान में हस्ताक्षर करने वालों में शामिल हैं :
प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, दलित लेखक संघ, जन संस्कृति मंच,केंद्रीय पंजाबी लेखक सभा,न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव,प्रजा नाट्य मंडली(तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश),अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच एवं इप्टा