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मध्यप्रदेश हाईकोर्ट से भास्कर और पत्रिका को झटका

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श्रम आयुक्त मजीठिया वेतन एवं अन्य मामले लेबर कोर्ट नहीं भेज सकता

मप्र हाईकोर्ट में दैनिक भास्कर व राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को बड़ा झटका, लेबर कोर्ट द्वारा बकाया वेतन भुगतान के आदेश के विरुद्ध दायर याचिकाएं खारिज । अभी बड़े समाचार पत्रों के खिलाफ अन्य तरीके से भी पत्रकारों के हित में पहल शुरू कर दी गई है।

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को बड़ा झटका लगा है। मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार बकाया वेतन-भत्तों के भुगतान के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे कर्मचारियों को होईकोर्ट के फैसले से बड़ी राहत मिली है। समाचार पत्र समूहों द्वारा कर्मचारियों के पक्ष में लेबर कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के विरुद्ध को याचिका दायर की थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है। इतना ही नहीं कोर्ट ने प्रबंधन के कई तर्कों को भी अमान्य कर दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद से देशभर के विभिन्न न्यायालयों में मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार वेतन-भत्तों के भुगतान के लिए मीडिया संस्थानों के विरुद्ध उनके कर्मचारियों के प्रकरण विचाराधीन हैं। भुगतान से बचने के लिए मीडिया संस्थानों द्वारा तरह-तरह की जुगत भिड़ाई जा रही हैं। ऐसे ही मामलों में दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को मप्र उच्च न्यायालय में जोर का झटका लगा है। दरअसल, होशंगाबाद की लेबर कोर्ट द्वारा कई कर्मचारियों को मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार बकाया राशि के भुगतान के आदेश जारी गए हैं। इसके भुगतान से बचने के लिए प्रबंधन द्वारा लेबर कोर्ट के आदेश के विरुद्ध अपील की गई थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में समाचार पत्र प्रबंधन द्वारा मजीठिया वेजबोर्ड के हिसाब से बकाया राशि का भुगतान रोकने के लिए अपनाए जा रहे हथकंडों को भी गलत ठहराया है। कोर्ट के अनुसार कम वेतन पर काम कराना बेगार है।

इन बिंदुओं के आधार पर बकाया भुगतान पर रोक लगाने की मांग की थी

मजीठिया वेजबोर्ड से जुड़े लेबर कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध दायर याचिका की सुनवाई हाईकोर्ट के जस्टिस गुरपाल सिंह अहलूवालिया ने दी। उन्होंने समाचार पत्र प्रबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों का सिलसिलेवार निराकरण कर याचिकाओं को खारिज करते हुए होशंगाबाद लेबर कोर्ट के के आदेश को यथावत रखा है। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका प्रबंधन द्वारा अपनी याचिकाओं में कर्मचारियों के क्लेम रेफरल, 20जे के डिक्लेरेशन, इसे बाद के प्रश्न में शामिल नहीं किए जाने, कर्मचारियों को प्रबंधकीय और सुपरवाइजरी प्रकृति का बताए जाने संबंधी मुद्दों को उठाते हुए लेबर कोर्ट के आदेश व उसके अधीन जारी बकाया वेतन वसूली की प्रक्रिया पर रोक लगाने की मांग की गई थी।

20जे के डिक्लेरशन पर प्रबंधन का तर्क

समाचार प्रबंधनों की ओर से अपनी याचिका में तर्क दिया गया कि 20जे के डिक्लेरेशन को वाद के प्रश्न में शामिल नहीं किया गया था फिर भी श्रम न्यायालय ने इस पर अपनी राय कैसे दी? प्रबंधन का कहना था कि कर्मचारी ने पहले तो 20जे पर अपने हस्ताक्षर होने से इंकार किया लेकिन जब प्रबंधन द्वारा डिक्लेरेशन हस्ताक्षर विशेषज्ञ के पास भेजने की मांग की गई तो उसने स्वीकार किया कि हस्ताक्षर उसी के हैं जो धोखे से लिए गए हैं परंतु कर्मचारी ने इसके समर्थन में कोर्ट में कोई साक्ष्य नहीं दिया। प्रबंधन का कहना था कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 101, 102 के अनुसार हस्ताक्षर धोखे से कराए जाने की बात साबित करने की जिम्मेदारी कर्मचारी की थी।

‘हस्ताक्षर धोखे से नहीं लिए, यह साबित करना प्रबंधन की जिम्मेदारी’

20जे के मुद्दे को लेकर जस्टिस अहलूवालिया ने स्पष्ट किया कि यह सही है कि कर्मचारी ने 20जे के डिक्लेरेशन के बारे में अपनी प्लीडिंग में नहीं बताया, न ही श्रम न्यायालय ने इस वाद के प्रश्न में इसे शामिल किया। परंतु याचिकाकर्ता (प्रबंधन) ने श्रम न्यायालय में 20जे को अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किया। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि श्रम न्यायालय ने इसे वाद के प्रश्न में शामिल किया या नहीं। जस्टिस अहलूवालिया ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 111 के हवाले से कहा कि दोनों पक्षों में से जो Active Confidance की स्थिति में हो वह ये साबित कर सकता है कि हस्ताक्षर सद्भावना से किए गए हैं। इस मामले में नियोजक (प्रबंधन) एक्टिव कांफीडेंस की स्थिति में था और वही यह साबित कर सकता था कि हस्ताक्षर धोखे से नहीं, सद्भाव से कराए गए हैं। यानी, प्रबंधन को अपने कर्मचारी को मजीठिया वेजबोर्ड की अनुशंसाओं के बारे में बताना था और यह भी स्पष्ट करना था कि मजीठिया वेज बोर्ड के अधीन मिलने वाले वेतन तथा उसे मिल रहे मौजूदा वेतन में कितना अंतर है। ऐसा कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं है कि कर्मचारियों को मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं के बारे में जानकारी दी गई थी।

न्यायालय ने यह भी दिया तर्क

जस्टिस अहलूवालिया ने अपने आदेश में लाडली पार्षद जायसवाल विरुद्ध करनाल डिस्टलरी के रिपोर्टेड निर्णय का हवाला भी दिया। उन्होंने कहा कि अनुबंध अधिनियम की धारा 16 में अनुचित प्रभाव का उपयोग करके अनुबंध करने के बारे में बताया गया है। जब एक व्यक्ति दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में होता है तो यह साबित करने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति पर होती है जो प्रभावित करने की स्थिति में होता कि वह अनुबंध अनुचित प्रभाव का उपयोग कर नहीं किया गया है। इसके चलते 20जे के डिक्लेरेशन पर हस्ताक्षर स्वैच्छिक किए गए हैं, यह साबित करने कि जिम्मेदारी याचिकाकर्ता अर्थात अखबार प्रबंधन की है। कोर्ट का मानना है कि याचिकाकर्ता इस मामले में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में असफल रहा। याचिककर्ता 20जे के डिक्लेरेशन पर कर्मचारी को श्रम न्यायालय में क्रॉस एक्जामिन कर चुका है।

कम वेतन पर सहमति देने पर सवाल भी किया

जस्टिस अहलूवालिया ने कम वेतन पाने वाले द्वारा ज्यादा वेतन नहीं लेने के लिए सहमत होने संबंधी बात पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति ज्यादा वेतन प्राप्त कर सकता है, वो कम वेतन पर अपनी सहमति कैसे देगा? जस्टिस अहलूवालिया ने मिनिमम वेज एक्ट और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का हवाला भी दिया और कहा कि कर्मचारी को उचित वेतन नहीं तो कम से कम न्यूनतम वेतन प्राप्त करने का अधिकार है। उसे किसी भी तरह से सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने मजीठिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला भी दिया कि 20जे के प्रावधान से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि नियोक्ता एक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करा लेने भर से मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने से बच जाएगा। जस्टिस अहलूवालिया ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय के हवाले से कहा कि न्यूनतम वेतन से कम या वेज बोर्ड की अनुशंसाओं से कम वेतन पर काम कराना बेगार की श्रेणी में आता है। यह संविधान के अनुच्छेद 23 का भी उल्लंघन है। इस अनुच्छेद के हिसाब से 20जे को संवैधानिक नहीं माना जा सकता है।

कार्य के आधार पर तय होगा कर्मचारी का प्रबंधक या सुपरवाइजर होना

मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने से बचने के लिए प्रबंधन ने हर कर्मचारी को प्रबंधकीय या सुपरवाइजर प्रवृत्ति का बता रहा है, चाहे वह पत्रकार हो, रिसेप्शनिस्ट हो या फिर प्यून। इसे लेकर भी जस्टिस अहलूवालिया ने टिप्पणी की। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के हवाले से कहा कि किसी भी कर्मचारी के प्रबंधक या सुपरवाइजर के रूप में नियुक्ति का प्रश्न उसके द्वारा किए जा प्रमुख कार्यों के आधार पर तय होगा। किसी को प्रबंधक या सुपरवाइजर तब माना जाएगा जबकि उसे नियुक्ति और प्रमोशन करने के अधिकार प्राप्त हों। चूंकि सारे दस्तावेज नियोक्ता के पास होते हैं, ऐसे में सुपरवाइजर या प्रबंधकीय कार्य को सिद्ध करने का दायित्व भी उसी पर है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के अनुसार भी जिस व्यक्ति की अभिरक्षा में प्रमाण है यदि वह उसे प्रस्तुत नहीं करता है तो कोर्ट को यह मानने का अधिकार है यदि वे प्रमाण प्रस्तुत किए जाते तो वे उसी के खिलाफ होते।

इन मांगों को भी कर दिया खारिज

समाचार पत्र प्रबंधन द्वारा याचिका में हर यूनिट के टर्नओवर के आधार पर संस्थान की श्रेणी तय किए जाने की मांग की गई थी। साथ ही सी-फॉर्म जमा करने के पहले 15 दिन का नोटिस नहीं दिए जाने और उप श्रमायुक्त के मजीठिया के मामले लेबर कोर्ट ट्रांसफर करने के अधिकार पर भी सवाल उठाए गए थे। इन सभी को जस्टिस अहलूवालिया ने खारिज कर दिया। हाईकोर्ट का यह फैसला तमाम कर्मचारियों के लिए बड़ी राहत देने वाला है जो विगत कई वर्षों से मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार वेतन-भत्तों को लागू करने और उसके एरियर के भुगतान के लिए कानूनी लड़ाई कर रहे हैं।

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