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दिल्ली की गद्दी पर दक्षिण के दावे

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एस श्रीनिवासन

, वरिष्ठ पत्रकार

भारत केराजनीतिक इतिहास में दक्षिण से केवल दो प्रधानमंत्री रहे हैं, पी वी नरसिम्हा राव और एच डी देवेगौड़ा। घटनाओं के अप्रत्याशित मोड़ के बाद दोनों 1990 के दशक में इस पद पर पहुंचे। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद राव को कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था। 1996 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी के खराब प्रदर्शन और भाजपा की 13 दिन पुरानी सरकार गिरने के बाद देवेगौड़ा इस पद पर पहुंचे थे।

राव कांग्रेस पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक थे और सेवानिवृत्ति की योजना बना रहे थे, जब अचानक घटनाओं ने उन्हें केंद्र में ला खड़ा किया। यह सीपीएम की ऐतिहासिक भूल थी, जिसने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह पद देवेगौड़ा की गोद में जा गिरा। राव और देवेगौड़ा का उदय कितना भी अप्रत्याशित क्यों न हो, इसने इस धारणा को चुनौती दी थी कि प्रधानमंत्री कार्यालय का मार्ग अनिवार्य रूप से भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश से होकर गुजरना चाहिए। 
हम देखते हैं कि उत्तरी राज्यों पर बहुत अधिक निर्भरता की अपनी मूल राजनीति के साथ भाजपा ने हिंदी पट्टी पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रखा है। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात से हैं, फिर भी उन्होंने बनारस को अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में चुना, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में हिंदी गढ़ के महत्व को ही बल मिला।
दो ऐसे अवसर भी आए, जब दक्षिण के नेता प्रधानमंत्री कार्यालय में विराजने से वंचित रह गए, लेकिन ‘किंगमेकर’ के रूप में जरूर उभरे। अभिनेता से नेता बने एन टी रामाराव 1988 में नेशनल फ्रंट के नेता बने। हालांकि, वह शायद ही एक राजनीतिक दिग्गज थे, लेकिन उन्हें वी पी सिंह, ज्योति बसु, बीजू पटनायक और देवी लाल जैसे लोगों ने स्वीकार किया।
आठ साल बाद राव के दामाद, चंद्रबाबू नायडू, धर्मनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चे के नेता बने और प्रधानमंत्री पद के लिए आम सहमति के उम्मीदवार के रूप में देवेगौड़ा के चयन को आसान बनाया। नायडू बाद में किनारे हो गए और राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चे के संयोजक बने, जिसमें भाजपा भी शामिल थी।
बहरहाल, पिछले 25 सालों में बहुत कुछ बदल गया है। दक्षिण के क्षेत्रीय दलों ने भाजपा के जवाब में अपना किला तो मजबूत रखा है, पर वे शायद ही वैकल्पिक नेतृत्व या राष्ट्रीय दृष्टिकोण पेश करने की स्थिति में हैं। वास्तव में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति या टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव को छोड़कर किसी ने भी दिल्ली की गद्दी पर विराजने की इच्छा व्यक्त नहीं की है।
के चंद्रशेखर राव, जिन्हें केसीआर के नाम से भी जानते हैं, मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में 2019 से संभावित तीसरे मोर्चे के नेता के रूप में उभरने के संकेत दे रहे हैं। हालांकि, उनकी इस कोशिश पर किसी ने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया है। कारण यह है कि उनकी कोशिश अविश्वसनीय नजर आती है। कभी राव यूपीए सरकार का हिस्सा थे, मगर उन्होंने वह गठबंधन छोड़ने में कतई समय बर्बाद नहीं किया और बाद में नवगठित तेलंगाना के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने खुद को एनडीए से जोड़ लिया। उन्हें अवसरवादी के रूप में देखा गया। केसीआर ने प्रधानमंत्री पद की चाह का प्रदर्शन तब शुरू किया, जब उनके गृह राज्य में भाजपा प्रमुख विपक्ष पार्टी के रूप में उभर आई। इससे पहले केसीआर ने तेलंगाना में कांग्रेस को कड़ी मेहनत से लगभग खत्म कर दिया था, शायद ही उन्होंने इस बात को महसूस किया कि कांगे्रस का स्थान जल्द ही एक बड़ी, दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी, भाजपा से भर जाएगा।
इसलिए जब वह अन्य विपक्षी नेताओं से सहयोग का हाथ मांग रहे हैं, तो कोई जवाब नहीं दे रहा है। फिर भी केसीआर-समर्थकों को लगता है कि वह प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। केसीआर ने नवगठित राज्य को सफलतापूर्वक चलाया है, ऐसा सभी क्षेत्रीय दल नहीं कर सके हैं। उन्होंने अपने बेटे को उत्तराधिकारी भी चुन लिया है, पर अभी राज्याभिषेक कराने में असमर्थ हैं।
द्रमुक नेता, एम के स्टालिन, अपने तमिलनाडु राज्य के प्रबंधन से ही संतुष्ट हैं, जहां वह केंद्र की निरंतर चकाचौंध से सावधान रहते हुए अपनी सरकार चला रहे हैं। भाजपा राज्य में अपना विस्तार करने की इच्छुक है, लेकिन द्रविड़ पार्टी को एक बाधा के रूप में देखती है। दूसरी ओर, अन्नाद्रमुक 2016 में अपनी सर्वोच्च नेता जे जयललिता की मृत्यु के बाद से ही असमंजस में है। पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भाजपा अच्छी तरह से स्थापित है और खुद को दिनोंदिन मजबूत करती जा रही है। केरल में वामपंथियों के आखिरी गढ़ में भी भारतीय जनता पार्टी धीरे-धीरे कांग्रेस की जगह लेने की कोशिश कर रही है।
आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी शायद ही भाजपा का विरोध करने की स्थिति में हैं। उनके खिलाफ अदालतों और जांच एजेंसियों में मामले हैं, अत: उन्होंने सहयोग के लिए अपना हाथ बढ़ा रखा है। यहां चंद्रबाबू नायडू खुद भी किसी अच्छी स्थिति में नहीं हैं। भाजपा छोड़ने के बाद धर्मनिरपेक्ष मोर्चे में उनकी वापसी 2019 में एक फ्लॉप शो के रूप में हुई थी। इसलिए यू-टर्न लेने और भाजपा के साथ फिर मेल बिठाने के उनके खूब प्रयास भी कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। अपने चारों ओर के दरवाजे बंद करके वह जगनमोहन के खिलाफ एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।
जबकि भाजपा लगातार कांग्रेस पार्टी पर हमला कर रही है और कांग्रेस मुक्त भारत का वादा भी कर रही है, इस अभियान ने क्षेत्रीय दलों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया है। वैसे द्रमुक, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां भले ही अपने दम पर खड़ी हों, लेकिन वे शायद ही अपनी सीमाओं से परे अपनी अपील के विस्तार की स्थिति में हैं।
इन सभी दलों ने आक्रामक भाजपा से अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए अपनी-अपनी खाइयां खोद ली हैं। भाजपा को बचाव की मुद्रा में लाने के लिए ये दल प्रयासरत हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी विधानसभा चुनावों में भगवा पार्टी को पीछे रखने में कामयाब रहीं, लेकिन इससे उन्हें अपने राज्य से परे कोई नई जमीन हासिल करने में मदद नहीं मिली है। रही बात आम आदमी पार्टी की, तो कुछ राज्यों से परे उसकी अपील का परीक्षण अभी बाकी है।

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