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उप चुनावों ने उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीति की तस्वीर तय कर दी

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश में हुए 3 उप चुनावों ने प्रदेश में एक नई राजनीति की तस्वीर तय कर दी है। चर्चा भले ही मैनपुरी में डिंपल यादव के रिकॉर्ड जीत की हो रही हो, लेकिन इसके मायने बड़े स्तर पर बनते नहीं दिख रहे। मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद सहानुभूति वोट उपज रहे थे। मुलायम परिवार की एकता ने रही सही कसर पूरी कर दी। शिवपाल सिंह यादव जब अखिलेश यादव के साथ चुनावी मैदान में उतरे तभी तय हो गया था कि मैनपुरी बड़े अंतर से समाजवादी पार्टी जीतने जा रही है। अखिलेश ने बूथ स्तरीय सम्मेलन तक में भाग लेकर बची कसर पूरी कर दी। मुलायम की बहू और सपा उम्मीदवार डिंपल यादव गांव- गांव घूमीं। सबसे मिलीं और वोट मांगा। वोट मुलायम की बहू के रूप में मैनपुरी की बहू के रूप में तो जीत तय थी। हालांकि, इस जीत से समाजवादी पार्टी कुछ बड़ा अंतर पैदा करती नहीं दिख रही है।

प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने वाले नतीजे
मुलायम सिंह यादव ने जिस माय(मुस्लिम+यादव) समीकरण को प्रदेश की राजनीति में स्थापित चुनावों के परिणाम को अपने पक्ष में करने का सिलसिला शुरू किया था। मैनपुरी का रिजल्ट उसी का परिणाम भर है। इस जीत की धमक में रामपुर और खतौली विधानसभा उप चुनाव के परिणामों को गुम करना उचित नहीं होगा, क्योंकि ये दोनों उप चुनाव के रिजल्ट प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने वाले साबित होंगे। उन बदलाव को समझकर अगर अभी से राजनीतिक लाइन बनाकर जिन्होंने काम शुरू किया, याद रखिए वे ही आगे जीतेंगे। अगर इन समीकरणों के सहारे दल आगे बढ़े तो 2024 के आम चुनाव में एक अलग कहानी उत्तर प्रदेश लिखता नजर आएगा। यह कहानी 2013 में भाजपा के पांव पसारने से शुरू होने का विस्तार माना जा सकता है। हालांकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बदलाव के संकेत हैं, यह भाजपा की चिंता बढ़ाने वाला तो होगा ही। ऐसे परिणाम का असर आगामी नगर निकाय चुनावों में दिखे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
भाजपा के लिए खतौली चिंताजनक

खतौली विधानसभा सीट पर राष्ट्रीय लोक दल के उम्मीदवार मदन भैया ने जीत दर्ज की। यहां से विक्रम सिंह सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रही थीं। भाजपा विधायक विक्रम सैनी मुजफ्फरनगर दंगों के एक मामले में दोषी करार दिए गए। सजायाफ्ता हुए। विधायक चली गई। उपचुनाव हुआ। भाजपा ने पत्नी को टिकट दिया, लेकिन सीट बचा पाने में न विक्रम सैनी कामयाब हुए, न भाजपा। इस क्षेत्र में जयंत चौधरी ने जिस प्रकार से मेहनत की, उसका रिजल्ट सामने है। 22 से अधिक दिनों तक इस पूरे क्षेत्र में लगातार दौरों के जरिए जो माहौल जयंत चौधरी ने रालोद उम्मीदवार के पक्ष में बनाया था, वह चुनावी रिजल्ट में सामने आया। अगर इस प्रकार का माहौल बनाने का कार्य राष्ट्रीय लोक दल के नेता आगे भी जारी रखते हैं तो फिर जाटलैंड में चुनावी गणित बदल सकता है। नगर निकाय चुनाव में भी और लोकसभा चुनाव 2024 में भी।

9 महीने के भीतर भाजपा को जाटलैंड में करारी शिकस्त
जाटलैंड का चुनावी गणित 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से बदलना शुरू हुआ। इससे पहले जाट और मुस्लिम वोट मिलकर क्षेत्र में जीत का समीकरण बनाते रहे थे। इसकी काट कोई नहीं ढूंढ पा रहा था। जाटलैंड की राजनीति को 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने प्रभावित किया। मुस्लिम- जाट समीकरण टूटा। फिर बीजेपी ने एंट्री मार ली। यही वजह रही कि कृषि कानूनों के खिलाफ एक साल से अधिक लंबे चले किसान आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले इस इलाके में यूपी चुनाव के दौरान कोई असर नहीं दिखा। दंगों का मामला तब भी उठा था, खतौली विधानसभा उपचुनाव में भी। मार्च में भाजपा जीती। लेकिन, इस बार स्थिति बदल गई। यूपी चुनाव 2022 के परिणाम से महज 9 महीने के भीतर भाजपा को जाटलैंड में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है। वह भी तब जब एक जाट नेता भूपेंद्र चौधरी को उत्तर प्रदेश भाजपा की कमान सौंपी गई है। सीएम योगी आदित्यनाथ पश्चिमी यूपी के प्रभारी हैं। लगातार दौरे कर रहे हैं और क्षेत्र में राजनीतिक माहौल को भाजपा के पक्ष में करने की कोशिश में हैं।
गठबंधन की राजनीति के जरिए बढ़ रहे जयंत
उपचुनाव के परिणाम इस मायने में काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने यहां पर अपनी विरासत को एक बार फिर सहेजने की कोशिश की है। आगे बढ़ाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। जाटलैंड की राजनीति में उनके दादा चौधरी चरण सिंह ने जो मुकाम हासिल किया, उसे अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटे हैं। गठबंधन की राजनीति के जरिए जयंत अब आगे बढ़ते दिख रहे हैं। यूपी चुनाव 2022 के बाद उम्मीद जताई जा रही थी कि हर बार की तरह इस बार भी अखिलेश के साथी साथ छोड़ जाएंगे। कई छोड़ भी गए, लेकिन जयंत टिके रहे। जयंत के डटने और क्षेत्र में रहने का असर उप चुनाव में दिख रहा है। भाजपा के लिए अब इस क्षेत्र में अपने राजनीतिक समीकरण को बनाए रखने, बचाए रखने और बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। सबसे बड़ी बात किसानों को साथ जोड़कर रखने की है। गन्ना किसानों का मामला जिस प्रकार से उप चुनाव में उठा, उसने राज्य सरकार की नीतियों पर सवाल भी खड़े किए हैं। सरकार को जल्द बड़े और कड़े निर्णय लेने होंगे।

रामपुर से निकलते संदेश अखिलेश के लिए चिंता का सबब

रामपुर विधानसभा उप चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा है। समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेता आजम खान का यह करीब चार दशक पुराने गढ़ में सेंधमारी हो चुकी है। ठीक वैसे ही जैसे आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट जैसे किले में भाजपा ने पहले सेंधमारी की थी। रामपुर से निकलते संदेश कुछ अलग ही कहानी बयां कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहली बार भारतीय जनता पार्टी मुस्लिमों की बात करती दिख रही है। पसमांदा मुसलमानों के जरिए मुस्लिमों के एक बड़े वोट बैंक को साधने की कोशिश हो रही है। रामपुर में भी पसमांदा मुसलमानों को ध्यान में रखते हुए उप चुनाव से पहले कई घोषणाएं हुई। कई कार्य शुरू किए गए। आजम खान चुनावी मैदान में उतरे तो उन्होंने भी इसका जिक्र किया। आजम खान ने चुनावी सभाओं में कहा कि जिस प्रकार से भाजपा रामपुर में पसनंदा मुस्लिमों के लिए कार्य करती दिख रही है। अगर पूरे देश में वह सभी मुसलमानों के लिए करना शुरू कर दें तो फिर सारा झमेला ही खत्म हो जाएगा। आजम लगातार भाजपा पर मुस्लिम विरोधी राजनीति का आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन, रामपुर में भाजपा ने आजम विरोधी राजनीति के जरिए उनका किला ढाह दिया।

हालांकि, आजम खान के रामपुर के चुनाव मैदान में नहीं उतरने पर हारने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। वह इस बार भी कायम रहा। असिम रजा पर आजम का अंध भरोसा फिर काम नहीं आया। पहले रामपुर लोकसभा उप चुनाव हारे और अब विधानसभा उप चुनाव में आकाश सक्सेना हनी ने उन्हें करारी मात दे दी है। चुनाव परिणाम के पीछे से जो संकेत निकल कर सामने आए हैं। वह साफ करता है कि भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में मुस्लिम वोट भी आए हैं। समाजवादी पार्टी को मिले वोट प्रतिशत से तो यह साफ हो ही जाता है। लगभग 55 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले रामपुर में सपा उम्मीदवार को मिले वोट इसकी तस्दीक करते हैं। आकाश सक्सेना को रामपुर सीट पर 81,432 वोट मिले। यह कुल पड़े वोट का 62.06 फीसदी वोट था। वहीं, सपा के असिम रजा को 47,296 वोट मिले। यह कुल पड़े वोट का 36.05 फीसदी वोट रहा। भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में 62 फीसदी वोट शेयर का जाना निश्चित तौर समाजवादी पार्टी के माय समीकरण में डेंट लगने का संकेत दे रहा है। इस प्रकार के संकेतों को रामपुर से बाहर न जाने देने की जिम्मेदारी निश्चित तौर पर अब अखिलेश की होगी।

सपा उम्मीदवार के वोट घटने के पीछे मुस्लिम वोट बैंक का बंटवारा सबसे बड़ा मुद्दा माना जा रहा है। इसमें पसमांदा फैक्टर भी काम करता दिख रहा है। इसके अलावा आजम खान के खिलाफ खड़े होने वाले मुस्लिम नेताओं का मसला भी अहम हो गया है। रामपुर का नूरमहल कांग्रेस के लिए हमेशा नूर बिखेड़ता रहा है। इस बार पार्टी ने चुनावी मैदान में उम्मीदवार नहीं दिया तो आजम के खिलाफ राजनीति करने वाला यह नूरमहल भाजपा के आकाश सक्सेना के पक्ष में खड़ा हो गया। नवाब काजिम अली खान ने खुलकर भाजपा का समर्थन कर दिया। पार्टी की कार्रवाई का सामना किया, लेकिन डटे रहे। आजम के खिलाफ रामपुर में विरोध की लहर साफ दिख रही थी। आजम ने इसको अपने तरीके से सुलझाने की कोशिश की। लोगों को मनाने के लिए इमोशनल कार्ड खेला। वोटरों से बूथों तक निकलकर जाने की अपील की, लेकिन मतदाता निकले ही नहीं। 33 परसेंट के आसपास पोल के बाद से ही यह अंदाजा लगाया जा रहा था कि रामपुर में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार आकाश सक्सेना हनी को बढ़त है। जीत का अंतर इतना बड़ा होगा, शायद किसी ने सोचा नहीं था।

यूपी चुनाव 2022 में हार का बदला लिया
रामपुर में 34,136 वोटों से जीत दर्ज कर आकाश सक्सेना ने यूपी चुनाव 2022 में हार का बदला ले लिया। यूपी चुनाव में आजम खान ने दसवीं बार इस सीट से जीत हासिल की थी। तब उन्होंने आकाश सक्सेना को 55,141 वोटों से हराया था। आजम के उम्मीदवार असिम रजा को हराने में वे कामयाब रहे। रामपुर में मुस्लिम वोटों के बंटवारे का असर अगर प्रदेश स्तर पर दिखा तो सपा की स्थिति खराब होगी। मुस्लिम नेताओं की ओर से अखिलेश यादव पर आरोप लगता रहा है कि वह उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं। हालांकि, उप चुनाव से पहले आजम खान के मसले को लगातार उठाकर समाजवादी पार्टी इस वर्ग में अपने प्रभाव को बनाए रखने की कोशिश करती दिखी। लेकिन, सबकी नजर पसमांदा वोट बैंक पर है। अगर यह छिटका तो इसका असर लोकसभा चुनाव 2024 में बड़ा हो सकता है। नगर निकाय चुनाव में भी। मुसलमानों के इस वर्ग की राजनीति बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस करती रही है। समाजवादी पार्टी भी। भारतीय जनता पार्टी की नजर इसी वोट बैंक पर है। साधने के लिए मंत्री दानिश अली लगातार जुटे हुए हैं।
मैनपुरी के संदेश को समझिए

मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद मैनपुरी लोकसभा सीट वर्चस्व की लड़ाई बनकर सामने आई। अखिलेश यादव ने उप चुनाव में पहली बार बड़े स्तर पर कैंपेनिंग की। मैनपुरी उप चुनाव को प्रतिष्ठा का विषय बता दिया। मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद उनकी प्रतिष्ठा से जोड़कर उप चुनाव को एक मुद्दे के रूप में बना दिया गया। शुरुआती दिनों में धर्मेंद्र यादव और तेज प्रताप यादव के बीच मुलायम की विरासत को बांटने और बढ़ाने की बात चली। लेकिन, परिवार इस पर एकजुट होता नहीं दिखा। इसके बाद अखिलेश ने पत्नी डिंपल यादव को चुनावी मैदान में उतारने का दांव खेला। इस दांव में अखिलेश के राइट हैंड प्रो. रामगोपाल यादव और लेफ्ट हैंड शिवपाल यादव बन गए। मैनपुरी का रण परिवार की जीत के लिए महत्वपूर्ण हो गया। परिवार मैदान में उतरा तो मुलायम की विरासत को सहेजते हुए वोटरों ने मैनपुरी के रिकॉर्ड जीत को डिंपल की झोली में डाल दिया। मैनपुरी में मुलायम की विरासत को बचाने में अखिलेश कामयाब हुए। संदेश यादवलैंड में गया है। परिवार एकजुट है। रिजल्ट के दिन ही चाचा शिवपाल को पार्टी का झंडा पकड़ा अखिलेश ने साफ कर दिया, अब प्रसपा- सपा जैसी कोई दो अलग-अलग विचारधारा प्रदेश में नहीं है। पूरा परिवार एक झंडा, एक पार्टी के तले आगे बढ़ेगा। शिवपाल भी अब समाजवादी पार्टी के झंडे तले अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे।

मैनपुरी इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो गया था कि क्या यादव वोट बैंक में भाजपा सेंधमारी कर सकती है? योगी सरकार के मंत्री और मैनपुरी विधायक जयवीर सिंह ने पहले ही कहा था कि शिवपाल यादव के सामने मैनपुरी में अस्तित्व का सवाल है। शिवपाल ने अपन अस्तित्व सपा में तलाश लिया। भाजपा की हार हुई। हालांकि, यादव वोट बैंक हमेशा से सपा के साथ रही है। अगर इसमें बंटवारा किसी भी स्थिति में होता, तभी भाजपा के लिए कोई चांस इस तरफ था। वोट बैंक एकजुट रहा तो हार तय थी। हुआ भी यही। यही वजह रही कि मैनपुरी के चुनावी मैदान में शिवपाल का मुद्दा खूब उछाला गया। करहल विधानसभा सीट पर चुनावी मैदान में उतरे सीएम योगी आदित्यनाथ तक ने शिवपाल का मुद्दा उछाला। उसका कोई खास असर होता नहीं दिखा। शिवपाल बहू अपर्णा के लिए वोट मांगते दिखे। जसवंत नगर में डिंपल को रिकॉर्ड वोटों से जीत दिलाने में उनकी भूमिका अहम रही। ऐसे में पार्टी में उनकी वापसी का असर यादव वोट बैंक को एकजुट रखने में सहायक साबित होगा। मैनपुरी का संदेश बस इतना सा भर है।

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