नदीम
देश के सरकारी स्कूलों में चलने वाली ‘मिड डे मील’ योजना से तो सभी वाकिफ हैं। इस योजना के तहत बच्चों को स्कूल में ही सरकार की ओर से भोजन उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन इस योजना का कॉन्सेप्ट आया कैसे, यह बेहद दिलचस्प है। दरअसल यह साठ के दशक की बात है। कामराज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। यह वह वक्त था जब सीएम की सिक्यॉरिटी के बहुत ज्यादा प्रोटोकॉल नहीं हुआ करते थे। अब तो सीएम को जिस रास्ते से गुजरना होता है, उसकी किलेबंदी ही कर दी जाती है। खैर, कामराज एक दोपहर एक गांव से गुजर रहे थे। उन्हें आस-पास के खेतों और बाग में जानवर चराते, लकड़ियां चुनते, धींगामुश्ती करते बच्चे दिखे। उन्होंने अपनी गाड़ी रुकवा दी। ड्राइवर से बोले कि जाओ, इन सारे बच्चों को बुलाकर लाओ। बच्चे आए तो उन्होंने सवाल किया कि- तुम लोग स्कूल क्यों नहीं गए? बच्चों को इस बात का अहसास नहीं था कि सामने खड़ा शख्स सूबे का सीएम है। वैसे भी जिस उम्र के बच्चे थे, उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वे राजनेताओं को पहचानते होंगे। उनमें से एक बच्चा तेज आवाज में बोला- स्कूल जाएंगे तो यह काम कौन करेगा? और यह काम हम नहीं करेंगे तो हमें खाना कौन देगा? तुम दोगे? उसका यह जवाब सुनकर बाकी के बच्चे खिलखिला कर हंस पड़े लेकिन कामराज एकदम से खामोश हो गए। वह गाड़ी में बैठे और उन्होंने ड्राइवर से सचिवालय चलने को कहा।
शाम को ही उन्होंने इस मुद्दे पर राज्य के शीर्ष अधिकारियों की बैठक बुलाई। कहा कि अगर बच्चे खाने की वजह से स्कूल नहीं जाना चाहते तो हमें वह रास्ता निकालना चाहिए कि उन्हें स्कूल में ही खाना उपलब्ध कराया जा सके। इस सोच के जरिए वर्ष 1962 में तमिलनाडु के कुछ सरकारी स्कूलों में मिड डे मील की शुरुआत हुई। बाद के वर्षों में इसका राज्य के अन्य स्कूलों में विस्तार हुआ लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना की शुरुआत होने में तीन दशक से भी अधिक का समय लग गया। 15 अगस्त, 1995 से केंद्र सरकार ने 2408 ब्लॉकों में इस योजना की शुरुआत की। वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी और सरकारी सहायता से चलाए जाने वाले सभी स्कूलों में मिड डे मील योजना लागू करने का आदेश दिया।
ममता ने कैसे चुना ‘तृणमूल’ नाम?
ममता के जेहन में अपनी पार्टी का नाम तृणमूल कांग्रेस रखने का ख्याल कैसे आया, यह भी दिलचस्प है। उनके करीबी बताते हैं कि जिस वक्त उनकी जुबान से यह शब्द निकला था, उस समय तक उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला भी नहीं किया था लेकिन यह शब्द उनके जेहन में ऐसा बैठा कि पांच महीने बाद जब उन्हें कांग्रेस से निकाला गया और नई पार्टी बनाना उनके लिए जरूरी हो गया तो उन्होंने अपनी पार्टी का नाम ‘तृणमूल’ कांग्रेस ही रखना बेहतर समझा। ममता ने अपने जीवन के शुरुआती 28 साल कांग्रेस में ही गुजारे हैं, उनका राजनीतिक सफर ही कांग्रेस से शुरू हुआ था। 1984 के चुनाव में 29 साल की ममता ने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में उस समय के देश दिग्गज राजनीतिकों में से एक सोमनाथ चटर्जी को उनके गढ़ में ही हराकर सनसनी मचा दी थी। कांग्रेस के अंदर उनके टकराव की शुरुआत 1996 में हुई जब सोमेन मित्रा को बंगाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। ममता उन्हें तरबूज कहा करती थीं। जैसे तरबूज का ऊपरी रंग हरा होने पर भी वह अंदर से लाल होता है, वैसे ही ममता के मुताबिक सोमेन मित्रा ऊपर से कांग्रेसी होते हुए भी अंदर से वामदलों के सहयोगी थे। 1997 में राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस में बहुत उठापटक चल रही थी। गांधी परिवार से उस समय कोई राजनीति में नहीं था। राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए सीताराम केसरी चुनाव लड़ रहे थे। सोमेन मित्रा सीताराम केसरी के लिए लॉबीइंग कर रहे थे। केसरी के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद सोमेन मित्रा ने राष्ट्रीय राजनीति में अपना दबदबा बढ़ाने के लिए कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन कोलकाता में रखवाया। बागी ममता ने उसी तारीख को अपनी अलग रैली रख दी। राष्ट्रीय अधिवेशन में कुछ हजार ही डेलीगेट्स थे लेकिन ममता की रैली में लाखों की भीड़ जुटी। ममता ने इसी रैली को संबोधित करते हुए कहा था- उस अधिवेशन में बैठे हुए लोग हवा-हवाई हैं जबकि इस रैली में मौजूद लोग तृणमूल ( यानी ग्रासरूट) कांग्रेसी हैं। अधिवेशन भी खत्म हो गया और रैली भी लेकिन ममता और सोमेन मित्रा का टकराव चलता रहा। धीरे-धीरे ममता की लड़ाई केंद्रीय नेतृत्व से शुरू हो गई। अंतत: दिसंबर 1997 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। एक जनवरी 1998 को जब ममता ने अपनी नई पार्टी का एलान किया तो उन्होंने उसका नाम तृणमूल कांग्रेस ही रखा।
अटल जी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में सहयोगियों को सहेज कर रखना सबसे बड़ी चुनौती थी। चूंकि वह एक ऐसा प्रयोग था जिस पर भविष्य की राजनीति निर्भर थी, इसलिए अटल जी नहीं चाहते थे कि वह प्रयोग किसी भी तरह असफल हो। जॉर्ज फर्नांडीज पर एनडीए के संयोजक के रूप में सहयोगियों से समन्वय और संवाद का जिम्मा था। ममता और जयाललिता ऐसी दो नेता रहीं, जिन्हें मनाने में जॉर्ज को हर बार पसीना आ जाता था। एक बार मीडिया के साथ अनौपचारिक बातचीत में जॉर्ज से सवाल हुआ कि आप यह सब कैसे मैनेज कर पाते हैं तो उनका जवाब था, ‘जब भी इनमें से कोई रूठता तो अटल जी का फोन आ जाता कि फर्नांडीज, जाओ देखो क्या दिक्कत है। मैं हर बार उनसे यही कहता कि आप कह रहे हो तो इस बार तो मैं जा रहा हूं, अगली बार जाने वाला नहीं। अटल जी हंस कर कहते थे कि ठीक है, इस बार चले जाओ, अगली बार मत जाना।’