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माफी का मामला अटका हुआ है और संसद का कीमती समय इसकी भेंट चढ़ता जा रहा है

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शीत सत्र शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य लोगों ने संसद में हंगामा कम और चर्चा ज्यादा होने की उम्मीद जताई थी, जिस पर पानी फिरता दिख रहा है। सत्र शुरू होने से कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कृषि कानून वापस लिए जाने की घोषणा से टकराव का एक महत्वपूर्ण मुद्दा समाप्त हो चुका था। इसलिए इस बात की उम्मीद थोड़ी बढ़ गई थी कि दोनों पक्ष तालमेल से चलें तो देश के सामने अपना पक्ष रख सकते हैं और उनके बीच मुद्दों पर स्वस्थ बहस हो सकती है। लेकिन पहले ही दिन विपक्ष के 12 सदस्यों को पूरे सत्र के लिए निलंबित करने का ऐसा फैसला आ गया, जिसने फिर सत्ता पक्ष और विपक्ष को आमने-सामने कर दिया।

मामला पिछले सत्र का है, इसलिए विपक्ष इसे गैरजरूरी बता रहा है, जबकि सत्ता पक्ष का कहना है कि सदन में ऐसे व्यवहार को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए सजा न दी गई तो यह चलता ही रहेगा। सजा से बचने की शर्त है माफी। निलंबित सदस्य ज्यों ही अपने व्यवहार के लिए माफी मांग लेंगे, निलंबन रद्द कर दिया जाएगा। मगर विपक्ष माफी मांगने को बिल्कुल तैयार नहीं है। उसका कहना है कि जब हमारी तरफ से कोई गलती हुई ही नहीं है तो माफी किस बात की। दोनों पक्षों के इस अड़ियल रुख के चलते बीच की कोई राह निकलने की संभावना बनती नहीं दिख रही।

इसमें दो राय नहीं कि पिछले सत्र में जिस तरह का दृश्य देखने को मिला उसे किसी भी रूप में शोभनीय नहीं कहा जा सकता। मगर जहां तक उसके कारणों का सवाल है तो इस पर दोनों पक्षों की अपनी व्याख्या है और इन्हीं अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर वे इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लिहाजा माफी का मामला अटका हुआ है और संसद का कीमती समय इसकी भेंट चढ़ता जा रहा है। जो बात दोनों पक्षों के समझने की है, वह यह कि संसदीय लोकतंत्र को सही ढंग से चलाना दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी है और यह काम वे दूसरे पक्ष पर सारा दोष डालकर नहीं कर सकते।

चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, उनका काम दूसरे पक्ष को सुधारना नहीं है। यह जिम्मेदारी जनता की होती है। दोनों पक्षों का काम एक-दूसरे की कमियों को सिर्फ जनता की नजरों के सामने लाना होता है। अगर किसी सदस्य का आचरण सदन की मर्यादा के खिलाफ है तो दोनों पक्षों के नेतृत्व की साझा जिम्मेदारी है उस मर्यादा की रक्षा करने की। इसलिए ऐसे मामलों में बेहतर होता है विपक्षी दलों के नेतृत्व को विश्वास में लेकर कोई कार्रवाई की जाए। मौजूदा प्रकरण में भी मामले को लंबा खिंचने देने के बजाय दोनों पक्षों का नेतृत्व मिल-बैठकर जितनी जल्दी कोई बीच की राह निकाल ले उतना अच्छा।

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