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कोस कोस पर चटनी का स्वाद भी बदलता है और रंग भी

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खाने में चटनी का अपना अलग महत्त्व है. चटनी तरह-तरह की होती है. तरह-तरह की चटनियों से खाने का स्वाद बढ़ता है लेकिन गरीबों के लिए चटनी सालन भी है और भाजी भी. चटनी के साथ भात या फिर रोटी से वे पेट भरते हैं और मस्त हो जाते हैं. यानी चटनी हो तो खाने का मजा भी बढ़ता है और पेट भी भरता है. वैसे चटनी मुहावरों में भी इस्तेमाल होता है. दिलचस्प यह है कि चटनी न जाने कितने तरह की होती है और कितने तरीकों से बनाई जाती है. इलाके के साथ-साथ चटनी की स्वाद भी बदलता है और रंग भी. जनादेश लाइव के साप्ताहिक कार्यक्रम खाने के बाद-खाने की बात में चटनियों पर चर्चा हुई. चर्चा का संचालन किया प्रियंका संभव ने और इसमें हिस्सा लेने वाले खास मेहमान थे लेखक-चित्रकार चंचल, खान-पान की जानकार पूर्णिमा अरुण, शेफ अन्नया खरे, पत्रकार आलोक जोशी और जनादेश के संपादक अंबरीश कुमार.

प्रियंका संभव ने चटनियों पर बातचीत करते हुए कहा कि खाने की थाली बिना चटनियों के स्वादिष्ट हो ही नहीं सकता. तरह-तरह की चटनी और उसका स्वाद मुंह में पानी भी लाता है और लुभाता भी है. चटनियों पर चटकारा लेने की शुरुआत अंबरीश कुमार ने कन्याकुमारी से की. सत्तर के दशक के अंतिम दौर की बात है परिवार के साथ कन्याकुमारी गया हुआ था. वहां विवेकानंद आश्रम में हम ठहरे थे. वह बहुत पुराना और बड़ा आश्रम है. रात का खाना आया केले के पत्ते पर. खाने में चावल था, सांबर था और कुछ चटनियां थीं. साथ में मट्ठा था जो वहां अलग से देते हैं. मुझे सांबर पसंद नहीं आया था क्योंकि उसमें वह सारी सब्जियां थीं, जिनसे हमलोग परहेज रखते थे. उसमें कद्दू था, सहजन था, बैगन था. चटनियां तीन तरह की थीं. एक तो लाल चटनी थी, सफेद नारियल की चटनी थी और एक सूखी चटनी थी. मैंने पूरा चावल उन चटनियों के साथ ही खा लिया. इसी तरह बस्तर के हाट-बाजार की घटना है, वहां चींटियां होती हैं. लाल चीटियां, उनकी वहां चटनी बनाई जाती है. आदिवासी उन्हें बहुत चाव से खाते हैं.

चंचल ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहा कि यह विषय बहुत अच्छा है. चटनी का रिश्ता शरीर से है. शरीर में दो तत्व बहुत जरूरी हैं. ये दो तत्व मुतवातिर बनी रहती हैं. एक है पानी और दूसरा है नमक और कोई भी चटनी ऐसी नहीं बनी है जिसमें पानी और नमक न हो. किसी न किसी तरह से दोनों होते ही हैं चटनी में. इसलिए इसका नाम चटनी पड़ा है और चटनी खाया नहीं, चाटा जाता है. इसका रिश्ता जीभ से है. मजेदार बात यह है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में चले जाएं चटनी मिलेगी किसी न किसी रूप में, नाम भले उसका अलग हो सकता है. क्योंकि शरीर के लिए जिस तरह आक्सीजन की जरूरत होती है तो खाने के लिए नमक जरूरी होता है. जहां नमक की कमी होगी वहां चटनी को सब्सटीच्यूट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. तो दुनिया में जहां भी आप जाएंगे, चटनी की जरूरत आपको महसूस होती है. चाहे सॉस हो या किसी और रूप में, वह चटनी आपको मिलती रहती है. गांव में चटनी का रिवाज बहुत ही दिलचस्प है. इसके लिए बहुत कुछ करना नहीं पड़ता. कई बार तो हाथ पर ही मल कर चटनी तैयार कर ली जाती है. चटनी के स्वाद में तीखापन जब तक न हो या नमक अधिक न हो तब तक वह चटनी होती ही नहीं है. चटनी एक तरह से सब्सटीच्यूट है. मिसाल के तौर पर धनिया की चटनी, उसमें अगर नमक और तीखा कम कर दिया तो वह एक तरह से साग हो गया. कई जगहों पर आलू की चटनी मिलती है. कई जगह अलग-अलग ढंग से बनती है. चटनी दाल की भी बनती है और फल की भी बनती है.

पूर्णिमा अरुण ने चर्चा को आगे बढ़ाया और कहा कि यह सही है कि चटनी के बिना खाना अधूरा रहता है क्योंकि हमारी थाली में खाना आज का ही पका हुआ रहता है. रोटी भी पकी होती है, सब्जी भी पकी होती है और दाल-चावल भी पकी होती है. इस पकाने में पोषक तत्व जो कम हो जाते हैं उसकी भरपाई चटनी करती है. ज्यादातर चटनी कच्ची होती है. कच्ची का मतलब, धनिया, मिर्च, पुदीना यानी कच्चा सामना पीसा चटनी बनाने के लिए तो उसमें जो पोषक तत्व है वह बने रहते हैं. वे खत्म नहीं होते कच्चे रहने की वजह से. तो वह हमें मिल जाते हैं चटनी के मार्फत. अन्नया खरे ने बताया कि होटलों में चटनी का प्रचलन है. होटलों व रेस्तरां में चटनी इस्तेमाल की जाती है, चाहे वह पुदीने की चटनी हो, हरे धनिया की चटनी हो या मीठी चटनी हो. यह सारी चटनियां हर रेस्तरां, हर होटल में मिलेंगी. हमारे यहां तंदूर सेक्शन में तंदूरी खाने में पुदीने की चटनी सर्व करते हैं. चाहे कोई भी तंदूरी डिश हो उसके साथ प्याज और पुदीने की चटनी साथ में जाती है. दक्षिण भारतीय सेक्शन में तो चटनियां ही चटनियां होती हैं. डोसे या बड़े के साथ तीन तरह की चटनी दी जाती है. एक लाल चटनी होती है जो मूंगफली और टमाटर के साथ, एक ग्रीन चटनी होती है जो नारियल, धनिया व हरी मिर्च के साथ और एक सफेद चटनी जो सिर्फ नारियल की होती है. चाट के साथ मीठी चटनियां दी जाती हैं. चंचल ने कहा चटनी मौसम के हिसाब से भी बनाई जाती है और यह अकेले नहीं खाई जा सकती है. चटनी किस चीज के साथ खाई जा रही है यह भी समझना होगा. यानी व्यंजन का चयन चटनियों के हिसाब से होना चाहिए, जैसे कबाब के साथ मीठी चटनी नहीं चल सकती. भोजन के साथ यह बड़ा सवाल होता है कि आप किस चीज के साथ खा रहे हैं. आलोक जोशी ने कहा कि स्वाद तंतु जीव में कहां है, बचपन में बायलोजी में हम पढ़ते थे कि आपके जीभ के किस हिस्से में स्वाद का कौन से तंतु होता है. इसका इस्तेमाल प्रैक्टिकल मैं करता था, कड़वी दवाई खानी होती थी तो जीभ के बीच में सबसे कम स्वाद के तंतु होते तो कड़वी दवा के बीच में रख कर पानी से निगल लें तो कड़वाहट पता नहीं चलता. लेकिन यह आपको मालूम है कि जीभ के किस हिस्से पर कौन से मजे हैं तो स्वाद का मजा दोगुना हो जाएगा.

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