किसानों ने एक बार फिर केंद्र सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। 12 सूत्रीय मांगों को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले 26 किसान संगठन 12 फरवरी को चंडीगढ़ में एकत्र होंगे। केंद्रीय मंत्रियों पीयूष गोयल, अर्जुन मुंडा और नित्यानंद राय से मांगों को लेकर बातचीत होगी। कोई निष्कर्ष न निकलने पर 13 फरवरी को किसान दिल्ली की ओर कूच करेंगे। 16 फरवरी को भारत बंद का एलान किया गया है। मांगें पूरी न होने पर एक बार फिर दिल्ली सहित देश के अलग-अलग स्थानों पर राष्ट्रीय राजमार्गों को बंद करने की तैयारी है।
लेकिन किसानों की मांगें क्या हैं, और क्या उन्हें पूरा किया जा सकता है? मामले से जुड़े एक वरिष्ठ नेता ने अमर उजाला को बताया है कि किसानों की मांगों में कई मांगें ऐसी हैं, जिन्हें तत्काल पूरा किया जाना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य और भूमि अधिग्रहण पर किसानों की शंकाओं का तत्काल समाधान होना चाहिए। लेकिन उनकी कई मांगें ऐसी हैं, जिसे पूरा करना लगभग असंभव है। माना जा रहा है कि मांगों में इन मुद्दों को शामिल कर वार्ता को हर हाल में विफल होने का रास्ता तैयार कर दिया गया है। लखीमपुर हिंसा में कुछ बड़े नेताओं को जबरदस्ती दोषी ठहराने की मांग ऐसी ही है, जिसे केंद्र सरकार किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकती। ऐसे में वार्ता असफल होगी और केंद्र-किसानों दोनों की समस्या बढ़ेगी। ऐसे में इस मामले का क्या हल निकल सकता है? लेकिन यह भी तय है कि यदि किसान और केंद्र सरकार सही सोच के साथ एक बातचीत की टेबल पर बैठें, तो हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। इससे किसानों-श्रमिकों को मजबूती दी जा सकती है तो देश की कई समस्याओं का समाधान भी निकल सकता है।
किसानों की मांग और उन्हें पूरा करने का रास्ता-
न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की मांग
1- किसानों की सबसे बड़ी मांग है कि उन्हें सभी फसलों पर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया जाए। केंद्र सरकार का दावा है कि वह प्रमुख फसलों को उत्पादन मूल्य पर 50 फीसदी का लाभ देते हुए फसलों की खरीद कर रही है। लेकिन किसान भूमि का किराया शामिल करते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात कर रहे हैं। कृषि मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह से एमएसपी नहीं दी जा सकती।
गेहूं-धान पर एमएसपी देने का लाभ यह हुआ है कि किसानों ने जमकर गेहूं-धान बोया, जिससे उनका उत्पादन बढ़ा है। लेकिन इसका नुकसान यह हुआ कि किसानों ने दूसरी फसलें बोना बंद कर दिया। इससे दूसरी आवश्यक फसलों की कमी हो गई। केंद्र सरकार चाहती है कि किसान पारंपरिक खेती की बजाय बाजार की आवश्यकताओं को समझते हुए फसलें अपनाएं और लाभ कमाएं। कई स्थानों पर नई किस्म की फसलों को लाभकारी बनाया जा रहा है। इसके जरिए किसान लाखों रुपये प्रति वर्ष की कमाई भी कर रहे हैं।
कर्जमाफी का तरीका
2- किसानों का कहना है कि यदि उद्योगपतियों का लाखों करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया जा सकता है, तो किसानों का क्यों नहीं। लेकिन सरकार का पक्ष है कि पूरे देश के किसानों का कुल कर्ज बहुत ज्यादा है। पूरे कर्ज की माफी करना संभव नहीं है। इससे गलत परंपरा भी पैदा होगी। किसान कर्ज लेकर नहीं चुकाएंगे और देश की अर्थव्यवस्था बुरे दौर में फंस जाएगी। बीच का रास्ता अपनाकर इस मामले का हल निकाला जा सकता है। किसानों के कर्ज का कुछ हिस्सा माफ किया जा सकता है तो कुछ को आसान किस्तों में वापस करने का विकल्प सुझाया जा सकता है।
3- किसान भूमि अधिग्रहण कानून बदलकर भूमि लेने के लिए किसानों की सहमति अनिवार्य करने और बाजार मूल्य से चार गुना मूल्य निश्चित करने की मांग कर रहे हैं। इस मामले में भी दोनों पक्षों में सहमति बन सकती है। एक क्षेत्र के 80-90 फीसदी किसानों के सहमत होने पर सबकी भूमि बाजार दर से अधिक मूल्य पर अधिग्रहित करने की राह बनाई जा सकती है।
लखीमपुर खीरी कांड
4- किसान लखीमपुर कांड में कथित तौर पर शामिल कुछ नेताओं के गिरफ्तारी और उन्हें सजा दिए जाने की मांग कर रहे हैं। इसमें कुछ ऐसे लोगों के नाम भी हैं, जो न तो घटनास्थल पर थे और न ही उनकी कोई संलिप्तता सामने आई है। लेकिन किसानों को केवल जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने के आश्वासन पर सहमत किया जा सकता है।
किसानों की मांग किसानों पर दर्ज सभी मुकदमे वापस लेने, आंदोलन में मृत किसानों के परिवार में एक-एक को सरकारी नौकरी और मुआवजा दिए जाने की मांग शामिल है। चूंकि केंद्र सरकार ने भी इसमें से कुछ मांगों को पूरा करने का वादा किया था। माना जा रहा है कि इस पर भी बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए।
खेती को मनरेगा से जोड़ें
5- किसान खेती को मनरेगा से जोड़ने, उन्हें न्यूनतम 700 रुपये प्रतिदिन की दिहाड़ी देने और वर्ष में 200 दिन न्यूनतम रोजगार देने का लिखित आश्वासन चाहते हैं। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जब खेती में 300-400 रुपये में पूरे दिन के लिए श्रमिक उपलब्ध होते हैं, 700 रुपये प्रतिदिन की मांग अव्यावहारिक है। मनरेगा में भी पूरे 100 दिन का काम नहीं मांगा जा रहा है, ऐसे में 200 दिन निश्चित करने की बात भी अव्यावहारिक है। कई राज्य मनरेगा के अपने पूरे फंड का भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में किसानों की मांगें वास्तविकता के धरातल पर नहीं हैं।
राज्यों की भूमिका बढ़ाएं
कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि किसानों को इसका पूरा गणित समझना होगा। कृषि कार्यों को मनरेगा से जोड़ने पर अन्य कार्यों के लिए मनरेगा श्रमिकों की कमी हो सकती है। हालांकि, इसे किसानी से जोड़ने पर किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकती है। इसमें राज्यों की भूमिका बढ़ाकर किसानों को आर्थिक लाभ देने और केंद्र पर अतिरिक्त भार देने से भी बचने की राह निकाली जा सकती है।
मांग अनुचित
6- विश्व व्यापार संगठन के समझौतों से पीछे हटना किसानों की बड़ी मांग है। जबकि विश्व व्यापार व्यवस्था से हटना अब केंद्र के लिए भी संभव नहीं है। इसका देश के अनाज उत्पादन, विश्व बाजार में बेचने की व्यवस्था और आवश्यक फसलों की अंतरराष्ट्रीय खरीद पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। केंद्र सरकार हर स्थिति को समझते हुए कोई समझौता देशहित में करती है। ऐसे में सभी पक्षों पर विचार किए बिना किसानों की यह मांग अव्यावहारिक मानी जा रही है। हालांकि, सभी पहलुओं को समझते हुए इस पर किसानों की शंकाओं का समाधान किया जा सकता है।
किसानों-मजदूरों को पेंशन
7- किसानों-खेतिहर मजदूरों को पेंशन देना किसानों की एक प्रमुख मांग है। केंद्र सरकार पहले ही 8.12 करोड़ किसानों को प्रतिवर्ष 6000 रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान कर रही है। इसी प्रकार श्रमिकों के लिए भी हर साल आर्थिक सहायता सुनिश्चित कर उन्हें मजबूती दी जा सकती है। पेंशन की राशि पर बातचीत कर एक उचित दर पर सहमति बन सकती है। लेकिन किसानों-मजदूरों को केंद्रीय कर्मचारियों की तर्ज पर मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण सुविधायुक्त इलाज, उनके बच्चों को शिक्षा देकर उनकी ज्यादा बड़ी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यदि किसानों को बेहतर सुविधाएं देकर उनका जीवन आसान बनाया जा सके, उनके बच्चों को कौशल प्रशिक्षण देकर बेहतर शिक्षित युवा बनाया जा सके तो इससे किसानों के साथ-साथ देश की कई बड़ी समस्याओं का भी समाधान किया जा सकता है।
क्यों हो रहा आंदोलन
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह ने अमर उजाला से कहा कि पिछले आंदोलन के समय केंद्र सरकार ने तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने के वादा किया था, जिसे निभा दिया गया। लेकिन उसके साथ-साथ एमएसपी पर कमेटी गठित कर शीघ्र निर्णय लेने का वादा किया था। आंदोलन को समाप्त हुए दो वर्ष का समय हो गया है, लेकिन सरकार ने अपना यह वादा नहीं निभाया है, इसलिए किसानों की नाराजगी सही है। केंद्र सरकार को किसानों से मिलकर इस समस्या का समाधान निकालना चाहिए।
किसानों की परेशानी समझे सरकार
किसान नेता राघवेंद्र तिवारी ने कहा कि आज की महंगाई को देखते हुए किसानों की आय बेहद कम हो गई है। सरकार विभिन्न क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिए विशेष पैकेज देती है, लेकिन कृषि को बचाने की बजाय उद्योगपतियों को किसानों की जमीन लेने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। उन्होंने कहा कि यदि हर हाथ को रोजगार देना है और गांवों से पलायन को रोकना है, तो कृषि को लाभपरक उद्योग के रूप में बदलना होगा। सरकार को इसके लिए किसानों के साथ मिल-बैठकर समाधान निकालना चाहिए।