अग्नि आलोक

*राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य*

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*1. राम नाम पर लूट है*

कौन जानता था कि ये राम विरोधी इतने गिर जाएंगे। बताइए, पहले मोदी जी का विरोध करते-करते, राम का विरोध करने लगे। पर अब तो ये राम तो राम, रामकृपा का भी विरोध करने तक चले गए हैं। कहते हैं कि राम मंदिर बनने से पहले, राम की नगरी में जमीनों की खरीद-बिक्री में जो करोड़ों-अरबों रुपया बनाया गया है, वह तो राम के नाम पर ठगी है। राम के नाम पर ठगी यानी राम के साथ ठगी। यह तो राम के घर में लूट है।

हम पूछते हैं कि राम भक्तों के लिए लूट और ठगी जैसे अपराध विज्ञान के शब्दों के प्रयोग की इजाजत कैसेे दी जा रही है? डैमोक्रेसी का ये मतलब थोड़े ही है कि जो बाकी सब के लिए लूट और ठगी है, उसी को राम भक्तों के लिए भी लूट और ठगी मान लिया जाएगा। हर्गिज नहीं। वर्ना इस महान देश के बच्चे क्या अब तक बाबरी मस्जिद के गिरने को, बाबरी मस्जिद का गिरना ही मान और बता नहीं रहे होते। पर मोदी जी ने ऐसा होने दिया क्या? बच्चों को पढ़ाया जा रहा है कि बाबरी मस्जिद तो कभी थी ही नहीं। जब मस्जिद थी ही नहीं, तो मस्जिद के गिरने-गिराने की बात ही कहां से आयी? बस जमीन थी और तीन गुंबद थे। और राम जी के भव्य मंदिर के लिए जमीन की जरूरत थी। 

भव्य मंदिर के लिए जमीन तरह-तरह से आयी — जीत कर आयी, खरीद कर आयी, धक्के से आयी। गरीबों के मंदिरों से आयी, गरीबों के घरों से आयी, गरीबों की दूकानों से आयी, गरीब गुंबदों से आयी। जमीन कैसे भी आयी, राम जी के काम के लिए आयी। और राम जी का काम तो राम जी का काम है, उसमें गलत तरीका क्या और सही तरीका क्या? सही-गलत के चक्कर में पड़े रहते, तो राम जी कबीर के अंदाज में आज भी बाजार में खड़े होते — लिए लुकाठी हाथ, कि मैं घर जारों तास का, जो चले हमारे साथ!

खैर! अगर राम जी के काज में भक्तों ने चार पैसे कमा भी लिए, तो क्या हुआ? राम जी के काज में उनके भक्त पैसे नहीं कमाएंगे, तो क्या उनके विरोधी पैसे कमाएंगे। अयोध्या में नहीं कमाएंगे, तो क्या काबुल में कमाएंगे? इसे लूट नहीं राम जी की कृपा कहिए। फिर बेशक, कृपा की लूूट कहिए — राम नाम पर लूट!

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*2. पब्लिक पगला गयी है!*

ये पब्लिक सच्ची में ही पगला गयी है क्या? बताइए, मोदी जी ने कितने अरमानों से 2047 तक विकसित भारत बनाने का प्रोग्राम बनाया था। चार सौ पार का टार्गेट बनाया था। पर पब्लिक ने क्या किया? मोदी जी की पार्टी को न तो जीतों में छोड़ा और न साफ हराया ; बेचारों को दो सौ चालीस पर ही अटका दिया। वह तो कह लो कि ऐसे वक्त के लिए ही मोशा ने चाणक्यगीरी कर के छोटी-बड़ी, अलग-अलग साइज की तीन-चार बैसाखियां जुगाड़ रखी थीं, सो काम आ गयीं, वर्ना इस नाशुक्री पब्लिक ने तो दिल्ली की गद्दी से बेचारों का बोरिया-बिस्तरा ही बंधवा दिया था। मोदी जी ने कैसे जहर का घूंट पीकर मोदी-मोदी करना छोडक़र, एनडीए-एनडीए की रट लगाने की प्रैक्टिस की है, उनका दिल ही जानता है। फिर भी बार-बार कहकर उन्होंने अपने दिल को किसी तरह से समझा लिया था कि जो जीता, वही सिकंदर।

सच पूछिए तो उन्होंने धीरे-धीरे लोगों को यह समझाना भी शुरू कर दिया था कि पब्लिक का वह मतलब बिल्कुल नहीं था, जो उनके विरोधियों ने चुनाव में पब्लिक को भरमाकर उससे करवा लिया था और फिर जो पब्लिक के करने का उन्होंने हल्ला मचा दिया था। और यह भी कि अब पब्लिक तो खुद ही पछता रही थी कि उससे कैसी गलती हो गयी? उसके हाथों से कैसा अधर्म हो गया ; गोहत्या/ब्रह्महत्या की श्रेणी का पाप होते-होते रह गया। और कि पब्लिक अब बेताबी से इंतजार कर रही है कि कब मौका पाए और मोदी जी के सिर पर फिर से कामयाबी का सेहरा बांधकर, अपनी गलती को मिटाए, वगैरह, वगैरह। पर यहांं तो पब्लिक का कुछ और ही खेल चल रहा है। संसद वाले चुनाव की गलती सुधारने के बजाए, उसने तो विधानसभा उपचुनाव में अपनी गलती कई गुना बढ़ा दी है और मोदी जी को ना जीत, ना हार की पिछली दुविधा से निकालकर, बाकायदा हार थमा दी है। तेरह में से कुल दो सीटें — मोदी जी ओढ़ें या बिछाएं और अपनी अजेयता की कमीज, किस खूंटी पर लटकाएं!

और सिर्फ किन्हीं भी सीटों की बात होती, तो मोदी जी फिर भी दिल को तसल्ली दे लेते। जब तक चुनाव है, तब तक मुकाबला हो सकता है और मुकाबले में कभी हार भी हो ही सकती है। पर यहां तो ऐसी-वैसी नहीं, देवनगरियों की पब्लिक तक ने आंखें फेरनी शुरू कर दी हैं। पहले, राम जी की नगरी अयोध्या के वासियों ने मुंह फेर लिया और रामलला को लाने वालों को एक मामूली वोट तक देने से इंकार कर दिया। और तो और, शिव की नगरी के वासियों ने भी शुरू में तो झटका दे ही दिया था, पर आखिरी वक्त पर गंगा मां के दत्तक पुत्र को बख्श दिया। पर इस बार फिर, बाकी दस सीटों पर हराया सो हराया, पर बद्री धाम के वासियों ने भी मोदी पार्टी को हरा दिया। पब्लिक तक ही बात रहती, तो फिर भी कुछ न कुछ कर के बहला लेेते, पर अगर ये देवता लोग भी अपोजीशन वालों के साथ में मिल जाएंगे, तो मोदी जी पब्लिक को क्या कहकर समझाएंगे! मान लीजिए, उंगली पकडक़र लाने वाली बात का रामलला ने बुरा मान ही लिया और अयोध्या में हरा ही दिया, तो अब बद्रीनाथ में किसलिए हरवा दिया? क्या उनके सिर्फ नान-बायोलॉजीकल और ईश्वर का दूत होने की जलन से? मोदी जी को देवताओं से ऐसी उम्मीद तो नहीं थी।

खैर! अगर पब्लिक यूं ही पगलाई रही, तो मोदी जी के पास इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं रह जाएगा कि इस पब्लिक को ही भंग कर दें और अपने लिए एक नयी सच्ची हिंदू, सच्ची राष्ट्रवादी पब्लिक चुन लें। और फिर जनतंत्र हत्या दिवस चाहे हर रोज मनाएं!         

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*3. गजब मानसून ऑफर!*

भई बाजार भी कमाल की चीज है। ढंग से मानसून आया नहीं, मानसून ऑफर आने शुरू हो जाते हैं। टीशर्ट के साथ एक और टीशर्ट फ्री। गंजी के साथ रूमाल फ्री। चाय पत्ती के साथ चीनी, दाल के साथ आटा, तेल के साथ नमक फ्री, वगैरह, वगैरह। कभी-कभी मोटर साइकिल के साथ, सौ लीटर पैट्रोल भी फ्री। पर इस मानसून में तो कमाल ही हो गया। चुनाव में यूपी में जरा सी आफत की बारिश क्या आ गयी, इन इंडिया वालों ने सरकार पर मानसून ऑफर निकाल दिया — सौ ले आओ, सरकार ले जाओ! सौ पर बहुमत तक की यात्रा फ्री!

वैसे अपने बाबाजी ऐसे मानसून ऑफर-वॉफर की परवाह करने वालों में नहीं हैं। इसलिए नहीं कि उनका मन भी फकीरी में लगा है, जो कभी भी अपना झोला-झंडा उठाकर गोरखधाम चल देंगे! इसलिए कि वह इस मानसून ऑफर की असलियत भी अच्छी तरह से जानते हैं। अच्छी तरह समझते हैं कि देने वाले ने ऑफर तो दिया है, लेकिन यह पक्का जान के दिया है कि इस ऑफर का कोई टेकर नहीं आने वाला। न बाबा आएंगे, न घंटा बजेगा। दस-बीस की बात होती तो बात दूसरी थी, सौ तो भगवा पार्टी वाले भी कभी नहीं ला पाए, जिनकी इस फन में महारत है। न कोई सौ विधायक ला पाएगा और न सरकार ले जा पाएगा। ये मानसून ऑफर तो बस पद-नाम में से डिप्टी हटवाने के उतावलों को, दूर-दूर से सीएम की गद्दी दिखाकर तरसाएगा।   

फिर भी इतना तो कहना पड़ेगा कि इस मानसून में बारिश वाकई आफत की आयी है। आफत भी ऐसी कि जिसे देखो, आफत की जिम्मेदारी का ठीकरा किसी और के सिर पर फोड़ने के लिए जोर आजमाइश कर रहा है। बाबाजी के खल्वाट को भी कोई नहीं बख्श रहा है। कोई कह रहा है कि छत को ज्यादा ही पक्का मानकर बैठे रहे, बारिश के जरूरी इंतजामात नहीं किए, इसलिए आफत आयी। तो कोई कह रहा है कि इसमें छत की कोई गलती नहीं है, मानसून से पहले छत की मरम्मत नहीं करायी, इसलिए आफत आयी। और कोई कह रहा है कि मानसून का नाम बदलकर शरद ऋतु कर दिया और मान लिया कि अब बारिश नहीं आएगी, इसलिए आफत की बारिश आयी। खैर! इतना तो सभी मान रहे हैं कि इस बार आफत की बारिश आयी और बेचारों की सारी अकड़-फूं बहाकर ले गयी।                                                                            

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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