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वैदिक दर्शन : शराब (नशा), दाम्पत्य और मोक्ष 

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     डॉ. विकास मानव 

शराब : शृ (हिंसार्थे) + अच्= शर, मारक वस्तु वा पदार्थ। अप् शब्द जल वाचक + जस्= अपः नीचे की ओर जाने वाला सबके भीतर प्रवेश करने वाला, रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाला द्रव विशेष, पानी।

 शर+ अपः =शरापः= शराब

    (प्→ब्, १→३ सूत्र से)

शराब का अर्थ है, वह जल जो किसी को मारे, खण्ड-खण्ड करे, नष्ट करे। शराब के भीतर जो गुण वा वस्तु अन्तर्निहित है, उसका नाम है-नशा नश् (नश्यति / नाशयति क्विप् ,क + टाप् = नशा, जो नाश वा नष्ट करता है, अन्तर्धान वा लुप्त करता है तथा स्वयं उड़ जाता है अदृश्य रहता है, उसे नशा नाम दिया गया है। 

   शराब में नशा होता है। जिसमें नशा हो, वह सब शराब है। हर वस्तु में नशा प्रच्छन्न रूप में रहता है। 

 अन्न ब्रह्म है। अन्न में नशा है। अन्न को सड़ाकर शराब बनायी जाती है। अन्न के विकिण्वन से बनी हुई शराब मद उत्पन्न करने से मदिरा कही जाती है। जो खाया जाय वह अन्न है। फल भी अन्न है। अंगूर/ द्राक्षादि फलों से शराब बनती है। 

   मनुष्य भी शराब है। यौवन प्राप्त होने पर इसमें नशा का प्रादुर्भाव होता है। तरुण, तरुणी के देह की शराब पीता है तो युवती, युवक के शरीर की नशा में धुत्त रहती है। इस प्रकार सर्वत्र नशा का साम्राज्य है।

    शब्द का नशा कान से स्पर्श का नशा त्वचा से रूप का नशा आँख से, रस का नशा जिहा से, गन्ध का नशा नाक से ग्राह्य है। इन पाँचों की नशा एक साथ मन से ग्राह्य है। मन तो कभी अशक्त होता ही नहीं, ज्ञानेन्द्रियाँ अशक्त होती हैं। अतएव यह मन सदैव नशा करता रहता है। 

    मन से स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पीते हैं, कितनों को पीना चाहते हैं। दोनों एक दूसरे के लिये शराब हैं। शराब भी शराबी को पीती है, शराबी तो शराब को पीता ही है। 

     शराब के शुभ और अशुभ दो प्रभाव हैं। जिस शराब के पीने से विवेक का नाश हो, वह त्याज्य है। जिसके पीने से कुविचारों का नाश हो, वह ग्राह्य है। पार्थिव शराब में ये दोनों गुण हैं। अल्पमात्रा में यह शुभ तथा अधिक मात्रा में पीने से अशुभ प्रभाववाली कही गई है। 

    जो अपार्थिव शराब है, उसका प्रभाव शुभ ही शुभ है। जितना अधिक पिया जाय, उतना ही शुभ है। ईस नाम ही दिव्य शराब है। प्रारंभ में इसे कान एवं जिहा से पिया जाता है। आगे चलकर इसे मन से पीते रहना चाहिये। 

संसार के सभी समाजों में विवाह संस्कार का प्रावधान है। गृहस्थाश्रम का यह प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार जितना ही अच्छा एवं दृढ़ हो उतना ही अच्छा एवं दृढ़ गृहस्थ जीवन होता है। इस द्वार का निर्माण मानवधर्म की भूमि पर काम (सम्भोग= नरनारी द्वारा आनंद का समान भोग. नारी को चरमसुख से बेसुध न करना उसका शोषण- बलात्कार करना है.) की ईंटों से होना चाहिये। इसमें अर्थ काष्ठ का कुच्छ कपाट हो तथा मोक्ष की एक सुन्दर अर्गला हो। गृहस्थाश्रम का ऐसा सिंहद्वार किसी-किसी को मिलता है।

  सर्वार्था गृहिणो नित्यं सिध्यन्ति च फलन्ति च। 

अतस्तथाविस्सद्वै सततं ब्रह्म चिन्तयेत्॥

 कलौ तु केवलं वच्मि गार्हस्थयं ह्युत्तमोत्तमम्। 

ततरसन्नेव यलेन कृतकृत्यो भवेदिति॥ 

     ~मार्कण्डेय पुराण 

महादानों में कन्यादान की गणना होती है। कन्यादान से गृहस्थ को श्रेय मिलता है। १६ महादान हैं :

 गावः सुवर्णरजते रत्नानि च सरस्वति।

 तिला: कंन्या गजाश्वाश्च शय्या वस्त्रं तथा मही॥ 

धान्यं पयश्च छत्र च गृहं चोपस्करान्वितम्।

 एतान्येव तु चोक्तानि महादानानि षोडश।

  ~मार्कण्डेय पुराण 

 केवल दस वर्ष तक की वय वाली नारी कन्या है. उसके बाद देहिक न सही, मानसिक सेक्स में वह लिप्त हो जाती है : अब तो दैहिक सेक्स में भी. अकन्या का दान व्यर्थ है। प्राचीन काल में खिलने से पहले कन्या विवाह का विधान इसलिये था की वह दुराचारी होने से बच जाती थी.

    दशवर्षात् परं कन्यां कृच्छेपि न विवाहयेत्। 

दशवर्षात् परं नारी कीर्तिता स्याद्रजस्वला॥

    ~लौगाक्षिस्मृति 

इतनी अल्पवय में नारी का विवाह आज के युगधर्म के अनुकूल नहीं है। इसे बाल विवाह समझा जाता है और इस पर वैधानिक प्रतिबन्ध भी है। जब कि स्मृति वाक्य की सत्यता एवं उपादेयता में कोई सन्देह नहीं है। सभी स्मृतियाँ इसका एकस्वर से समर्थन करती हैं। इसमें दूरगामी लाभ एवं भूरि कल्याण है। इससे दाम्पत्यकलह/ पतिविरोध/पति-पत्नी विच्छेद नहीं होता। यह तर्कयुक्त तथ्य है। इस पर मैं दृढ़ हूँ। परन्तु युगधर्म से लोहा लेना ठीक नहीं। कलियुग को नमस्कार करते हुए आगे बढ़ना है। 

    कन्या का विवाह समवर्षो में विषमवर्ष वाले वर के साथ करना चाहिये। सम संख्याएँ सौम्य वा स्त्री संज्ञक होती हैं। विषम संख्याएँ क्रूर वा पुरुष संज्ञक हैं। इन वर्षों का इन पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है, जीवन सुखी रहता है। संख्या ८ सम है किन्तु अशुभ भाव मृत्यु की द्योतक है। संख्या ९ विषम है यद्यपि शुभ भाव धर्म की द्योतक है। इन वर्षों में कन्यादान वर्जित है। 

     संख्या १० सम है तथा शुभ भाव कर्म वा यज्ञ की प्रतीक है। अतः कन्यादान इसमें प्रशस्त है। संख्या ११ विषम है। यह कन्यादानार्थ अयुक्त है। संख्या १२ सम है। तथा दान भाव द्वादश की प्रतीक है, इसका स्वामी गुरु पति का कारक है। अतः १२ वें में कन्यादान उचित है। 

     विवाह के सभी नियम मुहूर्तादि कंन्या पर लागू होते हैं। १२ वर्ष का एक चक्र होता है। इसके बाद स्मृत्योक्त विधानों की अपेक्षा नहीं रहती। जिस में लाभ हो वह कर्म किया जाय। युग के सापेक्ष मैं स्मृति धर्म का समर्थन करता हूँ। 

     विद्वान को चाहिये कि वह अपचारिणी स्त्री से दूर रहे, पापी शिष्य को त्याग दे. अपचारिणी स्त्री पति को ले डूबती है। पापी शिष्य गुरू को घोर कष्ट देता है। 

हर स्त्री पत्नी नहीं हो सकती। पत्नी पवित्र शब्द है। इसे पति का स्त्री-लिंग (पति डीप, नुक पत्नी) कहना अनुचित है।

   पाति रक्षति पा + इति = पति. पति अर्थात् स्वामी, किन्तु पत्नी का अर्थ स्वामिनी नहीं है। 

   पति + नी (नी + क्विप्) = पतिनी शब्द का अपभ्रंश है, पत्नी। नी का अर्थ है, पथ प्रदर्शक अपणी आगे-आगे चलने वाला। इस प्रकार पत्नी का अर्थ है-पति को साथ लेकर धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति में उसके आगे आगे चलने वाली स्त्री।

     पत्नी के चार रूप हैं- धर्म पत्नी, अर्थ पत्नी, काम पत्नी, मोक्ष पत्नी। जिस स्त्री में ये चारों विशेषताएँ हैं, वह पूर्ण पत्नी है। 

     दशरथ की. पत्नी कैकेयी पूर्ण पत्नी थी। उसने देव दानव युद्ध में देवताओं का पक्ष लेकर लड़ रहे अपने पति दशरथ के साथ रह कर रथ संचालन करती हुई धर्म पत्नी का रूप प्रस्तुत किया। रथ के नष्ट हो जाने पर उस रथ को पुननिर्मित कर उन्हें विजय दिलाकर उनका अर्थ सिद्ध किया। इसलिये वह अर्थ पत्नी हुई। उनके काम भाव को तुष्ट करते हुए उसने भरत जैसा महान् पुत्र दिया। इसलिये कामपत्नी हुई। अन्त में उसने अपने प्रति अनुरक्त दशरथ को फटकार कर उनका मोह भंग किया जिससे वे राम का नाम लेते हुए मोक्ष पद प्राप्त किये। इस प्रकार वह मोक्ष पत्नी हुई।

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