चुनाव आयोग चाहे तो पूरे देश में एक दिन में हो सकता मतदान
रीवा। समता संपर्क अभियान के राष्ट्रीय संयोजक अजय खरे ने कहा है कि देश में हो रहे 18 वीं लोकसभा चुनाव को सात चरणों में काफी लम्बी अवधि तक खींचा जा रहा है। सन 2019 में हुए 17 वीं लोकसभा के चुनाव भी सात चरणों में हुए थे तब चुनाव पूरा कराने में भारत निर्वाचन आयोग को 75 दिन लगे थे और इस बार 2024 में चुनाव की कुछ अवधि 6 दिन और बढ़ाकर 81 दिन है।
श्री खरे ने बताया कि देश में आपातकाल के दौरान संपन्न हुए छठी लोकसभा के चुनाव दो माह अवधि में पूरे करा लिए गए थे। उस समय संचार एवं आवागमन के संसाधन भी काफी कम थे। पूरे देश में मतपत्र के जरिए मतदान होता था। श्री खरे ने कहा कि 18 जनवरी 1977 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के जरिए देश में आम चुनाव कराने की घोषणा की। इस दौरान मीसा के अंतर्गत निरुद्ध रखे गए राजनीतिक बंदियों को जेल से रिहा किया जाने लगा। मार्च 1977 में लोकसभा चुनाव सम्पन्न कराए गए। लोकसभा की 542 सीटों का मतदान 16 मार्च 1977 से लेकर 19 मार्च 1977 के बीच महज़ 4 दिन में संपन्न हो गया। मतगणना 20 मार्च 1977 को शुरू हुई। 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटा लिया गया। 22 मार्च 1977 तक चुनाव के सभी नतीजे आ गए थे।
श्री खरे ने कहा कि आज कई चरणों में लंबी अवधि तक मतदान प्रक्रिया को बनाए रखने के कारण 4 दिन की जगह मतदान का अंतराल बढ़कर 44 दिन हो गया। लोकसभा के सात चरणों के मतदान में दोहरे मानदंड बेहद आपत्तिजनक हैं। चुनाव आयोग चाहे तो पूरै देश में एक दिन में मतदान करा सकता है लेकिन चुनाव अवधि को जबरिया लम्बा खींचा जा रहा है। लंबे समय तक मतदान कराना बेहद गैर जिम्मेदाराना, अविश्वसनीय, फिजूलखर्च और उबाऊ है। एक तरफ लोकसभा की 26 सीटों वाले गुजरात राज्य में एक ही दिन में चुनाव होंगे वहीं 40 सीटों वाले बिहार राज्य में चुनाव सात चरणों में पूरा होगी। यह बात भारी विसंगति से भरी हुई है। चार राज्यों अरुणाचल प्रदेश सिक्किम उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव भी हो रहे हैं वहीं जम्मू कश्मीर में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव नहीं कराना जबरदस्त विरोधाभास है। चुनाव समय सारणी को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी दौरा कार्यक्रम के अनुसार बनाना सही नहीं है।
लोकतंत्र सेनानी श्री खरे ने कहा कि चुनाव आयोग को सभी प्रत्याशियों को एक नजर से देखना चाहिए। स्टार प्रचारकों को देश के विभिन्न इलाकों में चुनावी दौरा करने का मौका देने के कारण चुनाव की अवधि काफी बढ़ गई है। भारी भरकम चुनावी रैलियां के आयोजन के कारण जबरदस्त फिजूलखर्ची हो रही है। एक एक रैलियों पर होने वाली करोड़ों रुपए की फिजूल खर्ची पर चुनाव आयोग का जरा भी नियंत्रण नहीं है। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों और खास तौर से सत्तारूढ़ दल को दूसरे प्रत्याशियों की तुलना में प्रचार प्रसार की मनमानी छूट मिल जाती है। इन रैलियो के खर्चों को संबंधित पार्टी के प्रत्याशी के खर्चे में नहीं जोड़ा जाता है। चुनाव आयोग ने लोकसभा के प्रत्याशी के लिए 95 लाख रुपए खर्च की सीमा निर्धारित की है। किसी भी रैली का खर्च एक करोड रुपए से कम नहीं होता है। ऐसी स्थिति में चुनाव खर्च जोड़ने पर ऐसे प्रत्याशी को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।