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क्या है धार की भोजशाला के विवाद का इतिहास

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ASI की रिपोर्ट बताती है कि भोजशाला कभी एक महत्वपूर्ण शैक्षिक केंद्र था, जिसे राजा भोज ने स्थापित किया था. बरामद कलाकृतियों से संकेत मिलता है कि वर्तमान संरचना पहले के मंदिरों के कुछ हिस्सों का उपयोग करके बनाई गई थी.ASI की रिपोर्ट आने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई करेगी क्योंकि ASI सर्वेक्षण पर रोक लगाने वाली याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ASI की रिपोर्ट आने के बाद ही शीर्ष अदालत इस मामले में कुछ कहेगी.

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने 15 जुलाई को धार जिले में भोजशाला मंदिर-कमाल मौला मस्जिद परिसर के बारे में अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट मध्य प्रदेश हाई कोर्ट को सौंप दी. इस रिपोर्ट के मुताबिक, वैज्ञानिक जांच में पता चला है कि मौजूदा संरचना में पहले के मंदिरों के अवशेष या चिह्न शामिल हैं.

मार्च 2023 में हाई कोर्ट ने इस परिसर की प्रकृति (मंदिर है या मस्जिद) को स्पष्ट करने और इसके बारे में किसी भी भ्रम को दूर करने के लिए इस सर्वेक्षण का आदेश दिया था. हालिया रिपोर्ट की बारीकियों से पहले समझते हैं कि धार स्थित भोजशाला-कमाल मौला मस्जिद का पूरा विवाद क्या है.

इंडिया टुडे मैगजीन ने अपने 15 जून, 2022 के अंक में ‘मंदिर वापसी आंदोलन’ के नाम से कवर स्टोरी छापी थी. इसके तहत देश की हर उस संरचना के बारे में बात की गई थी जहां मंदिर होने का दावा किया जाता रहा है. अयोध्या, काशी और ज्ञानवापी के अलावा इसी कड़ी में इंडिया टुडे के पत्रकार राहुल नरोन्हा ने मध्य प्रदेश के धार जिला स्थित भोजशाला मंदिर-कमाल मौला मस्जिद परिसर के बारे में एक स्टोरी की थी.इंडिया टुडे की इस रिपोर्ट के मुताबिक, धार जिले में सूफी संत कमालुद्दीन मालवी की 15वीं शताब्दी की दरगाह और इसके बगल में 14वीं शताब्दी की मस्जिद एक सदी से ज्यादा वक्त से विवाद के केंद्र में है. हिंदुओं का दावा है कि यह परिसर वाग्देवी (सरस्वती) का भोजशाला (मंदिर) है. मध्य प्रदेश का पश्चिमी इलाका मालवा क्षेत्र कहलाता है. यह प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र है और धार यहीं स्थित है. यहां जब धार्मिक ध्रुवीकरण की जड़ें गहरी हुईं तो 1990 के दशक के बाद से यह विवाद बढ़ता ही गया.

भोजशाला है क्या?

थोड़ा इतिहास में चलें तो 1903 में ‘भोजशाला’ शब्द का पहली बार जिक्र शिक्षा अधीक्षक के.के. लेले के एक रिसर्च पेपर में आया था. लेले, धार रियासत में तैनात ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट कैप्टन अर्नेस्ट बारनेस की ओर से स्थापित एक पुरातत्व कार्यालय के मुखिया थे. अपने पेपर में लेले ने बताया कि इस स्थान का संबंध 11वीं सदी के राजा भोज से है. हालांकि उनके इस दावे को बाद में गलत बताकर खारिज कर दिया गया.

लेकिन 1909 में मराठा साम्राज्य के अंतर्गत आने वाली धार रियासत, जो अंग्रेजों के शासनकाल में प्रिंसली स्टेट था, ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया और इसमें नमाज पर रोक लगा दी. 1934 में, रियासत ने इसके बाहर एक बोर्ड लगाया जिसमें भोजशाला का जिक्र था. हालांकि इसके अगले साल, 1935 में नमाज फिर से शुरू हुई और 1944 में पहला उर्स भी मनाया गया.

भोज शोध संस्थान के तत्कालीन सचिव दीपेंद्र शर्मा के मुताबिक, “धार राज्य के दीवान ने 1930 के दशक के अंत में राजा के स्वास्थ्य के लिए बस एक दिन के लिए नमाज और दुआ की अनुमति दी थी. मुस्लिम पक्ष तब से भोजशाला में जमा हुआ है.” हालांकि इस दावे का विरोध उन मुसलमानों ने किया है, जिनका परिवार करीब 700 वर्षों से दरगाह की सेवा कर रहा है.

आजादी के बाद 1952 में ASI ने इस विवादित परिसर को अपने कब्जे में ले लिया और नमाज पर फिर से प्रतिबंध लगा दी. इस आदेश के करीब 46 साल बाद, 1998 में जाकर ASI ने मुसलमानों को शुक्रवार को और हिंदुओं को वसंत पंचमी पर पूजा करने की अनुमति दी.

कानून और राजनीति के दांव-पेच में भोजशाला

2000 के दशक की शुरुआत से ही राज्य के अलग-अलग दक्षिणपंथी समूह मस्जिद को बंद करने, इसमें शुक्रवार की नमाज़ पर प्रतिबंध लगाने और भोजशाला परिसर में सरस्वती की मूर्ति स्थापित करने की मांग करने लगे थे. अप्रैल 2003 में, एएसआई ने इसका समाधान करने के लिए एक व्यवस्था की थी जिसके तहत हिंदू मंगलवार को परिसर में पूजा करेंगे जबकि मुसलमान शुक्रवार को वहां नमाज़ अदा करेंगे.

2003 के एएसआई के इस आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी, लेकिन याचिका खारिज हो गई. नब्बे के दशक के बाद से इस विवादित परिसर के इर्द-गिर्द लगातार हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का तनाव बना रहा. भोजशाला की ‘मुक्ति’ 2003 के विधानसभा चुनावों में प्रमुख मुद्दों में से एक थी, जिसमें दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया गया था. भाजपा ने दिग्विजय सरकार पर सांप्रदायिक समस्या पैदा करने का भी आरोप लगाया था.

इसी साल 2003 में पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान, जो उस समय विदिशा से भाजपा सांसद थे, ने लोकसभा में बताया कि मध्य प्रदेश सरकार ने हिंदुओं की भावनाओं को दबाते हुए भोजशाला में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है.

फिर आया 2016. विदिशा के सांसद शिवराज अब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. अभी तक मंगलवार को हिंदू और शुक्रवार को मुसलमान इस परिसर में आराधना कर रहे थे मगर 2016 में जब बसंत पंचमी और शुक्रवार एक ही दिन पड़ गए, तब स्थिति और भी विकट हो गई. हालांकि इससे पहले 2006 और 2013 में भी बसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ी थी, मगर इस मामले ने इतना तूल नहीं पकड़ा था.

2016 में धर्म जागरण मंच (डीजेएम) और विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) जैसे हिंदू कार्यकर्ता समूहों ने रैलियां निकालकर और हिंदुओं से बसंत पंचमी के मौके पर शुक्रवार को मंदिर में आने का आह्वान करके मामले को और भड़का दिया था. इंडिया टुडे की पत्रकार श्रेया बिस्वास के मुताबिक, 12 फरवरी, 2016 को क्षेत्र में 6,000 से अधिक सुरक्षा कर्मियों को तैनात किया गया था. पुलिस और आरएएफ ने धार को एक किले में तब्दील कर दिया था और शहर भर में बैरिकेड्स और सुरक्षा गार्ड तैनात कर दिए थे. किसी तरह इस मामले को मध्य प्रदेश सरकार ने शांत करवाया था.

मुकदमेबाजी का दौर एक बार फिर साल 2022 में 2 मई को शुरू हुआ जब ‘हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस’ ने हाई कोर्ट की इंदौर बेंच में एक याचिका दायर कर मांग की कि केवल हिंदुओं को ही इस परिसर में पूजा-अर्चना की अनुमति दी जाए. याचिका में कहा गया कि धार के पूर्व शासकों ने 1034 ई. में वहां सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की थी और 1857 में इसे अंग्रेज लंदन ले गए थे.

सुनवाई के दौरान हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस ने तर्क दिया था कि मस्जिद का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के दौरान 13वीं और 14वीं शताब्दी के बीच “पहले से निर्मित हिंदू मंदिरों की प्राचीन संरचनाओं को ध्वस्त करने” के बाद किया गया था.

इसी मामले में मार्च 2023 हाई कोर्ट ने ASI को परिसर का गहन सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था. इस आदेश पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर की गई थी मगर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया.

ASI की ताजा रिपोर्ट में क्या मिला?

अब 15 जुलाई को ASI ने अपनी रिपोर्ट में कई ऐतिहासिक कलाकृतियों की खोज के आधार पर विवादित परिसर के मंदिर होने का संकेत दिया है. सर्वेक्षण में कुल 94 मूर्तियां, मूर्तियों के टुकड़े और स्थापत्य के निशान भी मिले हैं. ये मूर्तियां बेसाल्ट, संगमरमर, शिस्ट, मुलायम पत्थर, बलुआ पत्थर और चूना पत्थर से बनी हैं. इनमें गणेश, ब्रह्मा, नरसिंह, भैरव, अन्य देवी-देवताओं, मनुष्यों और जानवरों की आकृतियां हैं.
 
रिपोर्ट में कहा गया है कि मनुष्यों और जानवरों की कई आकृतियों को या तो बिगाड़ दिया गया या उन्हें काटकर हटा दिया गया है, खासकर उन हिस्सों में जहां अब मस्जिद है. मौजूदा ढांचे में पाए गए कई टुकड़ों में संस्कृत और प्राकृत शिलालेख भी मिले हैं, जो साहित्यिक और शैक्षिक गतिविधियों की ओर इशारा करते हैं. एक शिलालेख में परमार वंश के राजा नरवर्मन (जिन्होंने 1094-1133 ईस्वी के बीच शासन किया) का जिक्र है.
 
ASI की रिपोर्ट बताती है कि भोजशाला कभी एक महत्वपूर्ण शैक्षिक केंद्र था, जिसे राजा भोज ने स्थापित किया था. बरामद कलाकृतियों से संकेत मिलता है कि वर्तमान संरचना पहले के मंदिरों के कुछ हिस्सों का उपयोग करके बनाई गई थी.
ASI की रिपोर्ट आने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई करेगी क्योंकि ASI सर्वेक्षण पर रोक लगाने वाली याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ASI की रिपोर्ट आने के बाद ही शीर्ष अदालत इस मामले में कुछ कहेगी.

भोजशाला केंद्र सरकार के अधीन ASI का संरक्षित स्मारक है. आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने इसे लेकर अप्रैल 2003 में एक आदेश भी जारी किया था. इसके अनुसार, हिंदुओं को हर मंगलवार को भोजशाला परिसर के अंदर पूजा करने की अनुमति है, जबकि मुसलमानों को हर शुक्रवार को यहां नमाज अदा करने की इजाजत है. परिसर के हक को लेकर धार्मिक संगठनों में मतभेद होता रहता है. हिंदू संगठन चाहते हैं कि इस साइट का नाम बदलकर सरस्वती सदन हो जाए. इस पूरे विवाद समझने के लिए भोजशाला का इतिहास जानना जरूरी है.

भोजशाला मंदिर का इतिहास

धार जिले की ऑफिशियल वेबसाइट के मुताबिक, भोजशाला मंदिर को राजा भोज ने बनवाया था. राजा भोज परमार वंश के सबसे महान राजा थे, जिन्होंने 1000 से 1055 ईस्वी तक राज किया. इस दौरान उन्होंने साल 1034 में एक महाविद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में भोजशाला नाम से जाना गया. दूर-दूर से छात्र यहां पढ़ने आया करते थे. इसी काॅलेज में देवी सरस्वती का मंदिर भी था. हिंदू धर्म में सरस्वती को ज्ञान की देवी माना जाता है. कहा जाता है कि मंदिर बहुत भव्य था. सरस्वती मंदिर का उल्लेख शाही कवि मदन ने अपने नाटक में भी किया था. नाटक को कोकरपुरमंजरी कहा जाता है और यह अर्जुनवर्मा देव (1299-10 से 1215-18 ई.) के सम्मान में है जिन्हें मदन ने ही पढ़ाया था.

14वीं सदी में मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया. बताया जाता है कि 1305 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर हमला कर दिया था, जिसके बाद से इस जगह की शक्ल बदलती गई. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 1401 ईस्वी में दिलवार खान गौरी ने भोजशाला के एक हिस्से में और 1514 ईस्वी में महमूद शाह खिलजी ने दूसरे हिस्से में मस्जिद बनवा दी. 19वीं शताब्दी में एक बार फिर इस जगह बड़ी घटना हुई. दरअसल, उस समय खुदाई के दौरान सरस्वती देवी के प्रतिमा मिली थी. उस प्रतिमा को अंग्रेज अपने साथ ले गए और फिलहाल वो लंदन संग्रहालय में है. प्रतिमा को भारत वापस लाए जाने की मांग भी की जाती रही है.

मंदिर-मस्जिद विवाद पर क्या कहती है ASI की रिपोर्ट?

आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भोपाल सर्किल की रिपोर्ट में कहा गया है कि मस्जिद के ढांचे में मूल सरस्वती मंदिर की संरचना के प्रमाण मिलते हैं. धार जिले की ऑफिशियल वेबसाइट पर कहा गया है कि विवादित स्थल में ऐसी टाइल मिली हैं जिनमें संस्कृत और प्राकृत भाषा की साहित्यिक रचनाएं गढ़ी हुई हैं. इन शिलालेख में जो अक्षर दिखाई देते हैं वो 11वीं-12वीं शताब्दी समय के हैं. परिसर में ऐसी बातें भी लिखी मिली हैं जो हिंदू संगठन के दावे को मजबूत करते हैं. यहां पाई गई एक रचना में परमार राजाओं- उदयादित्य और नरवर्मन – की प्रशंसा की गई है जो राजा भोज के तुरंत बाद उत्तराधिकारी बने. दूसरी रचना में कहा गया है कि उदयादित्य ने स्तंभ पर शिलालेख को गढ़वाया था.

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