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जब बेबसी का दूसरा नाम बन गई नवाबी!

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कृष्ण प्रताप सिंह
उर्दू के अजीम शायर मीर तकी मीर (1723-1810) के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने दिल्ली को उजड़ते और लखनऊ को आबाद होते देखा था। साठ पार की उम्र में नवाब आसफउद्दौला के बुलावे पर वह अपनी नई तराश और नए अंदाज पर इतराते लखनऊ में ‘दाखिल-ए-महफिल’ हुए तो लखनवी उन पर हंसे। उन्हें खुद पर हंसता देख अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा था- ‘दिल्ली जो इक शहर था आलम में इंतिखाब, रहते थे मुंतखब ही जहां रोजगार के। उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिया, हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के।’

लेकिन आगे चलकर अंग्रेजों ने दिल्ली और लखनऊ दोनों के हुक्मरानों को बेबस करके उनका हाल कमोबेश एक जैसा ही कर डाला। दिल्ली में बादशाह बहादुरशाह जफर (1775-1862) की हुकूमत लाल किले तक सीमित कर दी तो लखनऊ में नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) की हुकूमत कैसरबाग की ऐतिहासिक पीली चहारदीवारियों तक। इन दोनों की बदकिस्मती इस मायने में भी एक जैसी थी कि 11 फरवरी, 1856 को वाजिद अली शाह से अवध का राजपाट छीनकर उन्हें कलकत्ता स्थित मटियाबुर्ज निर्वासित किया जाना देश के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का सबब बना, तो बहादुरशाह जफर को रंगून निर्वासित होकर उसकी विफलता की कीमत चुकानी पड़ी।

अलबत्ता, विफल होने के बावजूद उस संग्राम ने जहां जफर का देश के आखिरी मुगल बादशाह का तमगा बरकरार रखा, वहीं वाजिद अली शाह से अवध के आखिरी नवाब का तमगा छीनकर उनके बेटे बिरजिस कदर के नाम कर दिया। इतिहास गवाह है कि उन दिनों बिरजिस कदर अपनी वीरांगना मां बेगम हजरत महल के साथ मिलकर अंग्रेजों से दिल्ली के पतन के बाद तक लोहा लेते रहे। फिर भी इतिहासकार वाजिद और जफर की तुलना से परहेज बरतते हैं। कारण यह कि क्रूर अंग्रेजों ने रंगून में निर्वासन के दौरान जफर को जितना सताया, वाजिद को उसके दसवें हिस्से के बराबर भी नहीं सताया गया। इसलिए कई इतिहासकार वाजिद की तुलना 17वें मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय से करना ज्यादा पसंद करते हैं।

प्रसंगवश, शाहआलम द्वितीय (1728-1806) की ताजपोशी के वक्त तक मुगल सल्तनत ढहने लग गई थी। मराठों की मदद से उन्हें जैसे-तैसे बादशाहत तो मिल गई थी, लेकिन उसका इकबाल इस कदर जाता रहा था कि फारसी में कहावत चल निकली थी- ‘सल्तनत-ए-शाहआलम अज दिल्ली ता पालम।’ यानी शाहआलम की हुकूमत दिल्ली से पालम तक ही है। 1856 में नवाबों के आखिरी दिनों में लखनऊ में वाजिद की बेबसी भी कुछ ऐसी ही थी। तिसपर विडंबना यह कि कई बार उनके सेवक तक उनकी इस बेबसी का मजाक उड़ाने पर उतर आते थे।

एक दिन तो गुलनार नाम की उनकी एक मुंहलगी कनीज ने हद ही कर दी। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जारी किया गया चांदी का एक विक्टोरियन सिक्का गुलाबी जरीदार पोश से ढकी तश्तरी में लेकर वह वाजिद के पास आई और बोली, ‘सुल्तान-ए-आलम! कंपनी का यह सिक्का अब सारे लखनऊ में जोर-शोर से चलने लगा है, जबकि आपके सिक्के आंखों से ओझल हो चले हैं। अब सिर्फ कैसरबाग ही है, जहां आपकी हुकूमत बाकी है और इसका भी कुछ ठिकाना नहीं कि कब तक बाकी रहेगी।’

इकबाल वाले दिन होते तो वाजिद उस गुस्ताख कनीज को मजा चखाए बगैर न रहते। लेकिन तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने उनके कस-बल इतने ढीले कर दिए थे कि वो झुंझलाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे। ऐसा नहीं कि वह विक्टोरियन सिक्का देखकर उन्हें गुस्सा नहीं आया। बहुत आया, लेकिन वह अंग्रेजों से ज्यादा खुद की बेबसी के खिलाफ था। उन्होंने तश्तरी में रखे सिक्के पर अपनी नजरें कुछ इस तरह गड़ा दीं, जैसे उसे अपनी निगाहों की गरमी से ही भस्म कर देना चाहते हों। फिर दाहिने हाथ से उठाया और अंगूठे व उंगलियों के बीच इतनी जोर से रगड़ दिया कि न अंगूठे की तरफ की उसकी विक्टोरिया की छाप सलामत रही, न उंगलियों की तरफ की इबारत। फिर कनीज को हुक्म दिया, ‘इसे फौरन बेलीगारद के अहाते में फेंक आओ, रेजीडेंसी में।’ कनीज हुक्म बजाकर लौटी तो उन्हें लगा कि अंग्रेजों से उनका इंतकाम पूरा हो गया है। निस्संदेह, यह इकबाल का नहीं, बेबसी का इंतकाम था।

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