Site icon अग्नि आलोक

हसदेव की आदिवासी महिलाओं का दर्द:सारा जंगल काटेंगे तो हम लोग कहां जाएंगे?

Share

अंबिकापुर से पूनम मसीह 

 “ये धीरे-धीरे करके सारा जंगल काटेंगे तो हम लोग कहां जाएंगे? क्या कमाएंगे और क्या खाएंगे?” यह कहना है हसदेव अरण्य के फतेहपुर में रहने वाली संतराबाई का। जो पिछले लंबे समय से अपने जंगल को बचाने के लिए हरिहरपुर में हो रहे धरना प्रदर्शन का हिस्सा बनी हुई हैं।संतराबाई की सबसे बड़ी चिंता यही है कि शहर को रोशन करने के लिए गांव के गांव उजाड़े जा रहे हैं, जिसमें आदिवासियों का दिल बसता है।

दरअसल पिछले लंबे समय से 170,000 हेक्टेयर में फैले हसदेव के जंगल पर कॉरपोरेट की नजर है। जिसमें से ढाई लाख पेड़ों को काटा जाना है। जिसमें कुछ कट चुके हैं और बाकी काटे जाने बाकी हैं। दिसंबर महीने की सर्द हवाओं के बीच 50 हजार पेड़ों को काटने का काम शुरू किया गया। आज भी यह सिलसिला जारी है। जिसको लेकर राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने हिसाब से बयानबाजी कर रही हैं।

जंगल जीवनयापन का सहारा

जंगल कटाई की चिंता लगातार ग्रामीणों को सता रही है। संतराबाई उनमें से एक हैं जिनका पूरा जीवन जंगल पर आश्रित है। वह कहती हैं कि “मेरे पास कोई जमीन नहीं है। पति शराबी है। कोई काम नहीं करता है। दो बच्चे हैं उनको पालने पोसने की जिम्मेदारी मेरी है।”

वो कहती हैं कि “मैं जंगल से महुआ, टोरा, पलाश का पत्ता और अन्य चीजों को तोड़कर लाती हूं और उसे बेचती हूं। बीच-बीच में धान के सीजन में लोगों के खेतों में काम भी करती हूं। ताकि जीवनयापन कर सकूं”।

संतराबाई ने बताया कि जंगल और खेत ही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है। वह पढ़ी-लिखी भी नहीं हैं। लेकिन वह जानती हैं कि जंगल को किसी भी हाल में बचाना होगा। अगर जंगल नहीं बचा तो उनका जीवन चलना मुश्किल हो जाएगा।

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले हो रहे धरना-प्रदर्शन में भी संतराबाई अपना समर्थन देने लगातार आ रही हैं।

वह बताती हैं कि “मेरे दो बच्चे हैं, बेटी 11वीं और बेटा 9वीं में पढ़ता है। इन दोनों को अपनी कमाई से जैसा हो सकता है उतना अच्छा जीवन देने की कोशिश है। ताकि पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी कर सकें और अपने अधिकारों को लिए लड़ पाएं।

मैं उम्मीद करती हूं ऐसा होगा क्योंकि हमारे बच्चे हमारे संघर्ष को देख रहे हैं। हमलोग पिछले लंबे समय से जंगल को बचाने के कोशिश कर रहे हैं। मैं घर का काम करके लगभग हर रोज धरना प्रदर्शन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हूं।”

सतराबाई को लगता है कि केते गांव के लोगों जैसा अब भी लोगों को साथ धोखा न हो जाए। वह कहती हैं कि पहले लोगों को इतनी जानकारी नहीं थी इसके कारण ही केते गांव कोयले की कुर्बानी चढ़ गया है।

वह बड़े ही गुस्से में कहती हैं कि “केते के गांव के लोगों को बड़ी जमीन वाले घरों से भगाकर छोटे-छोटे घरों में रहने के लिए सरकार ने मजबूर किया है। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। हमारी मोदी जी से यही मांग है कि अडानी को यहां से वापस लेकर जाए और हमारा जंगल हमें दिया जाए”।

हसदेव अरण्य के एक बड़े इलाके में रहने वाले कई लोगों का यही कहना कि उनका जंगल उन्हें वापस दिया जाया। फिलहाल जंगल के कई हिस्सों में कटाई चल रही है।

कोयले का भंडार है छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ के तीन जिलों को जोड़ने वाले इस जंगल में कोरबा जिले में तो लंबे समय से कोयला निकाला जा रहा है। जहां सरकारी और निजी कंपनियों का डेरा है। कोल इंडिया के अंतर्गत आऩे वाली साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड कोरबा जिले में है। जिसका मुख्यालय बिलासपुर में है।

छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्सें में कोयला और दक्षिण में लौह अयस्क के साथ-साथ कई कीमती पेड़ भी हैं। खनिज संपदा से भरपूर इस राज्य के हसदेव अरण्य के जंगल को बचाने के लिए लोग लगातार प्रयासरत है। जिसमें महिलाओं की अहम भूमिका है।

डराया धमकाया जाता है

नीतू कोर्राम और उनकी ननद दोनों ही जंगल को बचाने के लिए डटी हुई हैं। दोनों ने अपने पास के जंगल को बर्बाद होते देखा है, लेकिन अब वो गांव को बर्बाद होने नहीं देंगी, ऐसा दोनों का कहना है।

नीतू एक गृहणी और ननद 12वीं की पढ़ाई पूरी कर घर पर ही रहती है। दोनों बताती हैं कि किसी वक्त जिस जगह पर हम लोग खड़े हैं यहां घना जंगल हुआ करता था। अब यहां सिर्फ वीरान मिट्टी का बना हुआ पहाड़ दिखाई देता है। यहां से सारा कोयला निकालकर इसकी कहानी को खत्म कर दिया गया है।

नीतू मुझे सामने खुली खदान की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं कि “पहले यहां एक नदी थी। जो अब पतला नाला बन चुकी है। जहां खुली खदान सीढ़ीनुमा आकृति में बनी हुई हैं कभी वहां पर केते गांव हुआ करता था। एक बड़ा गांव था जहां से देखते ही देखते लोग चले गए। कुछ लोग शहर चले गए कई लोगों को धमकी देकर गांव खाली करवाया गया।

अब यहां पर सिर्फ मिट्टी है। नाम के लिए खेतों में कहीं-कहीं पेड़ बचे हैं। पूरा केते खाली हो चुका है। अब बारी परसा की है। पेंड्रामार की तरफ लगातार पेड़ों की कटाई चल रही है। घाटबर्रा के कुछ हिस्से को खाली कराने की बात चल रही है”।

मैंने नीतू से पूछा क्या आप लोगों को डर लगता है कि भविष्य में अगर आपको खाली करने के लिए कह दिया तो?

इसका जवाब वह तेज आवाज में देती हुए कहती हैं “अब ऐसा नहीं होगा और न ही हमें डर लगता है। हम लोग लंबे समय से धरना प्रदर्शन में बैठे हुए हैं। हमें भरोसा है कि हम लोग जीतेंगे। जिस वक्त केते को खाली कराया गया लोगों को अपने अधिकारों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन अब तो हम अपने अधिकारों को जानते हैं। अब हम लोगों से गांव खाली नहीं कराया जा सकता है”।

हमारी लड़ाई ही इस बात की है कि हमारे जंगल को नहीं उजाड़ा जाए। यह हमारी आने वाली नस्लों के लिए नुकसानदेह है। बिजली उत्पादन के लिए सिर्फ कोयला ही एकमात्र साधन नहीं है दूसरे भी विकल्प हैं। सरकार को उनके बारे में भी सोचना चाहिए। ताकि जंगल बचा रह सकें।

साल 2010 से उजाड़ने का सिलसिला शुरू हुआ

हसदेव अरण्य को उजाड़ने का सिलसिला साल 2010 के बाद से ही शुरू हो गया था। उस वक्त यूपीए की सरकार थी। साल 2010 में केंद्र सरकार ने राजस्थान सरकार को बिजली आपूर्ति के लिए हसदेव में तीन खदानों का आवंटन दिया था। लेकिन वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हसदेव को खदान प्रतिबंधित रखते हुए इसे नो-गो जोन घोषित कर दिया। इसके साथ ही यह क्षेत्र पांचवीं अनुसूची में आता है।

लेकिन नियमों को ताक पर रखकर वन मंत्रालय के वन सलाहकार समिति ने परसा ईस्ट और केते बासेन कोयले खदान की अनुमति दे दी। जिसका नतीजा यह हुआ कि केते गांव को खाली कराकर पेड़ों की कटाई कर वहां से खुली खदान के द्वारा कोयला निकाला गया। मौजूदा दौर में यह परसा ईस्ट एंड केते बासेन खुली खदान परियोजना के नाम से चल रही है।

यूपीए सरकार के दौर में साल 2012 में पहली बार कोयले की खुदाई की मंजूरी दी गई। पहले फेज में 726 हेक्टेयर में फैले 137 मिलियन टन कोयले की खुदाई की मंजूरी दी गई। जिस वक्त हसदेव में पहले चरण की खुदाई की अनुमति दी गई केंद्र में कांग्रेस की सरकार की और राज्य में भाजपा की थी। केंद्र से अनुमित मिलने के बाद राज्य की भाजपा सरकार ने इसे पास कर दिया।

इस मंजूरी के बाद एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने नो-गो जोन को देखते हुए खनन पर रोक लगा दी। लेकिन काम साल 2015 में शुरू हो गया। पहले चरण का खनन लगभग पूरा हो गया। जिसमें केते गांव के लोगों को विस्थापित किया था।

अब जंगल की कटाई को रोकने के लिए उदयपुर से हरिहरपुर गांव में विरोध प्रदर्शन चल रहा। एक पक्की सड़क पर नीले रंग का एक बोर्ड लगा हुआ है जिसमें लिखा है “स्वागतम परसा ईस्ट एण्ड कांता बासन खुली खदान परियोजना”। यह कोयला खनन का पहला हिस्सा है। दूसरे की तैयारी चल रही है। जिसके तहत 50 हजार पेड़ों को पेंड्रामार में काटा जा रहा है।हसदेव अरण्य में 23 कोयला ब्लॉक हैं। जंगल के इस क्षेत्र में गौंड, उरांव, पंडों धनवार समुदाय के लोग रहते हैं। जिसमें पंडो की संख्या सबसे कम है।

प्रशासन के मन में डर

जंगल कटने से आदिवासियों पर अस्तित्व का भी खतरा मंडरा रहा है। ठाकुर राम कुसरो साल्ही गांव के रहने वाले एक किसान हैं। जो पिछले लंबे समय से गांव को बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं।राम उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें पुलिस ने दिसंबर 21 को जंगल कटाई करने के लिए हिरासत में ले लिया था। फिलहाल कोई एफआईआर नहीं हुई है और वह लगातार विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं।

वह कहते हैं कि सरकार को हम लोगों से डर लगता है। इसलिए जंगल को काटने से पहले हमें हिरासत में रखा जाता है। इससे हम लोग डरने वाले नहीं है। हमें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी है। हमारे पूर्वजों की जमीन है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक वीरान जगह देंगे? अगर अडानी सारा जंगल काट लेगा तो?

राम का कहना है कि हम लोग डटे रहेंगे। ताकि जंगल को बचाया जाए। आजतक लड़े हैं आगे भी लड़ेंगे।

साल 2021 में अक्टूबर के महीने में सरगुजा से रायपुर तक हसदेव अरण्य को बचाने के लिए पैदल यात्रा की गई थी। इसके बाद सात जनवरी 2024 को हरिहरपुर में बड़ा आंदोलन किया गया। जिसमें देश के अलग-अलग हिस्से से सामजिक कार्यकर्ता, किसान संगठन के लोग, पर्यावरण प्रेमियों ने हिस्सा लिया। आंदोलन को दौरान चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। कई लोगों को रोका भी गया।

मानव हाथी संघर्ष बढ़ेगा

खनन के लिए हो रहे विरोध प्रदर्शन के बीच सामाजिक कार्यकर्ता आलोक शुक्ला का कहना है कि हसदेव के जंगल को छत्तीसगढ़ का फेफड़ा कहा जाता है। ऐसे में जरूरी है कि इसे बचाया जाए। यह सिर्फ जंगल की बात नहीं है। भारतीय वन जीव संस्थान ने कहा कि अगर हसदेव का जंगल खत्म हुआ तो हसदेव नदी खत्म हो जाएगी। हसदेव बांगो बांध खत्म हो जाएगा। जबकि यहां से 40 हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई की जाती है। मानव हाथी संघर्ष बढ़ जाएगा। इसे संभालना आसान नहीं होगा।

जंगल की कटाई पर आलोक शुक्ला का कहना है कि साल 2021 में लोग पैदल रायपुर गए थे। राज्यपाल से मांग की थी कि जिस फर्जी ग्राम सभा की अनुमति के आधार पर जंगल कटाई की अनुमति दी गई है। उसकी जांच की जाए। लेकिन आजतक इसकी कोई जांच नहीं हुई है। इसके इतर जंगल को काटा जा रहा है।

खबरों के अऩुसार साल 2022 में 43 हेक्टेयर क्षेत्र में पेड़ काटे गए जबकि 2023 के शुरुआत में उसी क्षेत्र में अन्य 91 हेक्टेयर पेड़ कटाई का शिकार हो गए हैं। जबकि 21 दिसंबर को 50 हजार पेड़ों को मशीनों द्वारा काटा गया।

कांग्रेस ने मानी अपनी गलती

इस मामले में राजनीति भी शुरू हो गई है। छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष दीपक बैज पिछले दिनों हसदेव बचाओ आंदोलन में शामिल होने गए थे।

जहां उन्होंने कहा कि पांचवीं अनुसूची में ग्राम सभा सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन यहां तो फर्जी ग्रामसभा के आधार पर अनुमति दी गई है। हम ग्रामीणों की मांग का समर्थन करते हैं। ग्रामसभा की जांच होनी चाहिए।

पिछले पांच साल में कांग्रेस की सरकार रहने पर हसदेव पर चुप्पी को पार्टी की गलती को मानते हुए उन्होंने कहा कि हमारी गलती है कि हमने पांच साल में ग्रामसभा की जांच नहीं कराई। लेकिन अब हम बस्तर से लेकर सरगुजा तक आदिवासियों की लड़ाई के लिए उनके साथ हैं। प्रदेश के आदिवासी मुख्यमंत्री भी समुदाय के हित के अनुरूप फैसला लें।

वहीं दिसंबर के महीने में छत्तीसगढ़ में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री विष्णु साय ने मीडिया से हसदेव अरण्य के जंगल कटाई पर यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि पेड़ कटाई की अनुमति कांग्रेस सरकार के दौरान दी गई है। हमारा इसमें कोई योगदान नहीं है।

परसा ईस्ट और केते बासेन खुली खदान का गेट


इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि फिलहाल परसा ईस्ट एंड कांता बासन खुली खदान परियोजना के तहत 120 मिलियन टन कोयला निकला है। 330 मिलियन टन अभी भी बाकी है। जिसके तहत अगले 20 साल तक राजस्थान सरकार को कोयला उपलब्ध होता रहेगा। इसके लिए नई खदान खोलने की जरूरत नहीं है।

छत्तीसगढ़ में जंगल कटाई और कोयला खदानों को खोलने के विरोध पर लगातार लीगल लड़ाई लड़ रहे वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव का सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में कहना है कि फिलहाल जो परियोजना चल रही है वह अगले 20 साल के लिए राजस्थान के लिए पर्याप्त है।इसके बावजूद दो खदानें परसा और केते एक्सटेंशन खोलने की मांग की जा रही है। जिसके कारण पीकेसीबी के दाहिने ओर जंगल को काटा जाएगा। जिसमें हरिहरपुर, साल्ही जैसे गांव आते हैं। जिसे रोकना जरूरी है।

Exit mobile version