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दिग्विजय को क्यों आर के करंजिया ने दिया दिग्गी राजा नाम

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बीते करीब पांच दशक से मध्य प्रदेश की राजनीति में सक्रिय दिग्विजय सिंह की शख्सियत ऐसी है कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। लोग उन्हें पसंद करते हैं या नापसंद, लेकिन अनदेखी नहीं कर सकते। दिग्गी राजा के नाम से मशहूर दिग्विजय को यह नाम मिलने की कहानी बड़ी रोचक है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प किस्सा साल 1993 में उनके मुख्यमंत्री चुने जाने की है।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को अक्सर दिग्गी राजा के नाम से संबोधित किया जाता है। दिग्विजय को यह नाम 1980 के दशक की शुरुआत में मिला जब वे लोकसभा के सांसद थे। 1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने पूरे देश से युवा कांग्रेसियों को अपने कोर ग्रुप में चुना था। दिग्विजय भी इनमें से एक थे। दिल्ली में एक डिनर पार्टी हो रही थी जिसमें कांग्रेस के कई नेता और शीर्ष पत्रकार शामिल थे। इनमें आर के करंजिया भी थे जो एक अखबार के संपादक थे। वृद्ध करंजिया दिग्विजय से बात कर रहे थे, लेकिन उनके नाम का सही उच्चारण नहीं कर पा रहे थे। इसी पार्टी में करंजिया ने दिग्विजय को पहली बार दिग्गी राजा कहकर संबोधित किया था। यह नाम छोटा था और बोलने में आसान भी। इसके बाद से दिग्गी राजा नाम उनके साथ जुड़ गया। व्यक्तिगत संबोधन से लेकर अखबारों की हेडलाइन में उनके लिए दिग्गी राजा नाम धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है जबकि दिग्विजय खुद इसे पसंद नहीं करते।

जितनी रोचक दिग्विजय कोे दिग्गी राजा नाम मिलने की कहानी है, उससे कहीं ज्यादा दिलचस्प उनके एमपी के मुख्यमंत्री चुने जाने की कहानी है। साल 1992 में बाबरी मस्जिद टूटने के बाद मध्य प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए और तमाम पूर्वानुमानों को गलत साबित करते हुए कांग्रेस ने बहुमत हासिल कर लिया। दिग्विजय सिंह उस समय प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे।

1993 में सीएम पद के कई दावेदार
कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना देखते ही श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव और कमलनाथ जैसे नेता मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगे। शुक्ल के धुर विरोधी अर्जुन सिंह ने सुभाष यादव के लिए विधायकों का समर्थन जुटा रहे थे जबकि सिंधिया दिल्ली में बैठकर अपने लिए गोटियां फिट कर रहे थे। मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए कांग्रेस विधायकों की बैठक श्यामला हिल्स स्थित सीएम हाउस के ऊपर वाले हॉल में हुई।

सुभाष यादव के लिए अर्जुन सिंह कर रहे थे लॉबिंग
शाम पांच बजे शुरू हुई बैठक में प्रणव मुखर्जी, सुशीलकुमार शिंदे और जनार्दन पुजारी आलाकमान के पर्यवेक्षक बनकर आए थे। अर्जुन सिंह को जब लगा कि सुभाष यादव को विधायकों का समर्थन हासिल नहीं है तो वे किसी पिछड़े को मुख्यमंमत्री बनाने की बात कह कर मीटिंग से बाहर निकल गए। उधर, दिल्ली में माधवराव सिंधिया का हवाई जहाज तैयार खड़ा था। उन्हें अर्जुन सिंह की ओर से संदेश भिजवाया गया था कि सुभाष यादव सीएम नहीं चुने गए तो उनके समर्थक विधायक सिंधिया को समर्थन दे देंगे।

पर्दे के पीछे से तैयारी कर रहे थे दिग्विजय
दिग्विजय ने खुले तौर पर सीएम पद के लिए अपनी दावेदारी नहीं पेश की थी, लेकिन इन सबके बीच वे बड़ी सफाई से अपने लिए फील्डिंग सजा रहे थे। करीब-करीब हर विधायक से उन्होंने व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया था। कई विधायकों से उन्होंने लिखित आश्वासन ले लिया था कि मुख्यमंत्री के लिए वे उन्हें ही समर्थन देंगे। विधायक दल की बैठक में किसी एक नाम पर सहमति नहीं बनती देख प्रणव मुखर्जी ने गुप्त मतदान कराने का फैसला किया। गुप्त मतदान के समय हॉल में केवल दो गैर-विधायक मौजूद थे- दिग्विजय सिंह और उनके निजी सचिव राजेंद्र रघुवंशी।

100 से ज्यादा विधायकों का मिला दिग्गी को समर्थन
वोटिंग के दौरान कांग्रेस के 174 में से 56 विधायकों ने श्यामाचरण शुक्ला को समर्थन दिया तो 100 से ज्यादा विधायकों ने दिग्विजय के पक्ष में मत दिया। वोटिंग के नतीजे सामने आते ही नीचे मौजूद कमलनाथ मुख्यमंत्री निवास में लगे टेलीफोन की ओर भागे। उन्होंने दिल्ली में किसी को इसकी जानकारी दी और कुछ मिनट के अंदर ही प्रणव मुखर्जी के पास तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का फोन आ गया। राव ने मुखर्जी से कहा कि जिसे ज्यादा विधायकों का समर्थन मिले, उसे ही मुख्यमंत्री बनना चाहिए। इसके बाद श्यामाचरण शुक्ल ने दिग्विजय के नाम का प्रस्ताव किया और उन्हें सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री चुन लिया गया।

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