*प्रो. राजकुमार जैन*
: कट्टरता और असहिष्णुता साम्प्रदायिक संगठनों तक महदूद नहीं है। साम्यवादी और मार्क्सवादी चेतना से संपन्न जीवन को बेहतर बनाने वाले संगठनों को भी इसने बेहद नुकसान पहुंचाया है।
‘अगले वक्तों के हैं ये लोग’ अशोक बाजपेई रचित संस्मरण की किताब है।
साहित्य और रंगमंच के साथ ही प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के उन्नायक पुरुष नेमिचन्द्र जैन के बारे में इसमें प्रेरक लेख है। इसे पढते हुए एक जगह ठिठक गया।
प्रसंग है ,कामरेड पीसी जोशी ने सांस्कृतिक आंदोलन को संगठित करने केलिए बंबई (मुंबई ) में कम्यून बनाया था । वहां जिन विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को इकट्ठा किया था ,उसमें ये प्रमुख थे। रेखा जैन भी उसमें एक थी जो इनकी पत्नी थी।
जहां ठिठक गया ,उस पैरा को सबक के तौर पर उद्धृत कर रहा हूँ।
उल्लेखनीय है कि इसकी चेतावनी सज्जाद जहीर ने रौशनाई किताब और भीष्म साहनी ने अपनी आत्मकथा में भी दी है। फिर भी चेते नहीं तो कुपरिणामों से मुक्ति नहीं हो पा रही है।
फिलहाल पुस्तक अंश-
” नेमि जी अपने लेखकीय जीवन के आरंभ में साम्यवादी थे और मार्क्सवाद के गहरे प्रभाव में थे। लेकिन जब साम्यवादी दल में कट्टरता और असहिष्णुता का साम्राज्य हो गया और पार्टी ऐसे मामलों में दखलअंदाजी करने लगी जो की सर्जनात्मक या निजी थे तो नेमि जी ने दूर हटना शुरू किया । बाद में , वे किसी नियमित अर्थ में मार्क्सवादी नहीं रहे । लेकिन मार्क्सवाद के कुछ जरूरी मूल्य उनकी दृष्टि में आजीवन अपनी जगह बनाए रहे। शोषण और अन्याय का विरोध ,समता का आग्रह, परिवर्तन की इच्छा और सामाजिक जिम्मेदारी ऐसे ही मूल्य थे जिनसे नेमि जी कभी विरत नहीं हुए ।व्यक्ति और समाज के युग्म और दर्द को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने एक की कीमत पर दूसरे को वरीयता देने का विकल्प कभी नहीं माना।..”
ऐसी ही बात भीष्म साहनी ने आत्मकथा में लिखी है।
” आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की तंगनजरी ने, आकाशवाणी की तरह आनेवाले हुक्मनामे और बंद निर्णय ने वह भी कम अक्ल लोगों की जमात द्वारा थोपे जाने से सांस्कृतिक संगठनों (प्रलेस और इप्टा ) के बदले चरित्र ने उसकी कमर तोड़ दी।
लेखक और कलाकार का कलाकार के नाते स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है। उसका संवेदन कुछ को नकारता और कुछ को स्वीकारता है। “
भीष्म जी की चेतावनी पर अमल की जरूरत है।
” सामाजिक स्थिति के प्रति सचेत करने की दिशा में कला और साहित्य की प्रभावशाली भूमिका को संकीर्णता से मुक्त होना चाहिए। सदैब इसे भविष्योन्मुखी रहना चाहिए।”
आज के समय केलिए जरूरी है , हममें सच को बोलने की ताकत हो। इसके बिना समाज और साहित्य का हित संभव नहीं है। साहित्य उठ रही दीवारों के बीच एक खिड़की है ,खुला दरवाजा है।
इसे बंद न होने देना साहित्यकार की जिम्मेदारी है।
इंसानियत ,सौहाद्रता और संघर्षधर्मिता की भावधारा को प्रगतिपथ पर अग्रसर किए बिना आगे बढना नामुमकिन है। साहित्यकारों का स्वभाव जलप्रवाह की नाई होता है ,तमाम अवरोधों को बहा ले जाता है।
“संस्मरण यानी स्मरण यानी स्मृति। ये स्मृतियाँ केवल अपने प्रिय व्यक्तित्वों को याद करना भर नहीं है। ‘अगले वक़्तों के हैं ये लोग’ से गुज़रना हमें साहित्य, बोध, समय, कल्पना, स्मृति आदि के विशिष्ट अनुभव से आप्लावित करता है। कुछ-कुछ वैसा ही जब आप नवजात बच्चे को गोद में लेते हैं तो उसकी धड़कन आपकी हथेलियों पर दस्तक देती है।“-अमिताभ राय
समादृत कवि-आलोचक, संपादक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी 1941 को तत्कालीन मध्य प्रदेश राज्य के दुर्ग में एक संपन्न सुशिक्षित परिवार में हुआ। उनके प्रशासनिक जीवन का एक लंबा समय मध्य प्रदेश, विशेषकर भोपाल में बीता जहाँ उन्होंने राज्य के संस्कृति सचिव के रूप में भी सेवा दी और कार्यकाल के अंतिम दौर में भारत सरकार के संस्कृति विभाग के संयुक्त सचिव के रूप में दिल्ली में कार्य किया। उन्होंने महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रथम उप-कुलपति और ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।
अशोक वाजपेयी एक संस्कृतिकर्मी और आयोजक के रूप में भी विशिष्ट उपस्थिति रखते हैं। भोपाल में उनके प्रशासनिक कार्यकाल के दिनों में उनके द्वारा हज़ार से अधिक आयोजन कराए गए जो साहित्य और कला की विभिन्न विधाओं के प्रसार में अद्वितीय योगदान कहा जाता है। उस दौर में ‘भारत-भवन’ जैसे साहित्य-कला-संस्कृति आयोजन का पर्याय ही हो गया था। बाद के दिनों में रज़ा फ़ाउंडेशन एवं अन्य संस्थाओं के माध्यम से दिल्ली में भी उनकी सांस्कृतिक गतिविधियाँ बनी रही हैं।