*प्रोफेसर राजकुमार जैन*
कल रात दिल्ली में एक साथी की बेटी की शादी की रस्म पूरी होने के बाद, रात के तीसरे पहर में जब मैं होटल से बाहर निकला, तो कसैले धुएं का मेरी नाक और सांस पर असर महसूस हुआ। चारों तरफ, जैसे धुंध के समय होता है, काला ही काला दिखाई दे रहा था। रात को टेलीविजन पर देखा कि ए.क्यू.आई. 500 को पार कर चुका था। इससे पहले बताया गया था कि यह 900 तक की सीमा को छू चुका था।
वायु प्रदूषण के विशेषज्ञ वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि दिल्ली में कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है, जैसा कि कोविड महामारी या प्लेग जैसी बीमारियाँ फैलती थीं। आज भी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि गरीब तबके के लोग ठंड से बचने के लिए पक्के कोयले की अंगीठी जलाकर बंद कमरे में सो जाते हैं, जिसके कारण पूरा परिवार उसकी जहरीली हवा से सुबह मृत पाया जाता है।
सवाल यह है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
दिल्ली के इन खतरनाक हालातों के लिए ज्यादातर दिल्ली वाले ही जिम्मेदार हैं। हिंदुस्तान और दिल्ली की गद्दी पर काबिज दोनों सरकारों के नुमाइंदे बड़े करीने से पोशाक पहनकर टेलीविजन की बहसों में बड़ी चालाकी से वाचाल बनते हुए तरह-तरह के तर्कों और कुतर्कों के माध्यम से एक-दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। बाद में अपनी निजी बातचीत में ठहाका लगाकर कहते हैं, ‘देखो, मैंने कैसे बाजी पलट दी,’ और अपनी महारत का जलवा दिखाते हैं।
“चीन में एक समय दिल्ली जैसी ही खराब आबोहवा थी। लेकिन कई और उपायों के साथ-साथ ‘स्मॉग फ्री टावर’, जो गंदी हवा को साफ हवा में बदल देता है, लगाकर उन्होंने इस समस्या पर काफी हद तक काबू पा लिया। अब दिल्ली का हाल देखिए। 2021 में, 23 करोड़ रुपये की लागत से दिल्ली में दो ‘स्मॉग फ्री टावर’—एक कनॉट प्लेस और दूसरा आनंद विहार में—लगाए गए। उस समय दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री और पर्यावरण विभाग के मंत्री ने इस काम के लिए खुद अपनी खूब तारीफ की थी। लेकिन आज दोनों स्मॉग टावर बंद पड़े हुए हैं।
दिल्ली सरकार के मंत्री पहले पंजाब और हरियाणा में पराली जलाए जाने के कारण से आने वाली हवाओं को जिम्मेदार ठहराते थे। लेकिन पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद उनका स्वर बदल गया और अब वे केवल हरियाणा को दोषी ठहराते हैं।
केंद्र की स्मार्ट सिटी योजना के तहत दिल्ली के सबसे ज्यादा प्रदूषित और घनी बस्तियों वाले इलाके, आनंद विहार के पास कड़कड़डूमा मेट्रो स्टेशन के बगल में नई बस्ती बसाई जा रही है। वहां गगनचुंबी इमारतों के ढांचे खड़े हो रहे हैं। आसपास के इलाकों में ट्रैफिक जाम हमेशा लगा रहता है, और आने-जाने के लिए चौड़ी सड़कों की व्यवस्था नहीं है। इस नई बस्ती से सरकार को हजारों करोड़ रुपये की आमदनी तो होगी, लेकिन बस्ती बसने के बाद वहां के हालात कैसे होंगे, इसका कोई अंदाजा नहीं लगाया गया।
“सरकारों की लापरवाही के साथ-साथ हम दिल्ली वाले भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। मैं अपने बचपन में बाग-बगीचों के इस शहर में ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे दरख्तों, पेड़-पौधों की खुशबू और परिंदों की चहचहाहट सुनता था। लेकिन आज जो हकीकत अपनी आंखों से देख रहा हूं, वह यह है कि निम्न मध्यमवर्गीय घरों में भी कार होना अब घर की शान का प्रतीक बन चुका है। ऊपरी तबके में तो हालत यह है कि घर में तीन लोग हैं, लेकिन चार या पांच कारें हैं।
कार पार्किंग के लिए जगह बनाने के उद्देश्य से लोग घर के पास लगे हरे-भरे पेड़ों को रात के अंधेरे में तेजाब डालकर जला देते हैं। कुछ नए अमीरों को पेड़ों से गिरने वाले पत्तों, परिंदों की आवाज या उनके द्वारा गिराई गई गंदगी से इतनी नफरत होती है कि वे पेड़ों की छंटाई के नाम पर उन्हें पूरी तरह नंगा करवा देते हैं।
दिल्ली के किसी भी चौराहे पर खड़े हो जाइए, कारों और मोटरसाइकिलों की लंबी कतारें अपने इंजन चालू रखकर दो-तीन बार सिग्नल हरा होने तक धुआं छोड़ती रहती हैं। सड़कों पर गुजारा करने वाले बेघर गरीब सर्दियों में कूड़ा-कचरा या पुराने टायर जलाकर ठंड से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन दिल्ली वालों के लिए कार और एयर कंडीशनर अब उनके स्टेटस का प्रतीक बन चुके हैं। बेहिसाब एयर कंडीशनरों से निकलने वाली गैस भी पर्यावरण पर अपना असर डाल रही है।
शुरुआती दिनों में यमुना नदी के किनारे बसी बस्तियों में घरों में लगे हैंडपंप से निकला पानी मीठा और ठंडा होता था। यह पानी यमुना नदी के रेत से छनकर जमीन में दो-तीन फीट की गहराई पर ही उपलब्ध हो जाता था। लेकिन अब हालात यह हैं कि पानी की गहराई 60 फीट तक पहुंच चुकी है और वह पीने लायक भी नहीं बचा है। आसपास की फैक्ट्रियों से निकलने वाले जहरीले रसायन नालियों के माध्यम से जमीन में समा जाते हैं और पानी को जहरीला बना रहे हैं।”
मेरे बचपन में मेरे घर के पास बने कुएं का पानी पीने और अन्य घरेलू कामों के लिए इस्तेमाल होता था। पूरे मोहल्ले के पुरुष और बच्चे वहीं कुएं पर नहाते-धोते थे। कुएं का पानी गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म निकलता था। अब यह परंपरा खत्म हो गई है। कुओं को मलबे से भरकर फर्श बना दिया गया है, और उन्हें कमर्शियल या रिहायशी स्थानों में बदल दिया गया है।
पहले बरसात में चाहे कितनी भी घनघोर बारिश हो, उसका पानी बागों, खेतों और घरों के बाहर की कच्ची सड़कों में समा जाता था। लेकिन अब नए-नए रईस धरती के एक-एक इंच को पक्की तारकोल की सड़कों से ढक रहे हैं, ताकि धूल न उड़े और कार खड़ी करने में कोई दिक्कत न हो। पहले लोग छतों या गली-मोहल्लों में खुले आसमान के नीचे सोते थे। पुरानी दिल्ली में, अगर आप ऊंची छत पर खड़े हो जाते तो दूर-दूर तक छतों पर सोते हुए लोग दिखाई देते थे। अब यह रिवाज खत्म हो गया है, और इसकी जगह कूलर और एयर कंडीशनर ने ले ली है।
दिल्ली-6 की चारदीवारी के भीतर हर गली में अखाड़े बने होते थे, जहां तैराकी संघ बने थे। ये संघ यमुना जी पर जाकर लोगों को तैराकी सिखाते थे। यमुना का पानी तब निर्मल और स्वच्छ बहता था। लेकिन अब, अगर प्रधानमंत्री या दिल्ली का मुख्यमंत्री गलती से उसमें डुबकी लगा ले, तो उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना पड़ेगा। यमुना में दिल्ली के गंदे पानी के बड़े नाले, जैसे नजफगढ़ नाला, और पूरी दिल्ली की गंदगी बहाई जा रही है।
दिल्ली में इस समय दो चीजों को लेकर सिरफुटव्वल हो रहा है—एक पानी और दूसरा कार पार्किंग। पीने के साफ पानी का इस्तेमाल नवधनाढ्य अपने घरों के लॉन, स्विमिंग पूल, कारों को धोने और अन्य साफ-सफाई के कामों के लिए धड़ल्ले से कर रहे हैं।
“पहले से गहरी बसावट वाले दिल्ली शहर में हर खाली जमीन पर सरकारें नए-नए रिहायशी और कमर्शियल बिल्डिंग खड़ी कर रही हैं। गजब तो यह है कि पहले की बनी सरकारी इमारतों की खाली जमीनों को बेचकर पैसा इकट्ठा किया जा रहा है। दिल्ली में हर साल तकरीबन 2 लाख लोग देश के दूसरे इलाकों से रोजी-रोटी की तलाश में आकर झुग्गी-झोपड़ी, अनाधिकृत कच्ची कालोनियों या सड़कों पर अपना बसेरा बना रहे हैं। दिल्ली शहर के कूड़ा-कचरा रखने के लिए पहाड़ जैसे कूड़े के ढेरों की सड़ांध से भरी हवा, आसपास की बस्तियों को अपनी चपेट में ले रही है।
यह शहर ऊपर से जितना रंगीला है, अंदर उतनी ही गंदगी रोज-ब-रोज पनपती जा रही है। बस गनीमत इतनी है कि बड़े-बड़े आलीशान बंगलों, फार्म हाउसों और अट्टालिकाओं में रहने वाले, हवा को साफ करने के संयंत्र लगाने के बावजूद दिल्ली की उस जहरीली हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं, जिसे मुसीबत का मारा गरीब आदमी भी लेता है। किसी दिन अचानक गंदी हवा में सांस लेने के कारण मरने वाले हजारों लोगों की फेहरिस्त में गरीबों के साथ-साथ इन साहूकारों और मालदारों के नाम भी शर्तिया तौर पर शामिल होंगे।
ऐसा न हो, इससे बचने के लिए युद्ध स्तर पर उपायों का इंतजाम हर शहरी के अपने ही हित में है।”