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 बड़ा सवाल यह है कि इस बार का बजट कैसा रहने वाला है? 

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बी.सिवरामन

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अगले दो सप्ताह में मोदी सरकार के लिए रिकॉर्ड सातवीं बार बजट पेश करने की तैयारी कर रही हैं, तो ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस बार का बजट कैसा रहने वाला है? क्या यह एक बार फिर से बड़े कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए गरीबों के लिए खर्चे में कटौती करने वाला मितव्ययी बजट साबित होने जा रहा है? या, जिस प्रकार से लोकसभा चुनावों में मोदी को झटका लगा है, उसे ध्यान में रखते हुए मतदाताओं को लुभाने के लिए नई फ्रीबीज की घोषणा की जा सकती है? यही वह केंद्रीय मुद्दा है जो आगामी बजट को परिभाषित करेगा।

इस बारे में राय बंटी हुई है। एक धड़े को लगता है कि मोदी का जैसा व्यक्तित्व है, वे 63 लोकसभा सीटों के नुकसान और उनकी सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद विचलित नहीं होने वाले हैं। इसके बजाय, उनके दूसरे कार्यकाल में पिछले कुछ बजटों में जो रुझान देखने को मिला था, उसे जारी रखते हुए तीसरे कार्यकाल के पहले बजट में भी मितव्ययता वाला बजट होगा। वे मोदी के जुलाई 2022 में मोदी के उस बयान का हवाला देते हैं, जिसमें उन्होंने रेवड़ी (फ्रीबीज) कल्चर के खिलाफ बयान दिया था, जिसके बाद चुनाव पूर्व 2023-24 का बजट मतदाताओं को रिझाने वाला बजट तैयार नहीं किया गया, बल्कि राजकोषीय खर्चों को कसने पर जोर दिया गया था। इसी प्रकार, फरवरी 2024 में पेश किया गया चुनाव पूर्व अंतरिम बजट भी मतदाताओं के लिए उदार खर्च वाला चुनाव-पूर्व बजट नहीं साबित हो सका।

वे इस बात की और इशारा करते हैं कि, अंतरिम बजट की सीमाओं बावजूद वित्त मंत्री चाहतीं तो मतदाताओं के लिए ढेर सारी पेशकश कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने खुद को काबू में रखा और अंतरिम बजट के लिए राजकोषीय सख्ती की दिशा ही तय रखी। इसलिए, उनके मुताबिक जुलाई-मध्य में पेश होने वाले पूर्ण बजट में भी इसी के अनुरूप स्पिरिट देखने को मिलने वाली है, और पूर्ण बजट भी अंतरिम बजट से कुछ खास अलग नहीं रहने जा रहा है, जिसका रोडमैप पहले ही तैयार किया जा चुका है।

पर्यवेक्षकों का दूसरा समूह इस तथ्य को रेखांकित कर रहा है कि मोदी न सिर्फ अधिनायकवादी हैं, बल्कि वे अधिनायकवादी लोकलुभावन नेता भी हैं। राजनीतिक तौर पर वोट हासिल करने के लिए वे सरकारी खजाने का मुंह खोलने से भी नहीं झिझकेंगे। अपनी दलील में उनका कहना है कि मोदी ने अपने पहले दस वर्षों के कार्यकाल में मुफ्त खाद्यान्न योजना या पीएमएवाई आवास जैसी कल्याणकारी योजनाओं पर जितना खर्च किया उतना यूपीए सरकार ने अपने पिछले दस वर्षों में नहीं किया था। इस सबके बावजूद उनकी सीटों की संख्या में 63 सीटों की घटोत्तरी हो गई। यह कोई साधारण झटका नहीं है। इसे वे अपनी बर्बादी के जोखिम पर ही नजरअंदाज कर सकते हैं। वे इस पर अपना जवाब देने के लिए बाध्य हैं, और वे निर्मला सीतारमण को इस लहर को उलटने के लिए कुछ उपाय करने का निर्देश देने के लिए बाध्य हैं। लेकिन फिर उनके पास विकल्प क्या हैं? आइए हम इस बारे में थोड़ा और ठोस तरीके से पड़ताल करते हैं।

अब सभी राजनीतिक पर्यवेक्षक इस बात को लेकर एकमत हैं कि ग्रामीण संकट के चलते किसानों की नाराजगी, गहराते बेरोजगारी संकट पर युवाओं के गुस्से और महिला मतदाताओं के बीच आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भयावह वृद्धि के कारण मोदी की भारी रियायतों को लेकर आई उदासीनता मोदी की लोकप्रियता में आई भारी गिरावट की तीन मुख्य वजहें थीं। यह सब इस सबके बावजूद हुआ जब मोदी ने इन तीनों वर्गों पर बेहद सावधानीपूर्वक निशाना बनाया था, भले ही चुनाव पूर्व उन्होंने जो भी उदारता दिखाई हो।

इसमें 80% से अधिक ग्रामीण परिवारों को 4 वर्षों से अधिक समय तक मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध कराया गया। कृषक परिवारों के लिए पीएमएवाई आवास योजना का बड़े पैमाने पर विस्तार किया गया। पीएम किसान कार्यक्रम के तहत प्रत्येक किसान को प्रति वर्ष 6000 रुपये की नकद सहायता प्रदान की गई थी।

27 करोड़ से ज्यादा संख्या में महिलाओं को मुद्रा ऋण दिया गया, जो दुनियाभर में कहीं भी नहीं किया गया, जहां पर सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग के द्वारा तथाकथित वित्तीय समावेशन का अभ्यास किया जाता है। उज्ज्वला योजना के तहत 10 करोड़ महिलाओं को मुफ्त गैस चूल्हे दिए गये। असल में महिलाओं को अपने मुख्य वोटबैंक के तौर पर साधना मोदी की रणनीतिक प्राथमिकता में था। इसके बावजूद, ये तीनों वर्ग उनके विरुद्ध हो गये।

मोदी के पास उन्हें एक बार फिर से और ज्यादा रियायतें देकर लुभाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन वास्तव में उनके पास क्या विकल्प हैं? हम बेरोजगारी और महिलाओं की उदासीनता पर किसानों के गुस्से और युवाओं के असंतोष को शांत करने के लिए मोदी के पास उपलब्ध विकल्पों की पड़ताल करेंगे। इस संदर्भ में, पूर्ण बजट की प्रस्तुति के वक्त वे क्या विशिष्ट अपेक्षाएँ उभरकर सामने आ रही हैं?

क्या किसानों को उपलब्ध होगी और राहत?

बड़े पैमाने पर किसानों की सामूहिक आत्महत्याओं की अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं है कि कृषि संकट कम हो चुका है। मोदी उस कड़वी दवा का स्वाद चखने के बेहद करीब आ चुके थे जिसे किसानों के शांत गुस्से की वजह से वाजपेयी को 2004 की अपनी हार के तौर पर निगलना पड़ा था। यह पूरी तरह से बाल-बाल बचने या डूब जाने वाली स्थिति थी। यदि मोदी 25-30 सीटें और हार जाते, तो यह कह पाना बेहद संदेहास्पद हो जाता कि वे एक व्यावहारिक गठबंधन बनाने और बहुमत जुटा पाने में सक्षम हो पाते।

मौजूदा ग्रामीण संकट कितना गंभीर है और निर्मला अपने पूर्ण बजट में किसानों की स्थिति में सुधार लाने के लिए क्या कर सकती हैं? आइए इस बारे में एक-एक पहलू पर विचार करें। कृषि प्रधान भारत के लिए राजकोषीय एवं समग्र आर्थिक परिदृश्य एक दिलचस्प विरोधाभास प्रदर्शित करता है।

कृषि परिदृश्य में विरोधाभास

पिछले छह वर्षों से कृषि क्षेत्र 4% या इससे ऊपर की दर से बढ़ रही है, जो अपनेआप में एक तरह का रिकॉर्ड है। कृषि ऋण 2017-18 में 10 लाख करोड़ रुपये था, वह वर्ष 2024-25 में दोगुना होकर 20 लाख करोड़ रुपये (अंतरिम बजट में लक्ष्य) हो चुका है। इस सबके बावजूद, मोदी के दूसरे कार्यकाल के दौरान वास्तविक रूप से ग्रामीण आय में प्रति वर्ष 2% की गिरावट देखने को मिली है। यह सब मोदी के किसानों की आय दोगुनी करने के बहुप्रचारित लक्ष्य के बावजूद है।

कृषि संकट का समाधान कैसे किया जाए, इस बारे में मोदी को कोई अंदाज़ा नहीं है। मोदी ने 2016 में किसानों की आय दोगुनी करने के अपने लक्ष्य की घोषणा की थी। उन्होंने कृषि क्षेत्र के लिए बजट आवंटन को लगभग तीन गुना कर दिया- 50,264 करोड़ रुपये (संशोधित अनुमान) से 1,27,528 करोड़ रुपये (अंतरिम बजट में बजट अनुमान)। इसका अर्थ हुआ कि कृषि मंत्रालय एवं किसान कल्याण हेतु बजटीय आवंटन 2016 के बाद से दोगुने से अधिक हो चुका है। लेकिन, इसके बावजूद, दोगुना अर्थात 200% की वृद्धि तो दूर- मोदी के दूसरे कार्यकाल में किसानों की वास्तविक आय में प्रति वर्ष 2% की दर से गिरावट ही देखने को मिली है। इस विरोधाभास को कैसे सुलझाया जा सकता है?

उर्वरक सब्सिडी में कटौती

सबसे पहले, कृषि मंत्रालय के लिए बजट आवंटन में जो बढ़ोत्तरी की गई है, उसी के साथ-साथ किसानों की वास्तविक आय में गिरावट के इस विरोधाभास के पीछे का रहस्य उर्वरक सब्सिडी में लगातार गिरावट और खाद्य सब्सिडी में वृद्धि से जुड़ा है। रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के तहत उर्वरक विभाग, जो किसानों के बैंक खातों में डायरेक्ट सब्सिडी की राशि भेजता है, को 2022-23 में 2,51,369 करोड़ रुपये प्राप्त हुए थे, जो 2023-24 में घटकर 1,94,000 करोड़ रुपये रह गया था और 2024-25 में यह और गिरकर 1,64,000 करोड़ रुपये रह गया है। यदि मोदी सरकार उर्वरक सब्सिडी को इसी रफ्तार से कम करती जाएगी तो पैदावार कैसे बढ़ेगी और कृषि आय में वृद्धि कैसे हो सकती है?

क्या किसानों को मिलने वाली नकद सहायता दोगुनी की जाएगी?

दूसरा है, 11.8 करोड़ किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपये प्रदान करना, जो अपने आप में किसानों के बीच गंभीर संकट की स्वीकारोक्ति थी। बेशक, यह नकद सहायता राशि 2019 में कोविड-19 संकट के चलते आरंभ की गई थी, और अभी भी जारी है। अधिक से अधिक, इसे उपभोग समर्थन मान सकते हैं, न कि इसे कृषि निवेश और उत्पादन वृद्धि के लिए समर्थन मान लेना चाहिए।

इसके अलावा, मुद्रास्फीति को समायोजित करने के बाद 2019 में जो 6000 रुपये किसानों को दिए जा रहे थे, वे आज मार 4700 रुपये के बराबर होंगे। इसलिए, किसानों के बीच इस राशि को दोगुना कर 12,000 रुपये प्रति वर्ष किये जाने की मांग उठ रही है। क्या निर्मला सीतारमण ऐसा करने जा रही हैं?

लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि 6000 रुपये की नकद सहायता केवल 2 हेक्टेयर तक के स्वामित्व वाले छोटे एवं सीमांत किसानों तक ही सीमित है। वर्षा पर आश्रित शुष्क क्षेत्रों के किसानों के लिए यह राशि बेहद कम है।

छोटे और मंझोले किसान अधर में हैं

प्रयागराज ग्रामीण जिले के कुछ गांवों में जांच से पता चला कि केवल छोटे एवं सीमांत किसानों तक ही नकद सहायता राशि को सीमित कर देने से मध्यम किसान भाजपा सरकार के खिलाफ हो गये, क्योंकि उन्हें भी इनपुट कॉस्ट में बढ़ोतरी के कारण कृषि संकट से दो-चार होना पड़ रहा था। देश में छोटे और मझौले किसानों की संख्या 11.8 करोड़ है, जबकि अर्ध-मध्यम किसानों (2 हेक्टेयर तक खेती करने वाले) की संख्या 1.5 करोड़ है और मध्यम किसानों (2-4 हेक्टेयर तक खेती करने वाले) की संख्या 0.5 करोड़ है, और इसलिए नकद सहायता से वंचित किसानों की संख्या भी अच्छीखासी है, और वे भी संकटग्रस्त हैं और उनकी खेती भी अब काम की नहीं रह गई है। इसलिए कहा जा सकता है की मध्यम किसान मोदी से नाराज है।
क्या अब किसानों की प्रमुख मांग एमएसपी को कानूनी गारंटी मिलेगी?

2019-20 में, मोदी सरकार ने एमएसपी पर 2.5 लाख करोड़ रुपये का खाद्यान्न खरीदा, यानी कुल कृषि उपज के मात्र 6.25% फीसदी हिस्से की ही सरकारी खरीद की गई, जो एमएसपी पर बेहद कम खरीद के कवरेज को दर्शाता है। इस्लिय्ये, कोई आश्चर्य नहीं कि किसान एमएसपी खरीद की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार भविष्य में एमएसपी-खरीद प्रणाली को ही खत्म करने का लक्ष्य बना रही है। क्या मोदी किसानों की आवाज सुनेंगे और खरीद के दायरे को विस्तारित करेंगे?

आख़िरकार, उनकी सरकार ने किसानों के साथ केवल एक लिखित समझौते पर हस्ताक्षर किए थे कि सरकार एमएसपी को कानूनी गारंटी देने की उनकी मांग का सम्मान करती है, ताकि उन्हें अपने आंदोलन को खत्म करने के लिए राजी किया जा सके। क्या एनडीए सरकार अपने वादे को निभाएगी? क्या निर्मला एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी की मांग मानकर किसानों को अनुग्रहित करेंगी? या फिर इस मांग पर एक बार फिर किसान आंदोलन के सिरे चढने से मोदी सरकार को और भी ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा? किसान बेहद उत्सुकता के साथ इस बहुप्रतीक्षित मांग की बाट जोह रहे हैं कि वित्त मंत्री के पास बजट में उनके लिए क्या है।

आधी-अधूरी फसल बीमा कवरेज

देश में करीब 25 करोड़ किसान हैं। लेकिन 2024-25 के अंतरिम बजट में मात्र 4 करोड़ किसानों को फसल बीमा योजनाओं के तहत कवर करने का लक्ष्य रखा गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह देश के किसानों के केवल एक-छठे हिस्से से कुछ अधिक को ही कवर करता है। अंतिम विश्लेषण में, इस योजना से केवल बड़े और अमीर किसानों सहित बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचता है, छोटे किसानों को नहीं।

सिंचाई का नगण्य विस्तार

2022-23 में, देश में कुल 14.1 करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य थी, जिसमें से करीब 7.3 करोड़ हेक्टेयर या 52% के लिए ही सिंचाई की सुविधा थी। दूसरे शब्दों में कहें तो लगभग आधी भारतीय कृषि योग्य भूमि वर्षा पर आश्रित है। सिंचाई कवरेज बढ़ने से किसानों की आय बढ़ेगी। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई), मोदी सरकार की प्रमुख सिंचाई योजना है, जिसे अब राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) नाम दिया गया है, और 2023-24 के बजट में आरकेवीवाई के मद में मात्र 7510 रुपये आवंटित किए गए थे। सिंचाई के लिए इतनी कम धनराशि से कृषि उत्पादकता और किसानों की आय आखिर कैसे बढ़ सकती है।

कृषि आय में गिरावट

ग्रामीण मजदूरी में गिरावट का रुख

निम्नलिखित दुखद घटनाक्रमों पर विचार करें:

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी को फिर से किसानों की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। युवा भी बढती बेरोजगारी से खफा हैं।

क्या युवाओं को मिल सकती हैं ज्यादा नौकरियां?

मौजूदा सकल बेरोजगारी दर लगभग 8% है। मार्च 2024 में ग्रेजुएट्स के बीच बेरोजगारी की दर 29.1% यानी औसत से तीन गुना से भी अधिक है। लोकसभा चुनावों में मोदी को जिस उलटफेर का सामना करना पड़ा उसकी एक मुख्य वजह युवाओं की नाराजगी थी। बेरोजगारी पर युवाओं के गुस्से को कैसे संबोधित करना चाहते हैं मोदी?

14 जून 2022 को मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि सरकार अगले 18 महीनों के दौरान सरकारी रोजगार के क्षेत्र में 10 लाख रिक्त पदों को भरेगी। 27 जुलाई 2023 को केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद के समक्ष घोषणा की थी कि सरकारी नौकरियों में 9.6 लाख पद खाली पड़े हैं। 18 महीने बाद, फरवरी 2024 में, चुनाव की पूर्व संध्या पर मोदी ने घोषणा की थी कि वे युवाओं को 1 लाख रोजगार आदेश वितरित करेंगे। आख़िरकार, चुनाव की पूर्व संध्या पर “जॉब मेला” में युवाओं को लगभग 70,000 जॉब आर्डर वितरित किये गये। यह किसी भूखे हाथी के सामने मुट्ठी भर मूंगफली डालने के समान है। अग्निवीर योजना की चुनावी कीमत भी काफी महंगी पड़ती दिख रही है। क्या निर्मला अग्निवीर से रंग में भंग की भरपाई करेंगी जिसकी हिंदी पट्टी में सत्ताधारी पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ी है?

मोदी सरकार ने नेशनल करियर सर्विस नामक एक इलेक्ट्रॉनिक रोजगार एक्सचेंज का शुभारंभ किया, जो कथित तौर पर नियोक्ताओं और नौकरी की चाह रखने वालों को एक प्लेटफार्म पर लाने का काम करता है। नियोक्ताओं ने पोर्टल पर 1.09 करोड़ नौकरियों की उपलब्धता की घोषणा की, लेकिन नौकरी चाहने वालों की और से मात्र 87 आवेदन ही आए। युवा ऐसी नौकरियां क्यों नहीं ले रहे हैं जो उपलब्ध हैं? यह बेमेल क्यों?

मीडिया के द्वारा बारीकी से जांच करने पर, पता चला कि नियोक्ताओं ने जॉब ओपनिंग के बढ़े हुए आंकड़े घोषित किए थे, जबकि वास्तव में उतनी नौकरियां प्रस्तावित नहीं की थीं। इस प्रकार मोदी सरकार के तहत रोज़गार के आंकड़े को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना एक घोटाला मात्र था। इसी प्रकार, मोदी के अधिकारियों ने नियोक्ताओं को कम से कम एक बार पैसा भेजकर ईएसआई और पीएफ कवरेज को बढ़ा हुआ दर्शाने के लिए उकसाया था, और इस बढ़े हुए ईएसआई-पीएफ कवरेज को नए रोजगार में वृद्धि के तौर पर जारी कर दिया गया, जबकि असल में वे पहले से ही नियोजित श्रमिक थे। न सिर्फ जुमलों, बल्कि मोदी सरकार इमेज-मेकओवर के फर्जी तरीकों में भी खुद को पूरी तरह से मशगूल कर चुकी थी।

महिलाओं को राजनीतिक तौर पर लुभाने के लिए मोदी और क्या कर सकते हैं?

सभी प्रमुख दल अब इस बात को लेकर एकमत हैं कि महिला मतदाताओं का समर्थन चुनावी सफलता के लिए सबसे अहम है। मोदी इसे पहचानने वाले पहले व्यक्ति थे। लेकिन लोकसभा चुनाव ने साफ कर दिया है कि उज्ज्वला या मुद्रा योजना के बावजूद महिला मतदाता मोदी के प्रति आकर्षित नहीं है।

कांग्रेस ने वादा किया था की यदि वह सत्ता में आती है तो महिलाओं को प्रति वर्ष 1 लाख रुपये नकद हस्तांतरण किये जायेंगे। प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की स्थितियों में, इसका मोदी पर प्रभाव पड़ना तय था। कुछ भी हो, महिलाओं ने उन्हें बता दिया है कि वे अतीत की लोकलुभावन उपलब्धियों के भरोसे नहीं रह सकते। लोकलुभावनवाद का लाभांश बेहद कम समय तक के लिए रहता है।

भारत की एकमात्र महिला वित्त मंत्री होने के बावजूद, निर्मला सीतारमण का महिला आबादी के प्रति सरोकार सभी पूर्व वित्त मंत्रियों की तुलना में कम रहा है। आरएसएस के इंडिया फाउंडेशन का यह कट्टर सदस्य आरएसएस के पुरुष-अंधराष्ट्रवादी गढ़ का सदस्य तक नहीं बन पाया। लेकिन आरएसएस के लिंग-पक्षपाती रवैये को आत्मसात करते हुए, निर्मला ईमानदारी से महिला-हितैषी होने की किसी भी छवि से बचती रही हैं।

कर्नाटक में सिद्धारमैया और तमिलनाडु में एमके स्टालिन की महिला समर्थक योजनाएं केंद्र के लिए गंभीर प्रतिस्पर्धी चुनौती पेश कर रही हैं। लाडली बहना योजना के तहत महिलाओं को प्रति माह 1000 रुपये की नकद सहायता की बदौलत भाजपा मध्य प्रदेश में अपनी जोरदार वापसी कर पाने में सफल रही है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इस योजना के सूत्रधार शिवराज सिंह चौहान को पद से हटाने का आदेश दे दिया गया है। लेकिन उनकी इस योजना का भूत निर्मला को परेशान करने जा रहा है। क्या वे महिलाओं के लिए केंद्रीय नकद सहायता योजना शुरू करने के बढ़ते दबाव के लिए तैयार हैं?

देश की महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती कार्यबल में महिलाओं की कम भागीदारी है। सरकार अब दावा कर रही है कि श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन बारीकी से जांच करने पर पता चलता है कि महिलाओं का रोजगार केवल कम वेतन वाली अकुशल नौकरियों में ही बढ़ा है। यह वास्तव में संकटपूर्ण रोजगार है। सरकार कम से कम इतना तो कर सकती है कि महिलाओं को अधिक नई नौकरियां प्रदान करने वाले नियोक्ताओं को वह टैक्स में कुछ रियायतें प्रदान करे। एक मजबूत उपाय उन नियोक्ताओं के लिए दंड को लागू करना होगा जिनके यहां रोजगार का लिंग-अनुपात अभी भी विषम है।

वृहत आर्थिक चिंताएं

मोदी ने भारत को सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था के तौर पर सक्षम बनाने के लिए खुद की पीठ थपथपाई। 2021-22 में 9.7% जीडीपी वृद्धि, 2022-23 में 7.2% और 2023-24 में 8.2% वृद्धि के साथ मोदी सरकार ने पहले से ही जश्न मनाना शुरू कर दिया था कि उनकी सरकार ने अर्थव्यवस्था को उच्च विकास पथ पर वापस लाने का काम किया है। लेकिन जश्न शांत होता, उससे पहले ही आईएमएफ 2024-25 के लिए 7% का कम आंकड़ा लेकर आ गया। इस प्रकार, मोदी के 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी के लक्ष्य को 2024-25 में हासिल करने के बजाय अब 3 साल बाद 2027-28 तक ही हासिल कर पाना संभव हो सकेगा।

भारत में मुख्य मुद्रास्फीति गिरकर 3.1% हो सकती है। लेकिन खुदरा मुद्रास्फीति 4.82% है और इससे भी बुरी बात यह है कि खाद्य मुद्रास्फीति दर 8.9% है। 2023-24 में राजकोषीय घाटा 6.4% था, जो ब्रिक्स देशों में सबसे अधिक था। पिछले कुछ बजटों में बुनियादी ढांचे के निवेश में पूंजीगत व्यय वृद्धि का मुख्य चालक बन चुका है- जो 2015-16 के 3.8 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2023-24 में 12.71 लाख करोड़ रुपये हो गया। इस निवेश का अधिकांश हिस्सा कर्ज के माध्यम से आता है। इससे उच्च वृद्धि का अहसास बना रहता है। इस प्रकार के जबरन फुलाऊ उच्च विकास और कृत्रिम समर्थन के बगैर, भारत की अर्थव्यवस्था 4% से भी कम वाली कुख्यात हिंदू विकास दर की दशा में दिख सकती थी। इस प्रकार की कृत्रिम उच्च वृद्धि से अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का दबाव ही बढ़ेगा। यहां तक ​​कि इस प्रकार की उच्च वृद्धि भी निजी पूंजीपतियों को अधिक बचत करने और निवेश के लिए प्रोत्साहन नहीं देती है। निजी निवेश वृद्धि सुस्त बनी हुई है क्योंकि कुल मांग अभी भी कमज़ोर बनी हुई है।

इसके अलावा कुछ अन्य राजकोषीय प्रतिबद्धताएं भी हैं। मोदी सरकार ने घोषणा की है कि मुफ्त खाद्यान्न योजना 2028 के अंत तक 5 और जारी रहेगी। 4 राज्यों में चुनाव होने हैं और देखना होगा कि क्या सीतारमण इन राज्यों में मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ लोकप्रिय योजनाओं की घोषणा करती हैं या नहीं। भारत की आईटी सफलता की कहानी अभूतपूर्व छंटनी के साथ एक दुखद कहानी में तब्दील हो गई है। लगातार बढ़ते ब्याज के बोझ को भी कम नहीं किया जा सकता है। डिजिटलीकरण की प्रतिकूल परिस्थितियां रोजगार की स्थिति को खतरे में डाल रही हैं। मोदी एंड कंपनी के लिए जश्न मनाना फिलहाल संभव नजर नहीं आता।

(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। sivaramanlb@yahoo.com पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

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