*आज आरक्षण विरोधियों को समझना चाहिए। इस मुल्क में इस सदी के पहले तक क्या हाल थे। अब भी देश के दूर दराज इलाकों में भी यही हाल है।*
17 साल का एक लड़का 4 रुपये महीने की तनख्वाह पर पूना में अंग्रेजों के एक क्रिकेट क्लब में माली की नौकरी पर लगा। साल था 1892। पिच रोल करना, मैदान की देखभाल और नेट लगाना जैसे काम उसकी नौकरी का हिस्सा थे। काम करने के दौरान क्लब के एक खिलाड़ी जेजी ग्रेग ने एक दिन उनसे अपनी प्रैक्टिस के लिए बॉल फ़ेंकने को कहा। उस लड़के ने उस दिन ऐसी बॉलिंग की कि उसके बाद वह इतिहास बन गया। उसकी बाएँ हाथ की स्पिन गेंदबाजी ने न केवल अंग्रेजों को नचाया बल्कि देश-दुनिया में अपना लोहा मनवाया। यह लड़का था- बालू पालवणकर।
उनका जन्म 19 मार्च, 1876 को कर्नाटक के धारवाड़ में हुआ था। चमार जाति में जन्मे बालू का परिवार चमड़े का काम करता था। लेकिन उनके पिता सेना में थे। बालू और उनके एक भाई शिवराम ने पूना में सेना के अधिकारियों के फ़ेंक दिए गए साजो-सामान से क्रिकेट का ककहरा सीखा। एक अंग्रेज की बैटिंग प्रैक्टिस कराते-कराते बालू ऐसे निखरे की उनकी प्रतिभा का लोहा सवर्णों को भी मानना पड़ा।
उस जमाने में क्रिकेट जैसे महँगे खेल में राजा-महाराजाओं और सवर्ण जातियों का दबदबा था (जो आज भी है)। जब पूना की हिंदू जिमखाना टीम (उस समय धर्म आधारित क्लब थे) ने अंग्रेजों को मैच खेलने की चुनौती दी। तो इस मैच में बालू को हिंदू जिमखाना टीम में जगह मिली। बताया जाता है कि बालू ने उस मैच में सबके छक्के छुड़ा दिए और बालू की मदद से हिंदू जिमखाना टीम ने अंग्रेज क्लब को हरा दिया। इसके बाद तो जैसे उन्होंने अपना सिक्का ही जमा लिया। हालाँकि अपर कॉस्ट खिलाड़ी मैदान पर जरूर साथ खेलते थे लेकिन मैदान के बाहर उन्हें घोर अपमान और भेदभाव झेलना पड़ता था। उनके खाने-पीने के बर्तन अलग थे। मैदान पर जाने से पहले उन्हें अपने बर्तन खुद ही साफ करने पड़ते थे। बाकी खिलाड़ी न उनके साथ उठते-बैठते थे और न ही उनके विकेट लेने पर जश्न मनाते। उन्हें बल्लेबाजी का मौका सिर्फ इसलिए नहीं मिलता था,कि क्योंकि वो ब्राह्मण नहीं थे। तब बैटिंग केवल अभिजात्य वर्ग कर सकता। पर चूँकि बालू की गेंदबाजी का कोई तोड़ नहीं था, ऐसे में उन्हें टीम में जगह मिलती रही।
1901 में वह महाराजा ऑफ नटोर की टीम का भी हिस्सा बने। 1911 में जब पटियाला महाराजा ने भारत के सभी क्लब के क्रिकेटर्स को इकट्ठा किया और इंग्लैंड दौरे पर गए। तो इस टीम का हिस्सा बालू भी थे। यहाँ 23 मैच खेले गए जिनमें से 14 फर्स्ट क्लास मैच थे। इस दौरान उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, एमसीसी, लीसेस्टरशर, केंट और ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी के खिलाफ 27 विकेट लिए। इस दौरे पर उन्होंने 18.84 के औसत से 114 विकेट चटकाए। और आगे भी अपना प्रदर्शन जारी रखा। अपने कैरियर में 33 फर्स्ट क्लास मैचों में उन्होंने 179 विकेट लिए और 376 रन भी बनाए। 17 बार एक पारी में 5-5 विकेट लिए। 103 रन पर 8 विकेट उनकी सबसे बेहतरीन परफॉर्मेंस रही। लेकिन इसके बावजूद उन्हें कभी कप्तानी नहीं मिली। बालू से उनके भाईयों ने प्रेरणा ली और बाद में उनके तीन और भाई भी हिंदू जिमखाना टीम के लिए खेले।
उनके असाधारण प्रदर्शन ने उन्हें ख़ूब मशहूर किया। बाबासाहेब भी उनसे खास प्रभावित थे और उन्हें दलितों का हीरो बताया करते थे। दोनों के क़रीबी रिश्ते भी रहे। बालू का रोल इतना बढ़ा कि जब गांधी और अंबेडकर के बीच मतभेद हुए, तो उन्होंने मध्यस्थ की तरह काम किया। हालांकि बाद में उनके और बाबासाहेब के बीच भी मतभेद हुए और वे अलग हो गए। आगे चलकर उन्होनें राजनीति में भी हाथ आजमाया। वह हिंदू महासभा के टिकिट पर 1933 में बॉम्बे म्यूनिसिपैलिटी के चुनाव में खड़े हुए लेकिन हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद 1937 में बॉम्बे असेंबली के लिए वो कांग्रेस की ओर से अंबेडकर के खिलाफ चुनाव लड़े लेकिन फिर हार गए। राजनीति में वे भले ही न चमकें हो क्रिकेट में एक टाइम उनका जलवा रहा। 4 जुलाई 1955 को उनका निधन हो गया। आज भारत के पहले दलित क्रिकेट की पुण्यतिथि है।
इतने शानदार कैरियर के बाद भी क्रिकेट इतिहासकारों ने बालू की अनदेखी की। जहाँ अब भी एकलव्य का अंगूठा काटने वाले द्रोणाचार्य के नाम पर श्रेष्ठ कोच का पुरस्कार दिया जाता हो, वहाँ दलित नायकों को गुमनामी के अँधेरे में धकेलेने की कोशिश पर हैरानी क्यों नहीं
दिल से श्रद्धांजलि…