अग्नि आलोक

 ” राष्ट्रपति जवाहरलाल की जय!”

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【जवाहरलाल नेहरू ने ये लेख1937में, तब लिखा था जब तीसरी बार भी उन्हें ही कांग्रेस का राष्ट्रपति (अध्यक्ष) बनाने की पुरजोर मांग, कांग्रेस के गलियारों में गूंजने लगी थी।    लोकप्रियता के चरम शिखर पर खड़े, जनतावादी और समाजवादी नेहरू को तब ये डर सताने लगा था कि कहीं उनकी ये अपार लोकप्रियता उन्हें तानाशाह न बना दे।   उसी संदर्भ में लिखा गया ये लेख, नेहरू के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक,आत्मसमालोचक,और आत्मदर्शी व्यक्तित्व को उजागर करने वाला एक ऐसा लेख है जिसकी कोई दूसरी बानगी मिलना असंभव है।       आत्ममुग्ध होना सरल है लेकिन आत्मसमालोचक और आत्मदर्शी बनकर,दार्शनिक दृष्टि से खुद के गुणों और अवगुणों की समीक्षा करना, नेहरुजी की एक दुर्लभ आध्यात्मिक उपलब्धि है।       इतिहास और साहित्य का एक अनमोल दस्तावेज है-नेहरूजी का ये लेख!      वर्तमान राजनीतिक संदर्भो में इस लेख की प्रासंगिकता तो देखिये! –विनोद कोचर 】

प्रतीक्षा करती हुई भीड़ के बीच से तेजी से गुजरते हुए राष्ट्रपति ने सर उठाकर देखा, उनके हाथ उठे और नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए, और उनका पीला, दृढ़ चेहरा एक मुस्कान से प्रदीप्त हो गया।यह मुस्कान उनकी अपनी भावुकता की परिचायक थी, और जिन लोगों ने उसे देखा उनपर उसका तुरंत प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी प्रसन्नमुख होकर जयध्वनि की।

   मुस्कान आई और गई तथा फिर चेहरा कठोर और उदास हो गया, मानो उस भावना का, जिसे उसने उपस्थित जनसमूह में जागृत किया था, उसपर प्रभाव ही न हो।प्रायः ऐसा प्रतीत हुआ कि उस मुस्कान और उसके साथ की मुद्रा में विशेष वास्तविकता नहीं है; यह सब उस जनसमूह की सदिच्छा प्राप्त करने का एक बनावटी ढंग मात्र था, जिसे कि उसने हृदय में बिठा रखा था।क्या यह अनुमान ठीक था?

      जवाहरलाल को फिरसे ध्यान से देखिए।एक लंबा जुलूस है और दसियों हजार आदमी उनकी मोटरगाड़ी को घेरे हुए हैं और बेसुध से उनकी जयध्वनि कर रहे हैं।वह अपनी मोटरगाड़ी की गद्दी पर, अपनेको खूब संभालते हुए सीधे तनकर खड़े हो जाते हैं; देखने में लंबे लगते हैं और एक देवता की भांति शांत, और उस अपार जनसमूह से अविचलित हैं।अचानक फिर वही मुस्कान, या एक उन्मुक्त हंसी दिखती है, तनाव टूटता है और भीड़ भी उन्हीं के साथ हंस पड़ती है–बिना यह जाने हुए कि वह किस बात पर हंस रही है।अब वह देवता स्वरूप नहीं रह जाते, बल्कि इंसान बन जाते हैं, और जिन हजारों व्यक्तियों के बीच वह घिरे हुए हैं उनसे एक अपनापा और संगी का रिश्ता कायम करते हैं, और जनसमूह गद्गद हो जाता है और मैत्रीभाव से उन्हें अपने हृदय में स्थान देता है।लेकिन मुस्कान लुप्त हो गई है और फिर वही पीला और दृढ़ चेहरा दिखाई पड़ रहा है।

     क्या यह सबकुछ स्वाभाविक है, या एक सार्वजनिक नेता का स्वांग मात्र है?शायद दोनों ही बातें हैं और लंबे अभ्यास ने स्वभाव का रूप ग्रहण कर लिया है। सबसे प्रभावशाली मुद्रा वह है जिसमें मुद्रा का आभास न मिले,और जवाहरलाल ने बिना रंग और बुकनी लगाए हुए, अभिनय करने की कला खूब सीख ली है।लापरवाही और बेलोसी के दिखावे के साथ वह सार्वजनिक नाट्यमंच पर बड़ा कुशल और कलापूर्ण अभिनय करते हैं।

            यह सब उन्हें और उनके देश को कहां ले जाएगा?इस अन्यमनस्कता के दिखावे की तह में, आखिर उनका उद्देश्य क्या है?इस छद्म मुद्रा के पीछे उनकी क्या इच्छाएं, कैसी शक्तिलालसा और क्या अतृप्त आकांक्षाएं हैं?

        हर हालत में यह प्रश्न मनोरंजक है,क्योंकि जवाहरलाल का व्यक्तित्व ऐसा है कि वह बरबस अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।लेकिन हमारे लिए इन प्रश्नों का गहरा महत्व भी है,क्योंकि जवाहरलाल का,वर्तमान हिंदुस्तान और संभवतः आने वाले हिंदुस्तान से एक अटूट नाता है और उनमें यह शक्ति है कि वह हिंदुस्तान का बहुत भला भी कर सकते हैं और उतना ही बुरा भी।

       इसलिए इन प्रश्नों के उत्तर हमें ढूंढने हैं।

     करीब दो साल से वह कांग्रेस के सभापति हैं और कुछ लोगों का ये खयाल है कि वे कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के पिछ-लगुए मात्र हैं और दूसरों के रोक-दबाव से चलने वाले हैं।फिरभी वह अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और जनता के सभी तरह के लोगों पर अपना प्रभाव बराबर दृढ़तापूर्वक बढ़ाते ही जा रहे हैं।वह किसान और कामगार, व्यापारी और फेरीवाले, ब्राह्मण और अछूत, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी-इन सबतक पहुंचते हैं जोकि भारतीय जीवन की विविधता के अंग हैं।जिस भाषा में वह इन सबसे बोलते हैं, वह औरों की भाषा से कुछ अलग है, और वह सदा इन सबको अपने पक्ष में लाने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।इस अवस्था में भी वह बड़ी स्फूर्ति के साथ हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में सर्वत्र पहुंचते हैं और सभी जगह अद्भुत लोकप्रियता से उनका स्वागत हुआ है।उत्तर से लेकर कन्याकुमारी तक, एक विजयी सीज़र की भांति उन्होंने यात्रा की है,और जहां जहाँ वह गए हैं, उन्होंने अपने यश की कथाएँ छोड़ी हैं।

      क्या यह सब उनका शौक और दिलबहलाव है या इसमें कोई गहरी चाल है, या यह केवल किसी ऐसी शक्ति का खेल है जिसे वह आप समझ नहीं पाते हैं?अथवा क्या यह उनकी शक्तिलालसा है,जिसका वर्णन उन्होंने अपनी ‘आत्मकथा’ में किया है और जोकि उन्हें एक जनसमूह से दूसरे जनसमूह की ओर प्रेरित करती है और उनसे अपने आप चुपके से कहलाती है कि, ‘मैंने इन जनधाराओं को अपने हाथों में समेटकर अपनी इच्छाशक्ति को नक्षत्रों द्वारा आकाश के आरपार अंकित किया है?’

             अगर उनकी धुन बदल जाए तो क्या हो?जवाहरलाल जैसे लोगों पर–उनमें बड़े और अच्छे कामों को करने की चाहे जैसी शक्ति हो–जनसत्तात्मक व्यवस्था में भरोसा नहीं किया जा सकता।वह अपने को जनतावादी और समाजवादी कहते हैं और इसमें संदेह नहीं कि सच्चे उत्साह से वह ऐसा कहते हैं, फिरभी हरेक मनोवैज्ञानिक जानता है कि मस्तिष्क अंत में हृदय का गुलाम होता है और तर्क को तो सदा घुमाकर मनुष्य की अदम्य प्रेरणाओं और इच्छाओं के अनुकूल बनाया जा सकता है।

     तनिक सी उमेठ काफी है और जवाहरलाल एक तानाशाह बन सकते हैं और धीमी गति से चलने वाली जनसत्ता के आडंबरों को ठुकरा सकते हैं।जनतावाद और समाजवाद की भाषा और नारों को भले ही वे अपनाए रहें लेकिन हम सभी जानते हैं कि इसी प्रकार की भाषा पर फासिस्टवाद भी पला और पुष्ट हुआ है और बाद में उसने इसे व्यर्थ के कचरे की भांति अलग फेंक दिया है।

      विश्वास और स्वभाव से, जवाहरलाल निश्चय ही फासिस्ट नहीं हैं, उनमें ऊंचे घरानों की सहज बुद्धि इतनी पर्याप्त है कि फासिस्टवाद के भोंडेपन और गंवारूपन को वह सहन नहीं करेंगे।उनकी मुखाकृति और स्वर बताते हैं कि, “सार्वजनिक स्थानों पर घरेलू मुखाकृतियाँ जितनी आकर्षक और सुंदर दिखती हैं, सार्वजनिक मुखाकृतियाँ घरों के भीतर उतनी सुंदर नहीं लगतीं।”

     फासिस्ट मुखाकृति एक बनावटी मुखाकृति है और वह घर-बाहर कहीं भी अच्छी नहीं लगती।जवाहरलाल के चेहरे और स्वर में निश्चय ही घरेलूपन है।इस बात में कोई धोखा नहीं हो सकता कि जनसमूह में और सार्वजनिक सभाओं में भी उनके बोलने का ढंग एक आत्मीयता लिये हुए होता है।ऐसा जान पड़ता है कि वह अलग अलग व्यक्तियों से निजी और घरेलू ढंग से बात कर रहे हों।उनकी बातों को सुनकर और उनके संवेदनशील चेहरे को देखकर मन में कौतूहल होता है, यह जानने का कि इन सबके पीछे कौनसे विचार और इच्छाएं हैं जो काम कर रही हैं, कैसी जटिल और दबी हुई मनोवृत्तियां, कैसे दमन किये हुए और शक्ति में परिवर्तित आवेग और क्या आकांक्षाएं हैं जिन्हें वह अपने से भी स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकते।

        सार्वजनिक भाषण देते हुए, विचारों का क्रम उन्हें बांधे हुए रहता है,लेकिन दूसरे अवसरों पर उनकी आकृति उनका भेद खोल देती है; क्योंकि उनका मन भटककर नए क्षेत्रों, नई कल्पनाओं में पहुंच जाता है और एक क्षण के लिए अपने साथ के व्यक्ति को भूलकर अपने मस्तिष्क द्वारा कल्पित पात्रों से मानो चुपके चुपके बातें करने लगते हैं।क्या वह उन मानवी संपर्कों के विषय में सोचते  हैं जिन्हें कि अपनी जीवनयात्रा में–जो कि कठिन और तूफानी रही है–उन्होंने खो दिया है लेकिन जिनकी वह कामना करते हैं?या वह एक स्वनिर्मित भविष्य और उसके संघर्ष तथा उसमें प्राप्त विजय का स्वप्न देखते हैं?इतना तो उन्हें जानना चाहिए कि जो रास्ता उन्होंने चुना है उसमें विश्राम नहीं है, किनारे बैठकर दम लेने का अवसर नहीं है और विजयप्राप्ति भी अधिक भार डाल देती है, जैसाकि लारेंस ने अरब वालों से कहा था–अर्थात जीवन के उद्देश्य की सिद्धि।

     जवाहरलाल फासिस्ट नहीं बन सकते।फिरभी वह सभी संयोग उपस्थित हैं जिनसे तानाशाह बना करते हैं–महान लोकप्रियता, एक सुनिश्चित उद्देश्य के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, स्फूर्ति, गर्व, संगठन शक्ति, योग्यता, कड़ाई;और जनता के प्रति उनका चाहे जितना प्रेम हो, उनमें दूसरों के प्रति एक असहिष्णुता है और कमजोरों और अयोग्यों के प्रति घृणा का एक भाव है।उनके क्रोध के आवेगों से लोग भलीभांति परिचित हैं; वह उसपर काबू भले ही पा लें, उनके होठों की फड़क उनका भेद खोल देती है।काम को पूरा कराने की, जो कुछ नापसंद हो उसे मिटाकर नया निर्माण करने की उनकी प्रगल्भ इच्छा अधिक समय तक जनतावाद के धीमी गति से चलने वाले व्यापारों से मेल नहीं खा सकती।बाहरी रूपरेखा को कायम रखते हुए वह अवश्य अपनी इच्छाशक्ति से उसे झुकाना चाहेंगे।साधारण वातावरण में वह एक सुयोग्य और सफल कार्यसंचालक होने की क्षमता रखते हैं, लेकिन इस क्रांति के युग में तानाशाही आगे खड़ी रहती है और क्या यह संभव नहीं कि जवाहरलाल अपने को एक तानाशाह समझने लग जाएं।

      यह बात जवाहर के लिए और हिंदुस्तान के लिए भयावह होगी, क्योंकि तानाशाही के जरिए हिंदुस्तान स्वतंत्रता नहीं प्राप्त कर सकता।एक सुयोग्य और उदार तानाशाही के अधीन वह चाहे थोड़ा बहुत पनप ले, लेकिन वास्तव में वह दबा रहेगा और उसके निवासियों को गुलामी से उद्धार पाने में विलंब हो जाएगा।

    एकसाथ दो बरस तक जवाहरलाल कांग्रेस के राष्ट्रपति रहे हैं और कई प्रकार से उन्होंने अपने को कांग्रेस के लिए इतना जरूरी बना लिया है कि बहुत से लोगों का सुझाव है कि वह तीसरी बार फिर राष्ट्रपति चुने जाएं।लेकिन हिंदुस्तान और खुद जवाहरलाल के हक में इससे बड़ी असेवा न होगी।उन्हें तीसरी बार चुनकर हम यह दिखाएंगे कि व्यक्ति विशेष को हम कांग्रेस से बड़ा मानते हैं और इस प्रकार हम जनता के विचारों को सीज़रशाही के पथ में प्रवृत्त करेंगे।स्वयं जवाहरलाल में हम गलत प्रवृत्तियों को उभारेंगे और उनकी अहमन्यता व गर्व को बढावेंगे।उन्हें विश्वास हो जाएगा कि एकमात्र वही इस भार को संभाल सकते हैं या हिंदुस्तान की समस्याओं को सुलझा सकते हैं।हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पदों के प्रति जाहिर में अपनी बेरुखी दिखाने के बावजूद पिछले सत्रह वर्षों से वह कांग्रेस में एक न एक महत्वपूर्ण पद थामे रहे हैं।वह सोचने लगेंगे कि उनके बिना लोगों का काम न चलेगा और किसीको भी यह सोचने देना, चाहे वह जितना बड़ा व्यक्ति हो, ठीक नहीं।उनके लगातार तीसरी बार कांग्रेस का राष्ट्रपति बनने में हिंदुस्तान का हित नहीं है।

      इस तरह के विचार के लिए एक व्यक्तिगत कारण भी हो सकता है।यद्यपि वह बहादुरी से काम में लगे हैं, फिरभी यह स्पष्ट है कि जवाहरलाल थक गए हैं और बासी पड़ गए हैं।और अगर वह राष्ट्रपति बने रहे तो और भी ढल जाएंगे।उन्हें दम मारने का अवसर यों भी नहीं मिल सकता, क्योंकि शेर की सवारी करने वाले को काठी छोड़ने का मौका कहाँ मिलता है?

        फिरभी हम उन्हें गर्व से, बहकने से, और बहुत भार तथा जिम्मेदारी में पड़कर मानसिक शक्ति-क्षय से रोक सकते हैं।भविष्य में उनसे अच्छे कामों की आशा रखने का हमें हक़ है।हमें कोई काम ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे इस आशा पर संकट आवे।न हमें उनको ही अति प्रशंसा द्वारा बिगाड़ना चाहिए।उनमें जो भी अहमन्यता है, बहुत है,उसे रोकना चाहिए।हमें सीज़रों की आवश्यकता नहीं है।”

( स्रोत:  ‘ राजनीति सेदूर’,)

 (लेखक:जवाहरलाल नेहरू)

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