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 ‘वेल्थ क्रिएटर्स’ की प्रशंसा वे लाल किले से भी करते हैं-प्रधानमंत्री

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सत्येंद्र रंजन 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर दो टूक पैगाम दिया कि पूंजीपतियों से उनकी सरकार की निकटता के आलोचकों को वे ठेंगे पर रखते हैं। मोदी ने जो बात आम चुनाव से पहले एक मीडिया इंटरव्यू में कही थी, उसे इस बार उन्होंने उद्योगपतियों के सामने जाकर दोहराया। देश में बढ़ती गैर-बराबरी के बारे में इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया था, तब उन्होंने इस चिंता का मखौल उड़ाया था और कहा था कि वे ‘वेल्थ क्रिएटर्स’ की प्रशंसा वे लाल किले से भी करते हैं। 

अब यह जाहिर हुआ है कि चुनाव में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को लगे झटकों से प्रधानमंत्री के नजरिए पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। देश में मोनोपॉली कायम होने, अर्थव्यवस्था पर मोनोपॉली घरानों की कसते गए शिकंजे और इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यस्था की शिथिल हुई गति से वे तनिक भी चिंतित नहीं है।       

मोदी ने कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआआई) के सम्मेनल को संबोधित करते हुए कहा कि “वेल्थ क्रिएटर्स” को वे “विकसित भारत” के निर्माण की परियोजना का माध्यम मानते हैं। उन्हें वे भारत की ग्रोथ स्टोरी का वाहक समझते हैं। (https://x.com/narendramodi/status/1818274875309461533) जाहिर है, “वेल्थ क्रिएटर्स” से उनका मतलब उन अरबपतियों से ही है, जिनकी संपत्ति उनकी सरकार की नीतियों की वजह से दिन दूनी-रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ी है।

जब प्रधानमंत्री ने ये बातें कहीं, तो उद्योगपतियों ने करतल ध्वनि की। इस वक्तव्य  से उन्हें भरोसा हुआ होगा कि चुनावी झटकों के बावजूद मोदी सरकार आम जन की जेब से उनकी तिजोरी में वेल्थ ट्रांसफर की नीतियों को जारी रखेगी। अब ऐसा “विकसित भारत” के दिवास्वप्न के जरिए होगा, जिसकी चर्चा प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के नेताओं ने चुनाव अभियान के बीच में छोड़ दी थी। संभवतः इसीलिए कि बढ़ती आर्थिक मुसीबतों से त्रस्त लोगों को लुभाने के बजाय यह सपना उन्हें उद्विग्न कर रहा था। 

बहरहाल, अब चुनाव के बाद की स्थितियां मैनेज हो चुकी हैं। सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं की निरंतरता जारी है- यह स्पष्ट करने में भी मोदी कामयाब हो चुके हैं। जबकि खुद उनकी सरकार भी यह नहीं मानती कि ये नीतियां सफल हो रही हैं- कम से कम पूरे देश की प्रगति और आम जन की खुशहाली के लिहाज से तो बिल्कुल ही नहीं। 

यह बात खुद सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण (2023-24) में कही गई कि हाल के वर्षों में उद्योग घरानों को भारी मुनाफा हुआ है, लेकिन उन्होंने ना तो नई नौकरियां पैदा की हैं और ना ही अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में मुनाफे के अनुपात में वृद्धि की है।

अब सीआईआई के सम्मेलन में जिस तरह की लाचारी वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने जताई, उसे भी सरकारी नीतियों की विफलता का परिचायक ही माना जाएगा। दरअसल, उद्योगपतियों के सामने कोई सरकार वैसी लाचारी जताए, जैसा गोयल करते हुए दिखे, वैसा शायद ही पहले कभी हुआ होगा। वहां मोदी ने कहा कि दुनिया में भारत अकेला चमकता स्थल है, जिसका लाभ “उद्योगपतियों को उठाना चाहिए।” इसमें अंतर्निहित है कि उद्योगपति ऐसा “लाभ उठाने” की पहल नहीं दिखा रहे हैं। मतलब वे अपेक्षित निवेश नहीं कर रहे हैं। 

बहरहाल, पीयूष गोयल का लहजा सख्त था। उन्होंने कहा कि उद्योगपतियों के इस नजरिए के कारण सरकार ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन से मुक्त व्यापार समझौते नहीं कर पा रही है। साथ ही वह आसियान के साथ यूपीए सरकार के समय हुए मुक्त व्यापार समझौते पर दोबारा बातचीत करने में खुद को अक्षम पा रही है। वजह यह है कि भारतीय उद्योगपति ऐसे समझौतों में शुल्क संबंधी रियायतें चाहते हैं, लेकिन इस पर तैयार नहीं होते कि संबंधित देश को भारत में भी वैसी ही सुविधा मिले। 

गोयल ने एक और शिकायत यह जताई कि भारतीय उद्योगपति मेड-इन-इंडिया उत्पादों को नहीं खरीदते। बिना यह सोचे कि इसका देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर क्या असर होगा, वे आयातित उत्पादों को तरजीह देते हैं। 

इन बातों का क्या अर्थ है? स्पष्टतः यही कि सरकार तो उद्योग जगत के अनुरूप चल रही है, मगर उद्योगपति निवेश कर और रोजगार पैदा कर उसकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर रहे हैं। दूसरी बात का संबंध भारत में बने उत्पादों की गुणवत्ता से जुड़ता है। अब भारतीय उद्योगपति ही इन उत्पादों को इस्तेमाल नहीं करते, तो विदेशी बाजारों में उन्हें कितना महत्त्व मिलेगा? 

जाहिरा तौर पर ये बातें सरकार की आर्थिक नीतियों की नाकामी की पुष्टि हैं। यह साफ है कि “धन-निर्माताओं” की धन-वृद्धि पर केंद्रित नीतियों से देश की समग्र अर्थव्यवस्था वह लाभ नहीं हुआ है, जिसका सपना सरकार दिखाती रही है। इसके बावजूद सरकार इन पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं, तो उसका कारण उसकी सत्ता का समर्थन आधार है। पूंजीपतियों का प्रचार तंत्र और धन ही वह माध्यम हैं, जिनकी वजह से लोगों की बढ़ती मुश्किलों के बावजूद सत्ता पक्ष नैरेटिव कंट्रोल करने में सफल बना रहा है। इसी कारण सत्ताधारी दल आर्थिक समस्याओं के विकराल होते रूप और आम जन के सामने गंभीर होती अवसरहीनता की स्थिति से बेफिक्र बना रहा है।      

इस बात की मिसाल 23 जुलाई को पेश हुआ बजट भी है, जिसके बारे में सरकार की तरफ से कहा गया कि इसमें बेरोजगारी की समस्या पर उचित ध्यान दिया गया है। लेकिन सरकार नजरिया क्या है, उस पर गौर कीजिए। 

वित्त सचिव टीवी सोमनाथन ने एक मीडिया इंटरव्यू में भरोसा जताया कि केंद्रीय बजट में घोषित रोजगार और कौशल प्रशिक्षण की योजनाएं इसी वित्त वर्ष में शुरू हो जाएंगी। इनमें एक करोड़ नौजवानों को टॉप 500 कंपनियों में ट्रेनिंग देने की योजना भी शामिल है। उन्होंने कहा कि इस योजना का डिजाइन उद्योग जगत के साथ राय-मशविरा कर तैयार किया जाएगा। सोमनाथन ने कहा- ‘हमें उम्मीद है कि ये सभी योजनाएं इसी वित्त वर्ष में शुरू हो जाएंगी। हमने रोजगार प्रोत्साहन योजनाओं का कवरेज यथासंभव व्यापक रखने का प्रयास किया है। हमने इन्हें क्षेत्र विशेष या तकनीक विशिष्ट रखने की कोशिश नहीं की है।’ 

क्या ये बातें यह जाहिर नहीं करतीं कि बिना किसी तैयारी और बजटीय प्रावधान के रोजगार योजनाओं की घोषणा कर दी गई है? पहली बात, इन योजनाओं को 2024-25 के बजट में शामिल किया गया है, तो इसको लेकर कोई अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए कि इनके शुरुआत का वर्ष कौन-सा होगा। ऐसे में वित्त सचिव के यकीन और उम्मीद का क्या अर्थ है? 

दरअसल, सवाल तो तभी उठे थे, जब बजट में इनके लिए रकम का प्रावधान देखने को नहीं मिला। बाद में वित्त मंत्री ने कहा कि ट्रेनिंग योजनाओं को सीएसआर के तहत लागू किया जाएगा। तो रोजगार के मामले में सरकार का रुख इस हद तक तदर्थ है। ऐसा लगता है कि आम चुनाव में लगे झटके के बाद सरकार को लगा कि उसे रोजगार के मोर्चे पर कुछ करते दिखना चाहिए। सरकार के आर्थिक सलाहकारों के साथ बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस बार बजट में ध्यान रोजगार पर केंद्रित होना चाहिए। तो वित्त मंत्री ने बिना पूरा होमवर्क किए कुछ घोषणाएं उसमें शामिल कर लीं! 

जबकि मुद्दा गंभीर है। बजट सरकार की संसदीय जवाबदेही से जुड़ा विषय है। जो योजनाएं बजट दस्तावेज के हिस्से के रूप में पारित होती हैं, उनके बारे में ऐसा नजरिया अस्वीकार्य होना चाहिए। बजट सिर्फ ऐसी सुर्खियां गढ़ने का मौका नहीं होना चाहिए, जिनका कोई ठोस आधार ना हो। लेकिन जब ‘वेल्थ क्रिएटर्स’ प्रधानमंत्री की वैसी बातों पर करतल ध्वनि कर रहे हों, जिनमें संभवतः उन्हें भी यकीन नहीं है, तो फिर सत्ता पक्ष बाकी बातों की चिंता क्यों करे?

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