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 संविधान दिवस मनाने की भावना के पीछे राजनीतिक दलों का ओछापन दिखाई दिया !

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         संविधान दिवस मनाने का उद्देश्य इसके महत्व और मूल्यों को प्रसारित करना है। संविधान दिवस पर संविधान में वर्णित मूल्यों- न्याय, समानता और स्वतंत्रता तथा आदर्शों को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दोहराना है। संविधान दिवस को राजनीति से ऊपर उठकर मानना चाहिए, ताकि इसका महत्व और उद्देश्य संरक्षित रहे। नई पीढ़ी सयाने लोगों से अच्छी बातें सीख सके। 

      इतने अच्छे पवित्र उद्देश्य के बाद जब यह दिन राजनीति की भेंट चढ़ जाता है तो इस दिवस के मानने के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होना स्वाभाविक है। बीते 26 नवंबर को भी कुछ ऐसा ही हुआ। विभिन्न राजनीतिक दलों ने संवैधानिक भावना के विपरित संविधान दिवस का उपयोग अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए करना उचित समझा। ऐसा करने से संविधान दिवस मनाने की भावना के पीछे ओछापन दिखाई दिया।  जबकि आम भारतीयों के लिए गर्व, स्वाभिमान व हर्ष का विषय है कि संविधान सभा द्वारा अंगीकार किये जाने के 75 वर्ष पूर्ण होकर भारतीय प्रजातंत्र सुदृढ़ हुआ है। देश के प्रत्येक नागरिक को संविधान पर गर्व है और गर्व रहेगा। 

         इस अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संसद को संबोधित करते हुए कहा कि ‘संविधान हमारे लोकतांत्रिक गणराज्य की मजबूत आधारशिला है। हमारा संविधान हमारी सामूहिक और व्यक्तिगत गरिमा सुनिश्चित करता है। इसलिए विकसित भारत बनाने में योगदान दे भारतवासी’। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वोच्च न्यायालय के एक कार्यक्रम में कहा कि ‘हमारा संविधान मार्गदर्शक है और हमें उचित मार्ग दिखाया है’। 

इस अवसर पर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने भी सक्रियता दिखाई और अपनी पार्टी लाइन के हिसाब से संविधान को देखा, परखा और बखान किया। यद्यपि संविधान दिवस के पवित्र अवसर पर आरोप- प्रत्यारोप की गुंजाइश नहीं रहती है, लेकिन आदतन राजनीतिक नेता घिनौनेपन का खेल खेलने से बाज नहीं आए और वाणी में टुच्चापन झलकता दिखाई दिया।

       मजेदार बात यह है कि पिछले एक दशक से बड़ी-बड़ी डींग हांकने और 50 साल तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस के नेता राहुल गांधी, जो की ‘मोहब्बत की दुकान’ के इकलौते मालिक और वारिस है । 10 साल का संसदीय इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपनी करनी और कथनी को चौराहे पर नीलाम किया और संसद को सुचारू रूप से नहीं चलने दिया। अभी भी नहीं चलने दे रहे हैं। राहुल गांधी यह क्यों भूल जाते हैं या भूल रहे हैं कि ‘जब हम किसी पर उंगली उठाते हैं तो तीन उंगली हमारी और इशारा करती है’। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने अगले दो महीना तक ‘संविधान रक्षक अभियान’ चलाने की घोषणा की। आम जनता के लिए इसका औचित्य तो समझ से परे है ही, लेकिन सबसे अशोभनीय और कष्टदायक उनके मुंह से निकला वाक्य- “संविधान को कुचलने और कमजोर करने की साजिश रची गई है”। प्रजातंत्र के निर्मल नभ को साफ-सुथरा देखने वाले नागरिक को हज़म नहीं हो रहा है। इस एक तरफा आदमी को कौन समझाए की दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान: 511 धाराएं , 264 पन्ने ,14 किलो वजन,11 सत्र जिसमें 114 दिन संविधान के मसौदे पर विचार-विमर्श और जिसको 299 विद्वानों ने, 22 समितियां के माध्यम से,  2 वर्ष 11 माह 18 दिन तक 53000 नागरिक संविधान निर्माण के दौरान हुई बहस के साक्षी बने संविधान को भला कौन को कुचल सकता है ?  कौन कमजोर कर सकता है?  इस तरह के बेतुके बयान पिछले एक दशक से यहां-वहां देते नहीं थक रहे हैं कि “संविधान खतरे में है। वर्तमान सरकार के संविधान को बदलने की कोशिश हम कामयाब नहीं होने देंगे”। लगभग इसी तरह की बात भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन के 26 दलों के नेताओं ने भी ‘किंतु परंतु’ लगाकर की।

           भारतीय जनता पार्टी भी पीछे रहने वाली कहां । इधर से भी बयान आया कि कांग्रेस ने हमेशा संविधान को ‘किताब’ माना, परंतु हमने ‘ग्रंथ’ मानकर हमेशा इसका सम्मान किया है। कांग्रेस ने नेहरू , इंदिरा, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में 90 बार संविधान का दुरुपयोग कर लोकतंत्र की हत्या की है। कांग्रेस, वामपंथी और द्रविड़ियन दल के नेता संविधान को एक कानूनी दस्तावेज के रूप में परिभाषित करते हैं। यह भाव डॉ. बी.आर. अंबेडकर की मंशा के विपरीत है । डॉ आंबेडकर के अनुसार “संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है, यह जीवन का माध्यम है और इसकी भावना हमेशा युग की भावना होती है। जिस युग में हम रह रहे हैं उसमें संविधान के मूल मूल्यों को याद रखना और भी जरूरी हो जाता है।” इसी भावना से प्रेरित होकर 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का निर्णय लेकर संविधान शिल्पकार को सम्मान देने का बीड़ा उठाया। भाजपा और इसके समर्थक दल संविधान को पवित्र ग्रंथ मानकर आदर- सत्कार करते हैं’।

मेरा ऐसा मानना है कि इस तरीके के आरोप- प्रत्यारोप के लिए चुनाव का समय उपयुक्त है, संविधान दिवस नहीं।

        आने वाले वर्षों में संविधान दिवस राजनीति की भेंट न चढ़े, इसलिए सभी दलों से प्रजातंत्र के निर्मल नभ पसंद मतदाताओं की ओर से आगाह किया जाता है कि मतभेद, मनभेद और राजनीतिक हितों का टकराव अपनी जगह रखते हुए संविधान के मूल्य और आदर्शों की उपेक्षा से बाज आए। संविधान दिवस को लुच्ची, लफंगी, बाहुबल और धनबल के राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करना बंद करें। संविधान दिवस को गंदी-भदी राजनीति से ऊपर उठकर मनाने का प्रयास करें। यही जागरूक मतदाताओं की मांग है और दरकार भी।

डा. बालाराम परमार “हंसमुख” केंद्रीय विद्यालय संगठन से प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं । वर्तमान में डा. परमार सम सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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