भैंस-गाय संवाद: Whatsapp से प्राप्त एवं किंचित संशोधित
भैंस गाय से बोली, बहना, मुझको यह बतलाओ।
क्यों माता बोलें तुमको सब, मुझको यह समझाओ।।
जाति धर्म में पड़कर, जो निशि-दिन लड़ते ही रहते।
निज मां का सम्मान नहीं, पर तुमको माता कहते ।।
खेल कौन खेला है तुमने, वश मे किया है कैसे।
मदिरा-प्रेमी मानुष तेरा मूत्र पिया है कैसे।।
मेरी समझ से बाहर यह सब, मुझको कुछ बतलाओ।
कौन सियासत खेली तुमने, आज मुझे समझाओ।।
जो गुण तुझमें वो मुझमें, फिर क्यों मेरा अपमान।
दूध, दही, घी, चमड़ा सबकुछ, मैने दिया समान।।
तेरी हरदम पूजा औ फल फूल चढ़ाए जाते।
वेद पुराण आदि में, तेरे ही किस्से क्यों पाते।।
तेरे मरने पर शहरों में, क्यों कोहराम मचाते ।
मेरे मरने पर तो मुझको कौवे, चील ही खाते।।
सारी बुद्धि लगा दी मैंने पर कुछ समझ न आया ।
दूध दिया तुझसे ज्यादा, पर आगे तुझको पाया।।
बोली गाय प्रेम से, सुन लो बहना भैंस हमारी।
तुमसे कैसी राजनीति, तुम हो प्रिय बहन दुलारी।।
जो नवजात बच्चियों को पैदा होते ही मारें।
औ दहेज के लिए बहू को जिंदा लाश बना दें।
नारी देह को सड़कों पर, जो नोंच-नोंच कर खाते।
अपनी मां को मां न बोलते, मुझको मां बतलाते।।
इन मक्कार कपूतो की मैं कैसे मां हो सकती ।
क्या इन हैवानों खातिर, अपना पशुत्व खो सकती।।
मेरी प्यारी बहना समझो, ये इनके हथकंडे ।
राजनीति को चमकाने के ये हैं सारे फंडे ।।
मां कहते मुझको, पर घर में नहीं है मेरा ठौर।
दौर बहुत देखे, देखे ना इससे घटिया दौर ।।
तेरे आगे बीन बजे, मेरे पिछवाड़े लाठी।
दूध निकाल सडक पर छोडें, मैला तक मैं खाती ।।
मां कहने वालो ने अबतक, कभी न मुझको पाला ।
अपनी मां वृद्धाश्रम रहती, घर में नहीं निवाला ।।
फिरती गली गली आवारा, लाठी डंडे खाती ।
तिल तिल कर मरती रहती हूं, तब भी मां कहलाती।।
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त
एक औरत ने क्या खूब कहा
छोटी थी जब, बहुत ज्यादा बोलती थी
माँ हमेशा झिडकती ,
चुप रहो ! बच्चे ज्यादा नहीं बोलते .
थोड़ी बड़ी हुई जब , थोड़ा ज्यादा बोलने पर
माँ फटकार लगाती
चुप रहो ! बड़ी हों रही हों .
जवान हुई जब , थोड़ा भी बोलने पर
माँ जोर से डपटती
चुप रहो, दूसरे के घर जाना है .
ससुराल गई जब , कु़छ भी बोलने पर
सास ने ताने कसे ,
चुप रहो , ये तुम्हारा मायका नहीं .
गृहस्थी संभाला जब , पति की किसी बात पर बोलने पर
उनकी डांट मिली ,
चुप रहो ! तुम जानती ही क्या हों ?
नौकरी पर गई , सही बात बोलने पर
कहा गया
चुप रहो ! अगर काम करना है तो
थोड़ी उम्र ढली जब , अब जब भी बोली तो
बच्चों ने कहा
चुप रहो ! तुम्हें इन बातों से क्या लेना .
बूढ़ी हों गई जब , कुछ भी बोलना चाहा तो
सबने कहा
चुप रहो ! तुम्हें आराम की जरूरत है .
इन चुप्पी की तहों में , आत्मा की गहों में
बहुत कुछ दबा पड़ा है
उन्हें खोलना चाहती हूँ , बहुत कुछ बोलना चाहती हूँ
पर सामने यमराज खड़ा है , कहा उसने
चुप रहो ! तुम्हारा अंत आ गया है
और मैं चुपचाप चुप हो गई
हमेशा के लिए .
सोनी आजाद
मेहनत का बारहमासा
(कविता का कुछ अंश)
‘हमरे सुगना के ले गइल बुखार सजना
नाहीं दवा-दारू नाहीं उपचार सजना
तोर मेहनत-मजूरी सब बेकार सजना
अस जिनगी जियल धिरकार सजना’
‘चले मेहनत से सबके आहार सजनी
बिना रोटी के ना झनके सितार सजनी
हमरी मेहनत से रेल अउरी तार सजनी
हमरी मेहनत से प्यार आ विचार सजनी’
‘अब्बो गाँव-गाँव रहे जमींदार सजनी
जइसे रहरी में रहेला हुड़ार सजनी
तोहरे सुगनवा अस सुगना हजार सजनी
रोज-रोज होलें इनके सिकार सजनी।‘
‘जब हम मिलि उठाइबि हथियार सजनी
मचि चारों ओर भारी हाहाकार सजनी
आवे कल-कारख़ाना से पुकार सजनी
अब गांव-गांव हो जा तैयार सजनी
गांठि बान्ह लेनिन-माओ के विचार सजनी
बिना क्रांति के न होई उधियार सजनी’
गोरख पांडेय
तुम सत्य के ताप से डरते हो,
तुम डरते हो दिन के उजाले से,
डरते हो तुम शोर से, आवाज से,
आवाज प्रतीक है इंसान के होने का,
तुम शोर मिटाना चाहते हो,
नहीं, तुम इंसान को मिटाना चाहते हो,
जबतक धरती पर इंसान है,
शोर होगा, आवाज होगी ही,
तुम नहीं देखना चाहते दिन,
दिन में भी शोर होता है, आवाज होती है,
सुबह शुरू होती है शोर से, गीत से,
जब पक्षी भोर के स्वागत में,
अपने कलरव से बागों को, और
हमारे घरों को गुलज़ार कर देते हैं,
अपने कोमल और मीठी आवाज से,
खुद जगते हैं, और हमें भी जगाते हैं,
बच्चे जगते हैं, सयाने जगते हैं,
और, औरतें जगती हैं,
बुढ़े जगते हैं, और बुढ़िया भी,
जगत भर जाता है आवाज से,
आवाज प्रमाण है धरती जिंदा है,
हम जिंदा हैं, और धरती पर जिंदगी है,
तुम्हें सत्य पसंद नहीं,
तुम्हें सुबह और दिन पसंद नहीं,
आवाज भी तुम्हें पसंद नहीं,
और, जिंदगी भी तुम्हें पसंद नहीं,
यही काफी है यह साबित करने के लिए,
कि तुम इंसान नहीं हो,
नहीं है इंसानियत तुम्हारे पास,
तुम जल्लाद, नरपिशाच हो,
धरती पर जीवन का अभिशाप हो,
तुम्हें आवाज नहीं, शोर नहीं,
जीवन और संगीत नहीं,
तुम्हें किसी की हंसी और मुस्कान नहीं,
श्मशान की शांति चाहिए,
चाहिए तुम्हें सिर्फ मुर्दे ही मुर्दे,
नोंचकर खाते रहो मुर्दों को,
और, वे शांत पड़े रहें
तुम्हारी क्षुधा को तृप्त करते रहें.
राम अयोध्या सिंह
बहुत सवाल हैं,
दिमाग में,
जो बेचैन कर रहे हैं!
कोई मुझे बताओ..!
कि चलती हवाओं को,
कभी रोका जा सकता है..?
और हवाओं को,
रुकने के लिए कह देना,
एक ही दम,
एक ही झटके में,
यह कहाँ तक सही है..?
कोई मुझे बताओ..!
कि बहते हुए दरिया को,
कभी रोका जा सकता है..?
और यह सोच लेना,
कि वो दरिया एक ही मुट्ठी में,
बंद हो जाए,
कैद हो जाए,
यह सोच लेना,
क्या बेवकूफी नहीं..?
कोई मुझे बताओ..!
कि युद्ध के मैदान में,
चल रही कशमकश को,
कैसे रोका जा सकता है..?
यह कशमकश तो जारी रहेगी!
कि जब तक एक तरफ की जीत,
निश्चित नहीं हो जाती…!
सोशल मीडिया से प्राप्त
तभी कोई अपना ठिकाना पड़ेगा
उन्हें जंग में ही हराना पड़ेगा
है सचमुच अगर मुक्ति की चाह मन में
तो फिर ख़ून से ही नहाना पड़ेगा
चलो छीन लें अपनी मेहनत का हिस्सा
पता है कि रस्ते में थाना पड़ेगा
तभी तो खुलेंगीं ज़माने की नींदें
हमें अब स्वयं को जगाना पड़ेगा
रखो याद हरदम मुसीबत में खुद को
मदद के लिये खुद बुलाना पड़ेगा
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे
किनारे पे भी डूब जाना पड़ेगा
ये लोहा तो कब का गरम हो चुका है
हथोड़े को अब तो उठाना पड़ेगा
Kavi Mahendra Mihonvi
कोई नफरत के टोल्टैक्स पर कब तक रुका रहेगा
कारवां भूख बेकारी का आखिर कबतक रुका रहेगा
गरीब मुर्गे का कत्ल कर देने से सवेरा नहीं रुकेगा
अस्त सूरज का उदय आखिर कब तक रुका रहेगा
सागर की ठंडी हवाओं से कहीं प्यास बुझती है
नदियों का बहाव आखिर कब तक रुका रहेगा
कहानी उन्माद की गढ़ लेने से किरदार नहीं बनते
बलिदानो का इतिहास आखिर कब तक छुपा रहेगा
कानून अवाम के लिए है या अवाम कानून के लिए
जम्हूरियत में तानाशाह आखिर कब तक छुपा रहेगा
सरल कुमार वर्मा
उन्नाव, यूपी
9695164945
.आज का कटु सत्य
तेरी बुराइयों को , हर अख़बार कहता है,
और तू मेरे गाँव को ‘गँवार’ कहता है.
ऐ शहर .. मुझे तेरी औक़ात पता है,
तू चुल्लू भर पानी को भी
‘वाटर पार्क’;कहता है.
थक गया है हर शख़्स, काम करते-करते,
तू इसे अमीरी का ‘बाज़ार’ कहता है.
गाँव चलो, वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फ़ुर्सत तेरा ‘इतवार’ कहता है.
मौन होकर फोन पर
रिश्ते निभाए जा रहे हैं ,
तू इस मशीनी दौर को ‘परिवार’ कहता है.
जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा,
तू उन माँ-बाप को अब ‘भार’ कहता है.
वो जब मिलने आते थे, तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को ‘रिश्तेदार’ कहता है.
बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,
तू अंधी भ्रष्ट दलीलों को ‘दरबार’ कहता है.
बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाड़ी में,
पूरा परिवार भी न बैठ पाये,
उसे तू ‘कार’ कहता है.
अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को ‘संस्कार’ कहता है.
सोशल मीडिया से प्राप्त
काले दिन और काली रातों से गुजरते हुए !
अंधेरी काली रात में तारे जगमगाते हैं
चांद आता है और
रोशनी कर अंधेरे को भगाता है
छिपा लेता है चांद तारों की टिमटिमाहट को
गहराती काली रात का अंधेरा इठलाता है
रोशनी चाहने वालों !
अब नहीं देख पाओगे सितारों का नजारा
उजाले के साथ अंधेरे से
उज्जवल धवल चमकते दिन
और चांदनी रात की तरह
काली रातों को भी
प्यार करना सीखो
जो लोग कालिमा में हीनता का भाव देखते हैं
जो लोग रंगभेद के सौंदर्यशास्त्र में
काले रंगों के सौंदर्य को नहीं जीते हैं
उनके लिए
हमारा सौंदर्य काले बादलों से निखरता है
हमारा सौंदर्य फौलादी काले इस्पात
से आकार लेता है
हमारा सौंदर्य काली रात और काले बादलों से
घिर गई कालिमा को विस्तार देते तूफान के समय के
काले दिन में भी
विस्तार पाता है
काला रंग का अपना एक अर्थ है
शब्दों के आगे खड़ा होकर
यह शब्द का अर्थ बदल देता है
इसलिए किसी रंग का सौंदर्य
किसी रंग से नहीं जुड़ा है
काले रंग का और सभी रंगों का सौंदर्य
उसके पीछे खड़े संज्ञा से जुड़ा है
किसी भी देश और समाज का सौंदर्य
सिर्फ उसके रंगों से तय नहीं होता है
उस रंग के पीछे खड़े लोगों के
संघर्ष के इतिहास और संघर्ष के इरादे
सृजन की उनकी आकांक्षा और
उनकी गतिशीलता से तय होता है
काला रंग प्रतिरोध का रंग है
लेकिन यह अंधेरे का भी प्रतीक है
काला फौलाद संघर्ष और
काली ऑक्सीजन का सिलेंडर
जीवन का प्रतीक है
अंधेरी रातों में साजिश रचते और
हत्या के मंसूबों को अंजाम देते वक्त
रात का अंधेरा
काली रात का प्रतीक
हमें डराता भी है
मनुष्य के लिए यह भयावह है
लेकिन उसी काली रात के अंधेरे में
युवा जोड़ियां आलिंगनबद्ध हो
मनुष्य की नई पीढ़ियों के सृजन की
नीव भी रखती हैं।
नरेन्द्र कुमार
हिजाब थोपोगे तो हिजाब के ख़िलाफ़ हूं!
हिजाब नोचोगे तो हिजाब के साथ हूं!!
रक्स करती हैं औरतें
जैसे कि धरती नाचती है
जैसे नाचता है ब्रह्मांड सारा!
फिर सहसा नाचने लगती हैं औरतें
और भी ज़ोर से….
झूमने लगते है चांद सितारे
प्रतिरोध में सारे के सारे..
के रक्स करना तत्कार में
प्रतिरोध की अंतिम लय है/गति है…
देखो तो
मेरे नाचने से झूम उट्ठी है धरा
मचल के फूटने लगा है
झरनों का संगीत
मेरे लबों से..
उठो तानाशाहों
कोने तलाशो
हम एक-एक करके
जला रहे हैं बंदिशें सारी की सारी
साथ ही जल रही है
तुम्हारी कुढ़न, नफ़रत और भी बहुत कुछ
उट्ठो पिताओं
हंसो, नाचो मेरे साथ-साथ
यक़ीन मानो
फूल से हल्के हो जाओगे तुम भी.
अतीत का सारा बोझ उतार कर
आग के हवाले कर दो मेरे साथ!
औरतों का रक्स इस वक्त की
सबसे खूबसूरत शै है!
देखो तो इन रक्कासाओं को
नज़र भर भर कर.
नफ़रत का तुम्हारा वजूद पिघल जायेगा
सारा का सारा..
सभ्यता करवट लेने को बेताब है
दो कदम चलो तो सही..…..
अमिता शीरीं