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इस सप्ताह की शुरुवात 10 चुनिन्दा कविता

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तुम्हारे दिन से तो अच्छी तुम्हारी रात लगी*

तुम हम से अच्छे दिन की बात किया करते हो
तुम्हारे दिन से तो अच्छी तुम्हारी रात लगी

वो रात जिसमें तू ने नोट बनदियाँ की थी
हज़ारो मुफलिसो के लब पे सिसकियाँ दी थी
वो रात आज भी जब याद मुझे आती है
हमारी आँख से सब नींद रुठ जाती है
वो रात मेरी अमावस से भी काली निकली
दसहरा सूना था और सुनी दिवाली निकली
ये मेरी आँख कतारो में सारी रात जगी

तुम्हारे दिन से तो अच्छी तुम्हारी रात लगी

वो रात जिसमें तू ने ज़िनदगी को लाँक किया
बिना दाना हज़ारों ज़िंदगी हलाक किया
हमारे नन्हें से बच्चों के पावँ के छाले
हज़ारों मील के वो रासते नदियाँ नाले
जहा से गुज़रे थे बच्चे मेरे नंगे पावँ
हमारे बच्चों के छालो से जो भी गे गावँ
वो गावँ आज भी तुझसे सवाल करते हैं
तुम्हारे अच्छे दिन पे वो मलाल करते हैं

वोरात जिसमे तेरी लाठियों के डरसे हम
तमाम रात चले रेल की पटरी पर हम
वो पटरियाँ जहाँ बिखरी थी रोटियाँ मेरी
वो पटरियों पे मेरा खूँने जिगर आज भी है
मेरी मजबूरी का बिखरा हुआ सर आज भी है
वो रात याद में तेरी तमाम रात जगी

तुम्हारे दिन से तो अच्छी तुम्हारी रात लगी

तु कैसे भूले गा वो रात का मनज़र अनवर
वोबिखरी पटरियों रोटियां बिखरे हुए सर
किसी की माँग का सुहाग किसी का लख्ते जिगर
थके थके वो क़दम आज भी पहूँचे नहीं घर
उनके आने की सबको आज भी है आस लगी

तुम्हारे दिन से तो अच्छी तुम्हारी रात लगी

कामरेड अनवर


सपने

हर किसी को नहीं आते

बेजान बारूद के कणों में

सोई आग के सपने नहीं आते

बदी के लिए उठी हुई

हथेली को पसीने नहीं आते

शेल्फ़ों में पड़े

इतिहास के ग्रंथों को सपने नहीं आते

सपनों के लिए लाज़मी है

झेलनेवाले दिलों का होना

नींद की नज़र होनी लाज़मी है

सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते

अवतार सिंह पाश


नहीं मिलती है
रोटी कभी लम्बे समय तक
या छिन जाती है मिलकर भी बार-बार
तो भी आदमी नहीं छोड़ता है

रोटी के बारे में सोचना
और उसे पाने की कोशिश करना।

कभी-कभी लम्बे समय तक आदमी नहीं पाता है प्यार
और कभी-कभी तो ज़िन्दगी भर।
खो देता है कई बार वह इसे पाकर भी
फिर भी वह सोचता है तब तक

प्यार के बारे में
जब तक धड़कता रहता है उसका दिल।

ऐसा ही,
ठीक ऐसा ही होता है
इन्क़लाब के बारे में भी।

पुरानी नहीं पड़ती हैं बातें कभी भी
इन्क़लाब के बारे में।

कात्यायनी


घरकी शम्मा मेरा घर जलाने लगी
मौत मेरी गली आने जाने लगी

बढ़ गई इस कदर आज मंहगाईयाँ
रोटियाँ हमसे दामन छुड़वाने लगी

कामरेड अनवर


मैंने कई नास्तिकों को देखे है,
जो धर्म को अफीम और जाती को रसगुल्ला समझ बैठे है।

उनमें ऐसे अनपढ़ो को देखे है,
जो जाती को ही समाज समझ बैठे है।

उनमें ऐसे जाहिलो को देखे है,
जो क्रांतिकारियों कि भी जाती बना बैठे है।

उनमें कुछ तथाकथित जाती विरोधी देखे है,
जो खुद की जाती कि गानों पर गुमान कर बैठे है।

मैंने जाती उन्मूलन सपने देखे है,
लेकिन यहां के लोग जातिवाद को इंकलाब समझ बैठे है।

मैंने जातिगत शोषण देखे है,
लेकिन यहां के लोग जातिवादी अहंकारी बन बैठे है।

वे लोगो कैसे – कैसे है,
वे लोगों सामंती जैसे है।

कॉमरेड राहुल


छुरा भोंककर चिल्लाये ..
हर हर शंकर
छुरा भोंककर चिल्लाये ..
अल्लाहो अकबर
शोर खत्म होने पर
जो कुछ बच रहा
वह था छुरा
और
बहता लोहू…

गोरख पाण्डेय


किताबों पर दीमक लगने लगी है
और मस्तिष्कों पर भी
तालें लगने लगे है पुस्तकालयों पर
और हर बात को घोट कर पी जाने वाले
गुलामी विचारों पर भी।

इस से पहले की दीमक
किताबों को निगल जाए
और विचार कर लिए जाए कैद।

उससे पहले किताबों को पड़ा जाना होगा
पुस्तकालयों को खोलना होगा।

कुलदीप


स्त्री

जब लिंग भेद के सभी अवशेषों को
दफनकर
तुम मनुष्यता के शिखर पर होगी
तब जो दरिया बहती आयेगी
निर्मल जल के कल कल छल छल स्वर ले
तब धवल रश्मि के पूंज
जो बिखरेंगे यूं धरती पर
वनप्रांतर में खिलेंगे नित दिन
जीवन के सौंदर्य जो अनुपम
कैद जहां है आज प्रकृति
खोती हुई अपनों का अहसास
बिकता जा रहा उसका हर अंग
रक्तरंजित कर जीवन के प्रवाह
तेरी मुक्ति उसकी मुक्ति
साधन की मुक्ति रिश्ते की मुक्ति
और बहुत हैं मुक्ति प्रसंग
जब मुक्त होंगे सब जीवन प्रसंग
तब द्वार खुलेंगे नये बंधन का
अंकुरित होंगे तब नव जीवन
तब फिर मेरा यह और तेरा यह क्या

नरेन्द्र कुमार


कितनी आग थी तुममें
कितना दबा कर रखा था उसे
उसका कितना सही इस्तेमाल आता था तुम्हें
उसकी आँच को तुम कीतना भली-भांति जानते थे
और खुद को उसमें तपाना भी

सिंह भगत तुम्हारा रोमांस
हर युग की तानाशाही पर एक ऐलान‌ है
तुम्हारे भीतर की वो आग हर युग की जरुरत।

कुलदीप


वो होगया है सत्ता की मगरूरियत में चूर
ताकत उसे पता नहीं लेनिन की ज़ात की

वो कर रहा है बात सिर्फ जात पात की
हम करना चाहते हैं बात रोटी भात की

कामरेड अनवर

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