अग्नि आलोक

रोहित वेमुला से इंद्र मेघवाल तक दलितों पर अत्याचार का111वां साल

NEW DELHI, INDIA - MARCH 2: Radhika, mother of Dalit scholar Rohith Vemula, during a protest by Youth Congress against Union Minister Smriti Irani over her son's death at Jantar Mantar on March 2, 2016 in New Delhi, India. 26-year-old Rohith Vemula, a Dalit PhD scholar, was found hanging at the Central University's hostel room on January 17. (Photo by Arun Sharma/Hindustan Times via Getty Images)

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13 अगस्त को आजादी की 75वीं वर्षगांठ से दो दिन पहले जातीय हिंसा के शिकार 9 साल के इंद्र मेघवाल ने इलाज के दरमियान एक अस्पताल में दम तोड़ दिया. करीब 22 दिन पहले, 20 जुलाई को, राजस्थान के जालौर जिले के मेघवाल को उसके शिक्षक छैल सिंह ने स्कूल में बेरहमी से पीटा था. सिंह राजपूत जाति का है. सिंह ने मेघवाल को इसलिए पीटा क्योंकि वह दलित हो कर उसकी मटकी से पानी पी गया था. इंद्र के चाचा किशोर ने पुलिस को दी अपनी तहरीर में कहा कि, “इंद्र कुमार नादान था इसलिए उसे यह पता नहीं था कि वह मटकी सवर्ण जाती के अध्यापक छैल सिंह के लिए अलग से रखी हुई थी.”

इंद्र के चाचा ने आगे लिखा कि, “छैल सिंह ने छात्र इंद्र कुमार को कहा कि ‘साला डेढ़, नीच, कौड़ा, नीची जाति का होकर हमारी मटकी से पानी कैसे पिया और मार-पीट कर दी, जिससे उसके दाहिने कान और आंख पर अंदुरुनी चोटें आईं. कान में ज्यादा दर्द होने पर इंद्र कुमार स्कूल के सामने अपने पिता देवाराम की दूकान पर गया और घटना की जानकारी दी.” चाचा ने लिखा कि इंद्र के इलाज के लिए उनका परिवार लगभग आधा दर्जन अस्पताल घूमता रहा मगर इंद्र को नहीं बचा सका. उन्होंने लिखा कि, “छैल सिंह ने दुर्भावना से इंद्र कुमार के साथ मारपीट की और इस कदर मारपीट की कि उसकी मृत्यु हो गई”.

भारत की आजादी के 75 साल की सच्चाई यही है कि भारतीय समाज में दलितों के खिलाफ अस्पृश्यता की इतनी गहरी पैठ है कि इसका जरा सा अतिक्रमण एक बच्चे को भी नहीं बख्शता.

आजादी के बाद से भारतीय समाज में बहुसंख्यक हिंदुओं का वर्चस्व रहा है. हिंदू धर्मग्रंथ ही अस्पृश्यता को धार्मिक आधार देते हैं. शायद यही वजह है कि 75 साल पहले भारतीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता को खत्म किए जाने के बाबजूद यह आज भी पूरी तरह से जिंदा है. ऐसे में संविधान निर्माता बी. आर. आंबेडकर की भविष्यवाणी सच होती नजर आती है, जो उन्होंने फरवरी 1946 में बॉम्बे के नारे पार्क से की थी :

स्वराज, जिसके लिए कांग्रेस चिल्ला रही है, उसमें सिर्फ इतना ही होगा कि अंग्रेजो की जगह हिंदू देश पर अपना वर्चस्व कायम कर लेंगे.…अनुसूचित जाति को ऐसा नहीं होने देना चाहिए. उन्हें देखना चाहिए कि उन्हें सारे अधिकार मिल चुके हैं ताकि आजाद भारत में वे भी आजाद हो सकें”.

1930 से 1947 तक आंबेडकर की राजनीती का आधार यह था कि अनुसूचित जाति हिंदुओं से अलग, एक स्वतंत्र वर्ग है और अपने आप में एक राजनीतिक अल्पसंख्यक है. उनका मानना था कि अनुसूचित जाति और हिंदू भले एक ही भगवान की पूजा करते हों मगर दलित राजनीतिक और सामाजिक रूप से हिंदू समाज का हिस्सा नहीं है.

इंद्र की हत्या दलित चेतना पर गिरा वह उल्का है जो उन्हें अपने वजूद को कुरेदने पर मजबूर करता है. खासकर पिछले कुछ दिनों में हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग और मीडिया जिस तरह शिक्षक दोषी के पक्ष में खड़े हुए हैं, दलितों को हिंदू समाज और सरकार से उम्मीद खत्म होती नजर आ रही है. ऐसा पहली दफा नहीं है जब किसी दलित की जातीय दुर्भावना से हत्या के बाद सहानुभूति, निष्पक्ष जांच, मुआवजा या न्याय की बात करने के बजाए, हिंदू समाज और मीडिया उनके लिए नफरत पैदा करने लगा हो. उनके दर्द को झुठलाने लगा हो. ऐसा माहौल बना दिया जाता है गोया किसी दलित ने अपनी जान खुद ही ले ली हो. इस माहौल को बनाने में सब शामिल होते है : वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों.

ऐसे में यह जरूरी है कि हम अनुसूचित जाति का हिंदुओं से अलग उनकी स्वतंत्र पहचान बनने का इतिहास दुबारा समझें. इतिहास के उन पन्नों को भी दुबारा पढ़ें जब अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि आंबेडकर ने, अंग्रेजों के सामने, अनुसूचित जातियों के एक संप्रभु भारत का हिस्सा बनने के लिए, कुछ शर्तें रखी थी. उन्हीं शर्तों की बुनियाद पर दलितों ने, जो अविभाजित भारत में तीसरी सबसे बड़ी कौम थी, संप्रभु भारत का हिस्सा बनने के लिए हामी भरी थी. अगर अनुसूचित जाति को अपनी अलग पहचान नहीं मिलती तो संविधान में उनके लिए अलग से कोई सहूलियतें भी नहीं दी जाती. और तब वह पूरी तरह अपनी शिक्षा, रोजगार, स्वस्थ्य, घर जैसी मौलिक जरूरतों के लिए हिंदू समाज पर निर्भर होती.

इस इतिहास को समझना इसलिए जरूरी है ताकि हम समझें कि अविभाजित भारत में हर राजनीतिक और धार्मिक अल्पसंख्यक ने अपनी सहमति दी थी तभी जा कर एक संप्रभु, स्वतंत्र और जनतांत्रिक भारत बना था. भारतीय संघ का निर्माण इस सहमति और संधि के साथ हुआ था कि यहां रहने वाले चाहे राजनीतिक अल्पसंख्यक हों या धार्मिक अल्पसंख्यक उनको पूरी सुरक्षा, समानता और न्याय दिया जाएगा. यह सब सुनिश्चित करने के लिए संविधान द्वारा वार्षिक मूल्यांकन का भी प्रावधान किया गया था. मगर अब न बहुसंख्यक समाज को वह करार याद है और न हमारी सरकारों को संवैधानिक प्रावधानों से फर्क पड़ता है.

इसके अलावे मैं इतिहास के ’70 के दशक में बन रहे महाराष्ट्र के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश का जिक्र भी करूंगा. यह कालखंड हमें यह दिखाएगा कि जब भारतीय संघ और समाज ने दलितों को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया था, तो भारत के इस राज्य में दलित समाज ने विद्रोह कर दिया था. मैंने सन सत्तर का दशक इसलिए चुना क्योंकि तब देश का राजनीतिक माहौल कुछ आज जैसा ही था. 1971 में केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार के पास 350 सीट का एक बड़ा बहुमत था, आज की मोदी सरकार से थोड़ी सी ज्यादा ही. उसके बाद, 1972 में मोदी की तरह इंदिरा गांधी ने आजादी की सिल्वर जुबली हर भारतीय पर ऐसे थोपी थी कि भारतीय झंडे या राष्ट्रगान की किसी भी अवमानना के लिए कठोर सजा तय की गई थी. हर सरकारी ऑफिस देशभक्ति को अपने तरीके से बांट रहा था. इसके साथ ही दलितों पर अत्याचार भी बढ़ रहा था, मगर उन्हें सुनने वाला कोई नहीं था. और तभी कुछ दलित युवकों ने एक उग्रवादी संगठन, दलित पैंथर्स, का गठन किया. दलितों ने यह राजनीतिक विद्रोह पैंथर्स के ही नेतृत्व में छेड़ा था. पैंथर्स का मुख्य कार्यकाल दो वर्षों का ही रहा, मगर उनके द्वारा लाए बदलावों ने दलित और हिंदुओं के बीच सामाजिक समीकरण बदल दिए. अब एक दलित, हिंदुओं की हिंसा का जवाब हिंसा से दे सकता था. मैं इन सब घटनाओं का जिक्र पैंथर्स के संस्थापकों में से एक जे. वी. पवार द्वारा लिखी किताब दलित पैंथर्स के हवाले से करूंगा. इतिहास के दोनों अलग-अलग हिस्से दलितों की अपनी राजनीतिक पहचान के लिए संघर्ष, संप्रभु भारत बनने से पहले अंग्रेजों से संवैधानिक सुरक्षा की गारंटी के लिए लगातार प्रयास और फिर आजाद भारत में उन गारंटियों की अनदेखी के परिणाम को दिखाएगा.

हालांकि, इतिहास में जाने से पहले, संक्षेप मे, हमें एक नजर इंद्र की हत्या के बाद के राजनीतिक और सामाजिक घटनाक्रम पर भी डालनी चाहिए. इससे वर्तमान में दलितों के प्रति सरकार की उदासीनता और बहुसंख्यक हिंदू समाज की अनैतिकता साबित हो जाएगा.

13 अगस्त को राजस्थान के मुख्यमंत्री, अशोक गेहलोत, ने महज एक ट्वीट करके यह घोषणा की इंद्र के परिजनों को 5 लाख का मुआवजा दिया जाएगी. गेहलोत ने इंद्र की हत्या का कारण शिक्षक द्वारा “मारपीट” बताया. उन्होंने जाति या अस्पृश्यता का नाम भी नहीं लिया. वहीं जून के महीने में जब एक गैर दलित हिंदू कन्हैयालाल की हत्या इस्लामिक कट्टरपंथियों ने की तो गेहलोत ने अगले ही दिन अपने आवास पर “सर्वदलीय बैठक” बुलाई. उसी दिन उन्होंने पुलिस अधिकारियों के साथ घटना की “उच्च स्तरीय समीक्षा” भी की. गेहलोत ने कट्टरपंथियों की गिरफ्तारी करने वाले पांचों पुलिस कर्मियों का प्रमोशन भी कर दिया. फिर दो दिन बाद वह स्वयं कन्हैयालाल के घर जा कर उनके परिजनों से मिले, उनकी फोटो पर श्रृद्धांजलि अर्पित की. कन्हैयालाल के परिजनों को गेहलोत सरकार ने 50 लाख रुपए मुआवजा और उनके दोनों बेटों को सरकारी नौकरी भी दी. गेहलोत हर तरीके से हिंदुओं को एहसास दिला रहे थे कि वह उनके साथ हैं. उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी कन्हैयालाल को न्याय दिलाने में और हिंदू समाज को भरोसा दिलाने में. यहां तक कि गेहलोत सरकार ने मामले को अंतराष्ट्रीय साजिश बताते हुए केस को केंद्र की आतंकवाद निरोधक शाखा राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण अथवा एनआईए को सौंप दिया.

14 अगस्त को जब इंद्र के परिजन सरकार से 50 लाख मुआवजे, एक परिजन को सरकारी नौकरी, स्कूल का लाइसेंस रद्द और निष्पक्ष जांच की मांग की तो राज्य पुलिस ने उन पर लाठियां बरसाई. हमले में इंद्र के पिता देवाराम भी जख्मी हुए. पुलिस ने परिवार पर इंद्र के जल्दी अंतिम संस्कार का दबाव बनाया. दलित समाज को इक्कठा होता देख गेहलोत सरकार ने जालौर की इंटरनेट सेवा भी बंद करवा दी. सबसे अजीब बात थी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का विरोधी दल, भारतीय जनता पार्टी, का चुप रहना. राज्य से लेकर केंद्र के किसी नेता ने भी कांग्रेस सरकार को इंद्र की हत्या पर कुछ नहीं कहा. राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो इंद्र की हत्या बीजेपी के लिए कांग्रेस के प्रमुख राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी को घेरने का एक सुनहरा अवसर था. सितंबर 2020 में उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के शासन में हाथरस में जब एक दलित लड़की का चार ठाकुरों ने गैंगरेप किया था तो दोनों गांधी पीड़ित से मिलने गए थे. उन्होंने इस मुद्दे को महिला सुरक्षा का विषय बना कर बीजेपी को लगातार घेरा. कांग्रेस ने अपने विरोध का आधार कभी-कभार दलित अस्मिता को बनाया है. मगर बीजेपी बिलकुल ही चुप रही. उन्होंने इंद्र की हत्या पर न राज्य सरकार को बच्चों के लिए खतरा बताया, न राहुल गांधी को दलित विरोधी बताया. वहीं राहुल गांधी ने राजनीतिक हवा का रुख देखते हुए शाम को एक ट्वीट कर हत्या को “क्रूर” बताया. गांधी ने भी अस्पृश्यता या जाति का नाम नहीं लिया. बीजेपी की चुप्पी की एक वजह यह हो सकती है कि उसकी विचारधारा जाति व्यवस्था को बुरा नहीं मानती और हिंदू शास्त्र जो अस्पृश्यता का आधार है उनका प्रचार-प्रसार करने में विश्वास रखती है. उनका बोलना हिंदू धर्म के अंदर असमानता को स्वीकार करने जैसा होता. हालांकि पिछले साल पश्चिम बंगाल में चुनावों के बाद राजनीतिक हिंसा को दलित सुरक्षा का मामला बना कर बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस को घेरने की बहुत कोशिश की थी. वजह कोई भी हो, दलित अत्याचार के मामले में देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियां, कांग्रेस और बीजेपी, एक ही जैसा रुख रखती हैं.

सरकारों को छोड़ दें, तो जालौर में हिंदू समाज भी इंद्र के हत्यारे के पक्ष में खड़ा होता नजर आया. खुद को क्षत्रीय मानने वाले 36 बिरादिरियों ने सभाएं करके प्रशासन को चुनौती दी कि अगर छैल सिंह के खिलाफ करवाई बंद नहीं हुई तो उन्होंने भी “चूड़ियां” नहीं पहनी है. इस सभा में मौजूद जालौर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक तालियां बजा रहे थे. संवैधानिक व्यवस्थाओं की बात करें तो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने सिवाए राज्य पुलिस को कड़ी करवाई करने की सलाह देने के कुछ भी नहीं किया. आयोग का अपना कोर्ट और अपनी स्वतंत्र जांच एजेंसी भी होती हैं. आयोग ने इंद्र की हत्या में इनका इस्तेमाल नहीं किया. 75 साल बाद आयोग को वैसे भी शायद ही कोई संस्था गंभीरता से लेती है, क्योंकि केंद्र की सवर्ण सरकारों ने कभी इन्हें मजबूत होने नहीं दिया. दलित और आदिवासियों के संवैधानिक संरक्षक स्वयं भारत के राष्ट्रपति होते हैं. मतलब दलितों और आदिवासियों के ऊपर हुए अत्याचार को स्वयं राष्ट्रपति संज्ञान में ले सकते हैं. मगर विडंबना ही है कि राष्ट्रपति, द्रौपदी मुर्मू, जो भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति भी है, उन्होंने इंद्र की हत्या पर कुछ भी नहीं कहा.

अगर सरकारी आंकड़ों की बात करें तो अकेले 2020 में दलितों के प्रति हिंसा के 50291 मामले दर्ज किए गए थे. गैर सरकारी आंकड़ों में, राष्ट्रीय दलित और आदिवासी संस्था संघ के अनुसार, सिर्फ 1991 से 2020 के बीच दलितों के ऊपर 7 लाख से अधिक हिंसा की वारदात हुईं, इनमें 38000 मामले दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के थे. भारत में दलितों की इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब यह समझें की उनकी राष्ट्रीय पटल पर अनुसूचित जाति के रूप में राजनीतिक पहचान कैसे बनी.

आधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति का अस्तित्व भारत की जनगणना में पहली बार 1911 में आया. हालांकि जाति के आधार पर जनगणना शुरुआत से ही होती थी. भारत की आबादी की पहली जनगणना 1881 में ब्रिटिश सरकार के शासन में शुरू हुई थी. इस जनगणना में लोगों की जातियां और पंथ गिने गए थे मगर उनका कोई वर्गीकरण नहीं किया गया था. सिर्फ सबको जोड़ कर कुल जनसंख्या निकाली गई थी. डॉ आंबेडकर, अपने लेख, “फ्रॉम मिलियंस टू फ्रैक्शंस” [लाखों से अंश तक], में लिखते हैं जाति के आधार पर आबादी के वर्गीकरण की पहली कोशिश दूसरी जनगणना में 1891 में हुई थी. हालांकि, यह 1901 की तीसरी जनगणना थी, आंबेडकर लिखते हैं, जब जनगणना में वर्गीकरण के सिद्धांत को अपनाया गया. यह सिद्धांत था : “सामाजिक प्राथमिकता के आधार पर वर्गीकरण” [क्लासिफिकेशन बाई सोशल प्रेसिडेंस]. वह आगे लिखते हैं कि “ऊंची जाति” के हिंदू हमेशा से ही जाति के आधार पर जनगणना के “खिलाफ” थे. “वे हमेशा इस बात पर दबाव देते कि जाति और जनजाति का कॉलम जनगणना की सूची से हटा दिया जाए”. आंबेडकर लिखते हैं कि 1901 की जनगणना के समय ऊंची जातियों ने जाति जनगणना के खिलाफ एक प्रस्ताव बना कर इसका विरोध किया था. प्रस्ताव का आधार था कि जातियों और जनजातियों का वितरण भारत की आबादी में लंबे अंतराल पर बदलता रहता है इसलिए इनकी जनगणना हर दस साल में जरूरी नहीं है.

सौभाग्य से, उनके प्रस्ताव का उस वक्त के जनगणना कमिश्नर पर कोई असर नहीं हुआ. उनका मानना था कि जाति की जनगणना बहुत ही जरूरी है. कमिश्नर ने जातीय जनगणना के पक्ष में तर्क दिया था :

जाति का एक सामाजिक संस्था के रूप में इसके कमियों या फायदे के बारे में चाहे जो भी विचार हो, मगर भारत की आबादी के सवाल पर, बिना जाति को आधार बनाए कोई चर्चा भी सोच पाना नामुमकिन है. जाति अब भी भारतीय समाज के ताने-बाने की नीव है और भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक वर्गों में बदलाव लाने के लिए जाति को दर्ज करना ही सबसे बेहतर उपाय है . हर हिंदू किसी जाति में पैदा होता है और उसकी जाति ही उसके धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और घरेलू जीवन को, पालने से लेकर कब्रगाह तक, निर्धारित करती है. पश्चिम के देशों में जो घटक किसी का सामाजिक स्तर जैसे धन, शिक्षा और रोजगार का निर्धारण करती है वे तरल (सामाजिक स्तर में किसी बंधन का न होना) और कैथोलिक (ईसाई धर्म की एक शाखा) हैं जो समाज में किसी के जन्म या परिवारवाद से जुड़ी कमियों को आसान बनते हैं. जबकि भारत में आध्यात्मिक और सामाजिक समुदाय और परंपरागत रोजगार बाकी सभी घटकों की अवहेलना करते हैं. इसलिए जहां पश्चिमी देशों में, किसी आबादी का आर्थिक या व्यावसायिक वर्गीकरण वहां के जनसंख्या का आधार बन सकता है, भारत में वह आधार सिर्फ भारतीय आबादी का जाति और धर्म हो सकता है.

कमिश्नर ने 1901 में अपने सामाजिक वर्गीकरण सिद्धांत के हिसाब से जनगणना पूरी की थी.

आंबेडकर लिखते हैं कि यह चौथी जनगणना थी, 1911 की, जब जनगणना सूचि में विशेष सवाल डाले गए थे. ये सवाल मुख्य रूप से 10 मानदंड थे जिसके आधार पर “डिप्रेस्ड क्लासेज” को वर्गीकृत किया जाना था. ये मानदंड थे : वह जाति और जनजातियां “1) जो ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करतीं 2) जिसने ब्राह्मण या हिंदू समूह से कोई मन्त्र नहीं लिया हो, 3) जो वेदों की सत्ता को अस्वीकार करती हो 4) जिसने कभी किसी हिंदू भगवान की पूजा नहीं की हो 5) जिन्हें किसी ब्राह्मण ने अपनी सेवा न दी हों 6) जिनके पास कोई ब्राह्मण पुजारी न हों 7) जिनकी पहुंच से किसी भी मंदिर के अंदर का हिस्सा परे हों 8) जो प्रदूषण का कारण मानी जाती हों 9) जो अपने मृत जानों को दफनाती हों 10) जो बीफ खाती हों और गाय में आस्था नहीं रखती हों.” डिप्रेस्ड क्लासेज ही 1935 में एक संवैधानिक सुधार के बाद अनुसूचित जाति कहलाए और तभी उन्हें राजनीतिक अल्पसंख्यक की पहचान भी मिली.

आंबेडकर लिखते हैं कि अछूतों की आबादी को निर्धारित करने में वे दस मानदंड बहुत महत्वपूर्ण थे. वह लिखते हैं कि अस्पृश्यता या अछूतता की कोई “न्यायिक परिभाषा” मौजूद नहीं थी. “अछूतता किसी के सिर के बाल या शरीर के रंग में मुखर नहीं होती. यह खून का भी विषय नहीं है. अछूतता की झलक हमें हमारे अलग-अलग व्यवहारों और खास रीति-रिवाजों को मनाने में दिखती है. एक अछूत वह व्यक्ति है जिसके साथ हिंदू खास तरीके से पेश आते हैं और जो कुछ खास रीति-रिवाजों का अनुसरण करता है जो हिंदुओं से अलग है. कुछ तयशुदा तरीके हैं जिसके अनुसार ही हिंदू, अछूतों के साथ, सामाजिक विषयों में, व्यवहार करते है. कुछ खास रिवाज हैं जिसे अछूत मनाते हैं. इसलिए अछूतों को निर्धारित करने की एक ही विधि हो सकती है वह है उनके व्यवहारों, रिवाजों को आधार मान कर और यह समझ कर की इन समुदायों को इनके अधीन कैसे रखा जाता है.” उस साल उन दस मानदंडों को अपनाते हुए पहली बार अछूतों की गिनती हुई. इनकी संख्या ब्रिटिश भारत के अंदर चार करोड़ गिनी गई जो कुल 22 करोड़ जनसंख्या का लगभग पांचवा हिस्सा था.

मगर यह सब कुछ इतनी आसानी से नहीं हुआ था. आंबेडकर ने लिखा, “हिंदुओं ने पूरे देश में विरोध सम्मलेन किया और सेंसस कमिश्नर के योजना की निंदा कड़े शब्दों में की.” आंबेडकर ने लिखा है, “हिंदुओं ने कहा, ‘सेंसस कमिश्नर की कोशिश ब्रिटिश सरकार और मुसलमानों के बीच की साजिश का एक नतीजा है, जिसका मकसद हिंदू समाज को तोड़ना और कमजोर करना है.’ हिंदुओं ने यह भी आरोप लगाया कि, ‘इस कदम के पीछे अछूतों की आबादी जानने का मकसद नहीं था बल्कि अछूतों को छूतों से अलग करके हिंदू समाज को तोड़ने की कोशिश थी.’”

दरअसल, हिंदुओं के संशय के पीछे उस वक्त की राजनीतिक स्थिति भी थी. यह वह समय था जब मुसलमान मुस्लिम लीग के नेतृत्व में अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व की दावेदारी ठोक रहे थे. उन्होंने अपने अलग प्रतिनिधित्व की मांग 1907 के आसपास उठानी शुरू कर दी थी. उसी समय उनकी ब्रिटिश सरकार के साथ एक बैठक हुई थी. हिंदू, अछूतों की अलग गिनती को इसी बैठक में बनाई गई “साजिश” का हिस्सा मानते थे. 1909 में अंग्रेजों ने मुसलमानों की बात मान ली और उन्हें अलग चुनावी इकाई मानते हुए उन्हें अपने प्रतिनिधि को अपने ही समुदाय द्वारा चुनने का प्रावधान औपनिवेशिक संविधान में कर दिया. चुनाव की इस व्यवस्था को सेपरेट इलेक्टोरेट कहते हैं. यह सहूलियत ब्रिटिश भारत में सबसे पहले मुसलमानों को मिली और उन्हें आजादी से पहले 40 सालों तक इस सुविधा का लाभ मिला. यही व्यवस्था 1919 में सिखों और ईसाइओं को भी दी गई. चुनाव की इस व्यवस्था के द्वारा ही किसी अल्पसंख्यक के लिए सरकार में उनके असली प्रतिनिधि को चुना जा सकता है. हालांकि, आजादी के बाद भारत ने जॉइंट इलेक्टोरेट की व्यवस्था अपना ली, जिसमें बहुसंख्यक भी अल्पसंख्यक प्रतिनिधि को चुनते हैं, और उसके विपरीत भी. बहरहाल ब्रिटिश सरकार जब एक के बाद एक संवैधानिक सुधार कर मुसलमानों, सिखों और ईसाइओं को सुविधाएं दे रही थी, अनुसूचित जाति के लिए इन सुविधाओं की दावेदारी करना अभी भी बहुत दूर था. 1911 तक हिंदू तो यह मानने को भी तैयार नहीं थे कि डिप्रेस्ड क्लासेज की अलग से गिनती हो.

आधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति का अस्तित्व भारत की जनगणना में पहली बार 1911 में आया. हालांकि जाति के आधार पर जनगणना शुरुआत से ही होती थी. भारत की आबादी की पहली जनगणना 1881 में ब्रिटिश सरकार के शासन में शुरू हुई थी. इस जनगणना में लोगों की जातियां और पंथ गिने गए थे मगर उनका कोई वर्गीकरण नहीं किया गया था. सिर्फ सबको जोड़ कर कुल जनसंख्या निकाली गई थी.

1911 के बाद डिप्रेस्ड क्लासेज की गिनती नियमित रूप से हर दशक में की जाने लगी. 1921 की जनगणना में 1911 के आंकड़ों की पुष्टि भी की गई. 1921 में सेंसस कमिश्नर ने लिखा, “डिप्रेस्ड क्लासेज, खासकर दक्षिण भारत में, के बीच में वर्ग चेतना आ चुकी है. वह संगठित भी हो रहे हैं.…ऐसे में इस तथ्य को स्वीकार करना जरूरी है कि उनकी संख्या का एक सांख्यिकी अनुमान हमारे पास उपलब्ध हो.” 1921 की जनगणना से पहले 1919 में एक संवैधानिक सुधार हुआ था, जिसे मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहते हैं. मांटेग्यू चेम्सफोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधित्व की बात की थी मगर उस वक्त के भारत के प्रशासकों ने उनकी अनदेखी कर दी. बाद में ब्रिटिश सरकार ने प्रशासकों को फटकार लगाते हुए उनके प्रतिनिधित्व को नॉमिनेशन (नामांकन) द्वारा सुनिश्चित करने को कहा. ब्रिटिश सरकार ने लिखा, “अछूत पूरी आबादी का पांचवा हिस्सा हैं मगर उन्हें प्रतिनिधित्व को मार्ले मिंटो परिषदों में कोई जगह नहीं दी गई”. मार्ले मिंटो सुधार 1909 में किया गया था जिसके बाद मुसलमानों को सेपरेट इलेक्टोरेट मिला था. जिस परिषद की बात ब्रिटिश सरकार कर रही थी वह प्रशासन में निर्णय लेने वाला सर्वोच्य निकाय था.

1931 की जनगणना से करीब तीन साल पहले साइमन कमीशन भारत आया. कमीशन यह देखने आया था कि 1919 में किए गए संवैधानिक सुधारों का कितना असर हुआ है और क्या अन्य सुधारों की जरूरत है. साइमन कमीशन ही यह तय करने वाला था कि किस तरह भारतीयों को स्वशासन सौंपा जाए. यह भारत के स्वतंत्र होने से पहले सबसे बड़ी संवैधानिक सुधार की नीव बनने वाला था. यह रिपोर्ट ही इस बात का आधार रखती कि किस-किस समुदाय को आगे होने वाले विधायिका चुनावों में प्रतिनिधित्व दिया जाए. कमीशन के आने से पहले तक भारत में कोई प्रत्यक्ष चुनाव नहीं होता था. 1938 में पहली बार भारत में प्रोविंशियल चुनाव हुए. मगर उससे पहले अभी अनुसूचित जाति को बहुत सारे मुकाबले जीतने थे अपने ही लोगों से. हिंदुओं ने पूरी कोशिश की कि विधायिका के अंदर अनुसूचित जाति को अलग से कोई जगह न मिले.

मार्च 1927 में कमीशन का गठन होने पर, भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (राज्य सचिव), जो वाइसराय और ब्रिटिश सरकार के बीच की कड़ी होता था; उन्होंने डिप्रेस्ड क्लासेज के किसी भी सदस्य को कमीशन में जगह न दिए जाने पर अपना दुख व्यक्त किया. सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने ब्रिटिश संसद में कहा :

भारत में डिप्रेस्ड क्लासेज की एक बहुत बड़ी आबादी है, करीब छह करोड़ की. उनके हालात वर्तमान में पहले जितनी भयानक और मार्मिक तो नहीं है, मगर फिर भी काफी भयानक और मार्मिक है. उन्हें हर सामाजिक गतिविधि से अलग रखा जाता है. अगर वे (डिप्रेस्ड क्लासेज मेंबर) सूरज की रौशनी और उस इंसान (हिंदू) जो उन्हें नापसंद करता है, के बीच भी आ जाते हैं, तो उस इंसान (हिंदू) के लिए सूरज भी बदसूरत हो जाता है. वह सार्वजानिक पानी नहीं पी सकते. अपनी प्यास बुझाने के लिए उन्हें कई मील चलना पड़ता है. बहुत दुःख की बात है कि ऐसे लोगों को अछूत कहा जाता है. क्या मैं इसका पक्षधर हूं कि कमीशन में डिप्रेस्ड क्लासेज का प्रतिनिधि होना चाहिए? मैं या मेरे विपक्ष में बैठे सहयोगी, एक जनतांत्रिक देश में ऐसे किसी कमीशन का गठन, कभी, कभी भी नहीं करेंगे जिसमें डिप्रेस्ड क्लासेज न हो. जिनको आपने अलग रखा है, उन्हें सबसे अधिक प्रतिनिधित्व की जरूरत है.

1928 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में डिप्रेस्ड क्लासेज के लिए रिजर्व्ड सीट्स (आरक्षित सीट) के जरिए विधायिका में उनके प्रतिनिधत्व को सुनिश्चित करने की बात कही. उन्होंने उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व के खिलाफ सिफारिश की. इसकी वजह शायद यह थी कि कमीशन के सदस्य मानते थे कि डिप्रेस्ड क्लासेज में “गरीबी” और “अशिक्षा” इतनी अधिक है कि परिषद में सही प्रतिनिधि चुन कर आना मुश्किल होगा. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा,

जब तक कोई विशेष प्रावधान नहीं किया जाता, इसकी कोई आशा नहीं है कि डिप्रेस्ड क्लासेज अपने प्रतिनिधि को जेनरल कोंस्टीटूएंसी से चुनकर भेज पाएं.…हम इस बात की सिफारिश नहीं करते की डिप्रेस्ड क्लासेज को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आवंटित की जाए. आरक्षित प्रतिनिधित्व के द्वारा हम डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधयों की संख्या बढ़ा सकते हैं.”

अलग-अलग समुदायों के प्रतिनिधित्व के मामले में कमीशन की रिपोर्ट एक तरीके से प्रारंभिक (प्रीलिमिनरी) ही थी. प्रतिनिधित्व का मामला बाद में एक अलग समिति सुलझाने वाली थी, जिसे “फ्रैंचाइजी समिति” कहा गया.

1930 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं के साथ राउंडटेबल कॉन्फ्रेंस (गोलमेज सम्मेलन) शुरू किया. यह कॉन्फ्रेंस ब्रिटिश सरकार ने 1935 के भारत सरकार अधिनियम लाने से पहले भारतीय नेताओं का पक्ष जानने के लिए आयोजित किया था. सम्मेलन नवंबर 1930 से नवंबर 1932 के बीच तीन सत्रों में संपन्न हुआ था, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, डिप्रेस्ड क्लासेज, सिख, ईसाई के प्रतिनिधियों के अलावा राजा-महाराजाओं ने भी सिरकत की थी. सम्मलेन के पहले सत्र का कांग्रेस, जो उस वक्त हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती थी, ने बहिष्कार किया था. आंबेडकर इस सम्मलेन में डिप्रेस्ड क्लासेज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उन्होंने इस वर्ग का जोरदार तरीके से पक्ष रखा और यह साबित कर दिया की डिप्रेस्ड क्लासेज हिंदुओं से अलग स्वतंत्र आबादी है. वह डिप्रेस्ड क्लासेज के लिए ब्रिटिश सरकार से सेपरेट इलेक्टोरेट लेने में भी सफल रहे.

20 नवंबर 1930 को गोलमेज समेलन के अध्यक्ष के सामने उन्होंने डिप्रेस्ड क्लासेज का पक्ष कुछ यूं रखा था :

मेरा पक्ष चार करोड़ तीस लाख लोगों का पक्ष है, यूं कहें कि ब्रिटिश भारत की कुल आबादी के पांचवें हिस्से का. डिप्रेस्ड क्लासेज अपने आप में एक विशिष्ट और अलग समूह है, जो मोहम्मडन से अलग है. हालांकि उन्हें हिंदुओं में शामिल किया जाता है मगर वह किसी भी तरीके से हिंदू समाज का हिस्सा नहीं है. न सिर्फ उनका अलग अस्तित्व है बल्कि उनको एक अलग सामाजिक स्थान दिया गया है जो समाज के बाकी सदस्यों से अलग हैं. भारत में कुछ समुदाय हैं जिनकी सामाजिक स्थिति नीचे या अधीनस्थ है. मगर जो जगह डिप्रेस्ड क्लासेज को दी गई है वह बिलकुल अलग है. इसको इस तरह परिभाषित कर सकते हैं कि यह कहीं बंधुआ मजदूर (सर्फ) और गुलामों (स्लेव) के बीच आता है. असल में लोग बंधुआ मजदूरों और गुलामों के भी शारीरिक संपर्क में आ सकते थे मगर डिप्रेस्ड क्लासेज के संपर्क में कोई नहीं आ सकता. इससे भी बुरा यह है कि उनकी थोपी हुई गुलामी और लोगों के संपर्क में आने से पाबंदी, उनके अछूत होने की वजह से, न सिर्फ उनके सार्वजानिक जीवन तक सीमित है बल्कि यह छुआछूत उन्हें उस हर समानता के अवसर और मौलिक अधिकारों से वंचित रखती है जो एक इंसान के अस्तित्व के लिए जरुरी होता है.

रोहित वेमुला की मां राधिका नई दिल्ली में 2 मार्च 2016 को जंतर मंतर पर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के खिलाफ युवा कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन के दौरान. 26 वर्षीय पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला ने 17 जनवरी को जातीय उत्पीड़न के चलते केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्रावास के कमरे में फांसी लगा ली थी. अरुण शर्मा/ हिंदुस्तान टाइम्स/ गैटी इमेजिस

डिप्रेस्ड क्लासेज हिंदुओं से सामाजिक और राजनीतिक रूप से कैसे अलग है, आंबेडकर ने इस तरह साबित किया था. उन्होंने कहा कि अछूतों को सिमित रूप से हिंदू माना जा सकता है कि वह हिंदुओं की तरह कृष्ण, राम, शिव जैसे पंथों को पूजते हैं. मगर उनकी यह पूजा पृथक होती है. हिंदुओं के मंदिरो में अछूतों का प्रवेश नहीं होता. आंबेडकर ने कहा कि एक ही भगवान की पूजा करने से दो अलग-अलग सुमदाय एक नहीं बन जाते. अगर ऐसा होता तो फ्रेंच, जर्मन, डच और कई यूरोपीयन देश के लोग जो ईसाई धर्म को मानते हैं अपने आप में अपनी अलग राजनीतिक पहचान नहीं रखते. इस मामले में उन्होंने भारत का भी उदहारण दिया. भारत में उस समय भारतीय ईसाई, एंग्लो इंडियन और यूरोपीयन, ये तीन अलग-अलग समुदाय थे और इन तीनों की अलग राजनीतिक पहचान थी. प्रत्येक को अलग संवैधानिक सुविधाएं भी मिली हुई थी. उन सबके ईसाई होने के बाबजूद उन्हें अलग राजनीतिक अप्ल्संख्यक का दर्जा प्राप्त था. आंबेडकर ने कहा कि किसी भी समुदाय को एक होने के लिए उनके सदस्यों के बीच सामाजिक रिश्तों में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. मगर हिंदू धर्म में सब अपनी जाति से बंधे हुए हैं. हिंदू, अछूतों के साथ ना शादियां करते हैं ना खाना कहते हैं. हिंदू धर्म अपने आप में असमान और पृथक है. आंबेडकर की बहस अकाट्य थी और यह तय था कि ब्रिटिश सरकार डिप्रेस्ड क्लासेज के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट नए संविधान में दे देगी.

प्रतिनिधत्व की बहस खत्म हो चुकी थी जब मोहनदास गांधी गोलमेज सम्मेलन के दूसरे सत्र में शामिल होने 1931 में लंदन आए. गांधी ने आते ही कहा कि सम्मलेन के अध्यक्ष ऐसा करें कि भारत के नेताओं को खुद में सलाह करने का समय दें और फिर वे सब मिल कर अंग्रेजों को एक सहमति पत्र सौंप देंगे. यह गांधी की एक कोशिश थी डिप्रेस्ड क्लासेज की अलग राजनीतिक पहचान को रोकने की. उन्हें पता था कि सब कुछ तय हो गया है और वह सबके सामने बोले तो अकेले उस फैसले को रोक नहीं पाएंगे. मगर गांधी अगर किसी तरह आतंरिक चर्चा के बहाने भारत के बाकी नेताओं को अपनी तरफ मिला लें तो शायद डिप्रेस्ड क्लासेज पर दबाव बना सकते थे. गांधी चाहते थे कि आतंरिक चर्चा तक अंग्रेजी हुकूमत गोलमेज सम्मेलन स्थगित कर दे. आंबेडकर ने कहा कि उन्हें आतंरिक बातचीत से कोई परहेज नहीं है. मगर उन्होंने शर्त रखी कि गांधी पहले सम्मलेन को सार्वजानिक रूप से बताएं की उन्हें डिप्रेस्ड क्लासेज की अलग राजनीतिक पहचान से कोई समस्या नहीं है. आंबेडकर ने अध्य्क्ष को कहा कि वह इसी शर्त पर गांधी की आतंरिक चर्चा में शामिल होंगे यदि उसमें डिप्रेस्ड क्लासेज के सेपरेट इलेक्टोरेट पर कोई सवाल नहीं उठाया जाएगा और वह उस चर्चा का विषय नहीं होगा. आंबेडकर का आधार था कि डिप्रेस्ड क्लासेज का अलग राजनीतिक दर्जे की बहस खतम हो चुकी है और उसका निर्णय सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत करेगी, न कि भारत का कोई महात्मा.

बहरहाल अंग्रेजी हुकूमत ने समेल्लन को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया और गांधी को आतंरिक चर्चा की इजाजत दे दी. जब दुबारा सम्मेलन शुरू हुआ तो गांधी ने अध्यक्ष से माफी मांगी कि वह लोगों को एक साथ नहीं ला पाए. मगर उन्होंने डिप्रेस्ड क्लासेज की राजनीतिक पहचान को छीनने का एक नया तरीका अपनाया. उन्होंने आंबेडकर पर कटाक्ष करते कहा कि जो लोग डिप्रेस्ड क्लासेज का सम्मेलन में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, वे असल में चुने हुए नेता नहीं हैं बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा मनोनीत हैं. इसके बाद उन्होंने खुद को ही डिप्रेस्ड क्लासेज का असली प्रतिनिधि बताया और कहा कि उनसे बड़ा हितैषी डिप्रेस्ड क्लासेज का भारत में कोई नहीं है. गांधी ने सभा को कहा कि वह किसी कीमत पर अछूतों के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट और आरक्षित सीट का समर्थन नहीं करते. उन्होंने कहा,

यह [अलग राजनीतिक पहचान] हिंदू धर्म में विभाजन ला देगी जो मैं कभी भी देखना नहीं चाहता. मुझे बुरा नहीं लगेगा अगर अछूत इस्लाम अपना लें या ईसाई धर्म अपना लें, अगर उनकी ऐसी इच्छा है. मैं वह बर्दाश्त कर लूंगा मगर मैं यह बर्दाश नहीं करूंगा, जो हिंदू धर्म के लिए भविष्य में तय है कि गांव में दो विभाजन कर दिए जाएंगे. जो लोग भी अछूतों के अलग राजनीतिक पहचान की बात करते हैं वे भारत को नहीं जानते. नहीं जानते कि कैसे भारतीय समाज बना है. इसलिए मैं अपने पूरे बल से, यहां तक की अगर इस चीज का विरोध करने वाला मैं अकेला आदमी भी होता, तो भी मैं अपनी जान लगा कर इसका विरोध करता.

आंबेडकर ने गांधी की इस बात पर आपत्ति जताई की वह खुद को डिप्रेस्ड क्लासेज का प्रतिनिधि बता रहे हैं. उन्होंने अपनी बात यह कह कर खत्म की कि,

मेरी बस इतनी गुजारिश है कि अगर आप सत्ता का हस्तानांतरण [भारतीयों को] करते हैं, तो वह हस्तानांतरण ऐसी शर्तों, ऐसे प्रावधानों के साथ करें ताकि सत्ता किसी भी हाल में किसी खास गुट, सामंत या लोगों का समूह, चाहे वह मुसलमान या हिंदू हो, के हाथों में सिमट कर न रह जाए. ऐसा हल निकालें कि सत्ता में हर समुदाय अपनी संख्या के अनुपात में बराबर हिस्सेदार हो.

अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने डिप्रेस्ड क्लासेज को हिंदुओं से अलग एक स्वतंत्र राजनीतिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया और उनके प्रतिनिधित्व को सेपरेट इलेक्टोरेट द्वारा भी स्वीकृत कर लिया. इसे कम्युनल अवार्ड भी कहते हैं. मगर इस निर्णय के बाद ही गांधी भूख हड़ताल पर बैठ गए. वह आंबेडकर की बहस को गोलमेज सम्मलेन में मात तो नहीं दे सके मगर भारत आते ही उन्होंने अपने चिर परिचित हड़ताल की राजनीति से डिप्रेस्ड क्लासेज को चुनौती दी. आंबेडकर लिखते हैं कि गांधी के हड़ताल पर जाते ही “सबकी नजरें” उन पर थी और उनको पूरे घटनाक्रम का “खलनायक” बना दिया गया था. आंबेडकर ने लिखा कि एक तरफ उनके ऊपर इंसानियत के नाते गांधी की जान बचाने की जिम्मेदारी आ गई, तो दूसरी तरफ उन्हें डिप्रेस्ड क्लासेज के हको के खत्म होने से बचाना भी था. देश के बिगड़ते हालात को देख कर आंबेडकर गांधी से समझौता करने को तैयार हो गए. समझौते के तहत डिप्रेस्ड क्लासेज की सीटें पहले से बढ़ा दी गईं मगर उनका सेपरेट इलेक्टोरेट छीन लिया गया. गांधी शुरुआत से ही दलितों के सेपरेट इलेक्टोरेट के खिलाफ थे.

बाद में, 1935 में, भारत सरकार अधिनियम पर ब्रिटिश संसद में जब पूना पैक्ट पर बहस हुई तो कई सांसद समझौते के खिलाफ थे. उन्होंने सदन के सामने रखा कि गांधी ने आंबेडकर को मजबूर किया था इस समझौते के लिए और इसलिए दलितों के दिए कम्युनल अवार्ड में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जाना चाहिए. मगर सरकार का पक्ष था कि कोई भी समझौता जिसमें भारतीय खुद अपनी सहमति से पहुंचे हों उसे सरकार मानने के लिए बाध्य है. पूना पैक्ट को स्वीकृत कर लिया गया और कम्युनल अवार्ड में बदलाव कर दिए गए. 1935 में अधिनियम पास होते ही भारत में नए संविधानिक सुधार लागू हो गए.

पूना पैक्ट आनेवाले दशक में दलितों के लिए आत्मघाती साबित होने वाला था. गांधी ने पूना पैक्ट के जरिए दलितों की राजनीतिक शाख लगने से पहले ही उखाड़ कर फेंक दी थी. पूना पैक्ट का परिणाम आज 90 साल के बाद भी दिखता है. जो भी दलित चुन कर संसद या राज्य की विधयिका में जाते हैं वे दलित वोटरों पर कम और ऊंची जातियों के हिंदुओं के वोटों पर अधिक निर्भर होते हैं. नतीजा यह होता है कि उन्हें दलितों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति से कोई मतलब नहीं होता. वे कठपुतली की तरह ऊंची जातियों के नेताओं, पार्टियों और सरकारों को आंख बंद कर समर्थन देते हैं. वे अपने ही लोगों के खिलाफ बन रहे कानून का समर्थन करते जाते हैं. आंबेडकर को आने वाली इस भयावह स्थिति का ज्ञान पहले ही था. उन्होंने कई बार दुबारा कोशिश की दलितों के लिए ब्रिटिश सरकार से सेपरेट इलेक्टोरेट लेने की मगर अब बहुत देर हो चुकी थी. अगले दस सालों में स्थिति इस कदर बदली कि आंबेडकर राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गए. मुस्लिम लीग, जिनके साथ वह अल्पसंख्यक होने के नाते अक्सर राजनीतिक गठबंधन करते, उसके नेताओं ने भी उनके साथ विश्वासघात किया. अंग्रेजों ने भी अनुसूचित जाति का इस्तेमाल करके उनको आखिर में हिंदुओं के भरोसे छोड़ दिया.

आंबेडकर ने कहा कि अछूतों को सीमित रूप से हिंदू माना जा सकता है कि वह हिंदुओं की तरह कृष्ण, राम, शिव जैसे पंथों को पूजते हैं. मगर उनकी यह पूजा पृथक होती है. हिंदुओं के मंदिरो में अछूतों का प्रवेश नहीं होता. आंबेडकर ने कहा कि एक ही भगवान की पूजा करने से दो अलग-अलग सुमदाय एक नहीं बन जाते. अगर ऐसा होता तो फ्रेंच, जर्मन, डच और कई यूरोपीयन देश के लोग जो ईसाई धर्म को मानते हैं अपने आप में अपनी अलग राजनीतिक पहचान नहीं रखते.

मगर उससे पहले, 1940 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया था. और इसके साथ ही ब्रिटेन की भारत को छोड़ कर जाने की जल्दबाजी भी. मार्च 1942 आते-आते ब्रिटेन की हालत कमजोर पड़ने लगी थी. जापान ने आजाद हिंद फौज की मदद से ब्रिटिश कॉलोनी सिंगापुर और बर्मा पर कब्जा कर लिया था. भारत के पूर्वोत्तर राज्यों पर खतरा मंडरा रहा था. ऐसे में ही ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अपने कैबिनेट से एक मंत्री, स्टैफर्ड क्रिप्स, को भारत भेजा था. क्रिप्स का काम था भारतीय नेताओं से जंग के लिए समर्थन हासिल करना और बदले में स्वतंत्र भारत का वादा करना. यह समर्थन इसलिए जरूरी था क्योंकि आजाद हिंद फौज के सैनिक कभी ब्रिटिश आर्मी का ही हिस्सा हुआ करते थे. ब्रिटिश सरकार में फौज में बड़ी संख्या में भारतीय थे; और ब्रिटेन जापान को चुनौती तभी दे सकता था जब उसे अपने सैनिकों की वफादारी मिलती. इस वफादारी को जीतने के लिए भारतीय नेताओं का समर्थन चाहिए था. और भारतीय नेताओं के समर्थन का मतलब यहां के हर समुदाय का समर्थन जो 20वीं सदी की शुरुआत से ही ब्रिटिश सरकार से अपने हकों के लिए अलग-अलग लड़ रहे थे. वैसे तो इस लड़ाई में सबसे बड़ा पक्ष एक तरफ कांग्रेस का था जो हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती थी और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग का जो मुसलमानों का नेतृत्व करती थी. मगर इनके साथ-साथ संख्या के हिसाब से कई छोटी कौमें भी थीं जैसे डिप्रेस्ड क्लासेज, जिसे 1935 के बाद अनुसूचित कहा जाने लगा और सिख, ईसाई, एंग्लो इंडियन एवं अन्य. और इनमें सबसे बड़ा था अनुसूचित जाति.

1942 में भारतीय नेताओं से मिलने के बाद क्रिप्स ने यह प्रस्ताव उन्हें दिया. उन्होंने कांग्रेस से जंग के बाद खुद के द्वारा गठित एक संविधान सभा द्वारा नया संविधान बनाने का वादा किया. दूसरी तरफ क्रिप्स ने मुसलमानों को इस संविधान से बाहर रहने की आजादी दी. उन्होंने मुसलमानों को भविष्य में अपना खुद का संविधान बनाने की छूट भी दे दी. मगर क्रिप्स ने अनुसूचित जाति या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए अपने प्रस्ताव में कुछ नहीं कहा. आंबेडकर ने क्रिप्स की इस अनदेखी को “म्युनिक मेंटालिटी” कहा. मतलब एक को बचाने के लिए दूसरे की बलि देना. आंबेडकर ने अनुसूचित जाति को संबोधित करते हुए कहा कि अब न तो तुम्हारा कोई गार्डियन है और न ही मुसलमानों के रूप में कोई राजनीतिक पार्टनर. उन्होंने कहा कि अब तुम खुद के सहारे हो और इसलिए जरूरी है कि संगठित रहो. उन्होंने उस रैली में अनुसूचित जाति को याद दिलाया कि उनकी राजनीति की सबसे बड़ी विरासत और सिद्धांत यही रहा है कि अनुसूचित जाति हिंदुओं से अलग एक स्वंतंत्र राजनीतिक समूह है. हालांकि, क्रिप्स ने अनुसूचित जाति के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं रखा था मगर उन्होंने सभी छोटे अल्पसंख्यकों को एक द्विपक्षीय संधि का विषय बनाने का प्रस्ताव दिया था. मतलब सारे धार्मिक और राजनीतिक अल्पसंख्यक, स्वंत्रता की स्थिति में भारत और ब्रिटेन के बीच एक संधि का हिस्सा होते जो उनके अधिकारों की रक्षा करती. भारत द्वारा इसके किसी भी उल्लंघन पर ब्रिटिश सरकार कार्रवाई कर सकती थी. मगर यह सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है. इसके अधिकार-क्षेत्र को कांग्रेस द्वारा बनाए नए संविधान के भरोसे छोड़ दिया जाना था. आंबेडकर ने कहा कि अगर क्रिप्स सचमुच अल्पसंख्यकों का भला चाहते हैं तो प्रस्तावित संधि को नए संविधान के अधिकार-क्षेत्र से ऊपर रखें नहीं तो नया संविधान बनते ही हिंदू भारत संधि को खत्म या कमजोर कर सकता है. आंबेडकर ने कहा कि बिना इस शर्त के संधि की कोई ताकत नहीं रह जाएगी.

लीग और कांग्रेस दोनों ने क्रिप्स के प्रस्ताव को यह कह कर ठुकरा दिया कि सारे वादे भविष्य में पूरे किए जाने हैं. क्रिप्स के बाद ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1946 में कैबिनेट मिशन भेजा. हालांकि अब अनुसूचित जाति के नजरिए से हालात दोनों ही देशों में बहुत बदल चुके थे. ब्रिटेन में अब लेबर पार्टी की सरकार थी जिसके प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली थे. वही एटली जिन्होंने ब्रिटिश संसद में पूना पैक्ट की बहस के समय गांधी का समर्थन किया था और कम्युनल अवार्ड में बदलाव के पक्षधर थे. जबकि उनके पूर्ववर्ती विंस्टन चर्चिल डिप्रेस्ड क्लासेज की मांग के प्रति संवेदना रखते थे. वह गांधी को बिलकुल पसंद नहीं करते थे. कैबिनेट मिशन के आने से दो महीने पहले ही भारत में प्रोविंशियल काउंसिल के चुनाव हुए थे जिसमें डिप्रेस्ड क्लासेज की राजनीतिक पार्टी, अनुसूचित जाति फेडरेशन, ने बहुत बुरा प्रदर्शन किया था. उनके बहुत अधिक सदस्य चुन कर नहीं आए थे. बाद में आंबेडकर ने इस कमी को ब्रिटिश प्रधान मंत्री एटली को समझाने की भी कोशिश की कि कैसे सेपरेट इलेक्टोरेट नहीं होने से उनके प्रतिनिधि नहीं चुने गए मगर एटली ने आंबेडकर की इस बहस को नहीं माना. चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह से कैबिनेट मिशन ने आंबेडकर और उनकी मांगों को बिलकुल तबज्जो नहीं दी. मिशन ने हिंदू-मुसलमान के बीच भारत की सत्ता को बांटने का प्रस्ताव दिया. हालांकि यह विभाजन जमीनों का नहीं था बल्कि संघीय प्रणाली का था. हिंदू अपना राज्य अपने कानून से चलाएं और मुस्लमान अपना राज्य अपने कानूनों से. इन दोनों की बहस में अनुसूचित जाति और अन्य सभी अल्पसंख्यकों के हकों की अनदेखी कर दी गई. अंग्रेज उन्हें सुनने को तैयार ही नहीं थे. हालांकि, मुस्लिम लीग और कांग्रेस की प्रतिद्वंदिता की वजह से यह मिशन भी फेल हो गया. मगर, अंग्रेज भारत छोड़ने का फैसला कर चुके थे. भारतीय नेताओं को मनाने के लिए अब कोई और मिशन भेजने का समय नहीं था. भारत का जमीनी विभाजन कर दिया गया. हिंदू भारत और मुस्लिम भारत (पाकिस्तान) को अपना संविधान, अपना देश बनाने का हक दे दिया गया.

दोनों तरफ के अनुसूचित जातियों को मजबूर होकर जिनसे वे लड़ते रहे उनको ही उनमें ही शामिल होना पड़ा. भारत में आंबेडकर कांग्रेस की बात मान कर सरकार में कानून मंत्री की हैसियत से शामिल हो गए. नई संविधान सभा का निर्माण प्रोविंसियल चुनाव में जीते प्रतिनिधियों को चुन कर किया गया था तो जाहिर तौर पर इस सभा में आंबेडकर के ज्यादा सहयोगी नहीं थे. उन्होंने अपनी मांगों को असेंबली के सामने रखा मगर एक के बाद एक वह पराजित हुए.

जो कुछ भी आजाद भारत में संवैधानिक सहूलियतें अनुसूचित जाति और जनजाति को मिलीं वे एक समझौता थीं, कोई जीत नहीं. और इस समझौते का परिणाम हम इंद्र की हत्या में आज भी देख रहें है. सेपरेट इलेक्टोरेट न होने से अनुसूचित जाति संसद में अपने सच्चे प्रतिनिधि को नहीं भेज पा रहे हैं, और संसद में उनके सही प्रतिनिधि न होने से उनके संवैधानिक प्रावधानों का कोई रखवाला भी नहीं है. वे सब सिर्फ नाम के कागजी कानून रह गए हैं. इसके बाबजूद हिंदुओं में अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ द्वेष कम नहीं हुआ है. संवैधानिक सुविधाओं को दशकों से इतने गलत तरीके से भारतीयों की चेतना में डाला गया कि हिंदू समझते हैं कि अनुसूचित जाति और जनजाति को यह हक खैरात के रूप में मिला था. उन्हें इस इतिहास से दूर रखा गया कि यह संवैधानिक प्रावधान ही दलितों और आदिवासियों के भारतीय संघ से जुड़ने की बुनियाद है. यह उस सहमति का सबूत है जिसके बिनाह पर ये दोनों कौमें भारत का हिस्सा होने के लिए राजी हुई थीं. यह वह प्रावधान है जो आजादी से पहले 40 साल तक भारतीय शासन व्यवस्था का हिस्सा रहा था.

दलित राष्ट्रीय जीवन में एक अलग राजनीतिक पहचान लेकर पैदा हुए और उसी शर्त पर भारत में शामिल भी हुए. भारतीयों को उस शर्त को बाइज्जत निभाना चाहिए.

अब इतिहास के उन पन्नों की बात जब आजाद भारत में दलित पहली बार शायद संवैधानिक सुरक्षाओं के खोखलेपन के प्रति जागरूक हुए. वे समझ रहे थे कि ये सुरक्षाएं तभी कारगर थी जब उनकी सरकार बनती मगर सेपरेट इलेक्टोरेट न होने से वे एक स्थायी अल्पसंख्यक बन गए थे. सत्ता से कोसों दूर, वे एक पर्याप्त राजनीतिक शक्ति भी नहीं बन पा रहे थे ताकि बहुसंख्यक हिंदुओं की राजनीति को प्रभावित कर पाएं. दिसंबर 1956 में दलितों के महापुरुष बी. आर. आंबेडकर इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. उनकी पार्टी अनुसूचित जाति फेडरेशन का नाम अब बदल कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया कर दिया गया था. यह वह पार्टी थी जो आजादी से पहले आंबेडकर के नेतृत्व में तीन दशकों तक पूरे देश के दलितों का प्रतिनिधित्व करती रही. लोगों को बहुत उम्मीदें थी आंबेडकर से. मगर आंबेडकर की मृत्यु के एक दशक के अंदर ही उनकी पार्टी बिखर गई. पार्टी कई गुटों, जैसे खोबरगड़े, गायकवाड़, कांबले और कई उप जातियों में बट गई. इनके नेता एक दूसरे के खिलाफ ही लड़ने लगे. आजाद भारत में दलितों और शोषितों को इकट्ठा करने वाले कांशीराम के शब्दों में कहें तो रिपब्लिकन पार्टी के नेता ने आंबेडकर के सपने को चकनाचूर कर दिया. उनकी पार्टी को दलित से आगे, भारत में ब्राह्मणवाद से सताए सभी समाजों की पार्टी बनाने के बजाए, उन्होंने उसे महारों की पार्टी बना दिया. वे वहीं नहीं रुके.

1960 के दशक का अंत होते-होते आंबेडकर के कई सहयोगी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए, वही कांग्रेस जिनके खिलाफ आंबेडकर ने ताउम्र राजनीति की थी. यही समय था जब कांशीराम महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी को छोड़ कर उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की राजनीति का एक नया प्रयोग करने आए. तीन दशकों बाद 1990 के दशक में कांशीराम के प्रयोग ने अपनी सफलता का चरम छुआ. बहुजन समाज के नेतृत्व में दलित पहली बार अपनी शर्तों पर सत्ता पर आए. दलित राजनीति में यह सबसे सफल प्रयोग था. इस प्रयोग की चर्चा मैंने अपने अंग्रेजी के लेख में पहले की है. वहीं पूरब में, बिहार में, दलित जमींदारों के शोषण के खिलाफ माओवाद के नेतृत्व में गोलबंद हो रहे थे. जहां उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन का लक्ष्य राजनीतिक सत्ता था, बिहार के दलित अपनी इज्जत और जमीन के लिए लामबंद हो रहे थे. दलितों के बिहार में आंदोलन की चर्चा मैं कभी और करूंगा.

बहरहाल, पश्चिम में महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं में टूट और उनके कांग्रेस में शामिल होने से दलित युवा लगातार असहज हो रहे थे. उन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था जिस पर चल कर वे अपनी पहचान बनाए रख सकते थे. 1960 के दशक के अंत और 1970 की शुरुआत में युवाओं के बीच किसी विरोध का आधार बनाने के लिए समाजवादी और कम्युनिस्ट विचारधारा ही थी. महाराष्ट्र में हिंदू पहचान के ऊपर एक क्षेत्रीय पार्टी, शिव सेना, भी बड़ी तेजी से उबर रही थी जिसके प्रति दलितों का झुकाव था. ऐसे में पेशे और शौक से कुछ आंबेडकरवादी लेखक और कवि, जो या तो किसी तरह से रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े थे या समाजवादियों से, ने एक वैकल्पिक प्लेटफार्म बनाया, दलित पैंथर्स. इसके तीन मुख्य संस्थापक थे : नामदेव ढसाल, राजा ढले और जे. वी. पवार. पवार अपनी किताब “दलित पैंथर्स, द ऑथोराटेटिव हिस्ट्री” में लिखते हैं कि अगर पैंथर्स न होता तो दलित युवा शिव सेना से बाहर नहीं निकल पाते और उसके प्यादे बन कर रह जाते.

उस वक्त के महाराष्ट्र के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश को बयान करते हुए, पवार लिखते हैं कि, “संविधान के अनुसार सत्ता का विकेंद्रीकरण शुरू हो गया था. मगर इस विकेंद्रीकरण से उन्हीं जातियों को फायदा हुआ जो पारंपरिक रूप से समाज को नियंत्रित करती थीं.” उन्होंने लिखा कि मोहनदास गांधी की हत्या के बाद वहां के मराठों ने ब्राह्मणों की सामाजिक सत्ता छीन ली थी. मगर 1970 के दशक के शुरुआत में अब मराठों ने ब्राह्मणों की जगह ले ली थी. गांव में जो पारंपरिक मुखिया होते थे वे मराठा ही होते थे जिन्हें पाटिल कहा जाता था. पवार लिखते हैं कि सरपंच का पद जब अस्तित्व में आया तो इसे भी गांव के “पाटिल” ही जीतने लगे थे. पवार लिखते हैं, “राजनीतिक परिवेश की बात करें तो बंगलादेश के निर्माण के बाद इंदिरा गांधी का राजनीतिक कद इतना बढ़ गया था कि वह संविधान के साथ लगातार छेड़छाड़ कर रही थीं. केंद्र में कांग्रेस की 350 सीटें थीं, महाराष्ट्र से 45 में 42 सांसद कांग्रेस के थे.” पवार लिखते हैं कि शासन-प्रशासन में “कांग्रेस के गुंडों” की पकड़ थी. कोई ऐसी संस्था नहीं थी जहां पैंथर्स का सामना कांग्रेस से नहीं होता.

ऐसे ही समय में अप्रैल 1970 में एलायापेरुमल रिपोर्ट संसद में रखी गई. एल. एलायापेरुमल एक सांसद थे जिनकी अध्यक्षता में दलितों के ऊपर हो रहे अत्याचारों का दस्तावेजीकरण करने और उसे रोकने के उपाय बताने के लिए 1965 में एक कमेटी गठित की गई थी. दलितों के ऊपर हो रहे शोषण का दस्तावेज करने की यह देश में पहली कोशिश थी. आज राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो हर साल इन अपराधों का दस्तावेजीकरण करता है. एलायापेरुमल रिपोर्ट ने दलितों के खिलाफ पिछले एक साल में हुए 11000 शोषण के मामले दर्ज किए जिनमें करीब 1977 दलितों की हत्या के थे. पवार ने लिखा कि इस रिपोर्ट के खुलासे ने पढ़े-लिखे दलितों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया था. वे यह सोचने लगे कि क्या उनके लिखने भर से दलितों पर हो रहे अतयाचार खत्म हो जाएंगे, क्या उनका लिखना भर ही काफी होगा? अभी यह रिपोर्ट दलित चेतना से गई भी नहीं थी कि महाराष्ट्र में 1972 में दलित अत्याचार की दो भयानक घटनाएं अखबारों में छपी. ये घटनाएं पैंथर्स के निर्माण का तात्कालिक कारण भी बनीं.

1960 के दशक का अंत होते-होते आंबेडकर के कई सहयोगी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए, वही कांग्रेस जिनके खिलाफ आंबेडकर ने ताउम्र राजनीति की थी. यही समय था जब कांशीराम महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी को छोड़ कर उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की राजनीति का एक नया प्रयोग करने आए. तीन दशकों बाद 1990 के दशक में कांशीराम के प्रयोग ने अपनी सफलता का चरम छुआ. बहुजन समाज के नेतृत्व में दलित पहली बार पनी शर्तों पर सत्ता पर आए.

यालाल भोटमांगे 28 जुलाई 2010 को मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस देने आते हुए. 29 सितंबर 2006 को खैरलांजी गांव में ऊंची जातियों के लोगों के साथ भूमि विवाद को लेकर दलित जाति के भोटमांगे के परिवार के चार सदस्यों- पत्नी सुरेखा भैयालाल भोटमांगे, बेटी प्रियंका और बेटे सुधीर और रोशन- की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी. इस हत्याकांड के बाद राज्य भर में हिंसक विरोध भड़क उठा. सज्जाद हुसैन/ एएफपी/ गैटी इमेजिस

पवार लिखते हैं कि उनमें से एक घटना बावडा गांव की थी जहां ऊंची जातियों ने दलितों का बहिष्कार कर दिया था. बहिष्कार की घोषणा किसी और ने नहीं बल्कि उस वक्त के एक राज्य मंत्री के भाई ने ही की थी. दूसरी घटना थी ब्राह्मणगांव की जो परभानी जिले में था. वहां ऊंची जातियों ने दो दलित महिलाओं को नंगा करके पूरे गांव में घुमाया था. इस दरमियान वे उनके नंगे शरीर पर बबूल की शाखों से पीटते भी रहे. उन महिलाओं का कसूर इतना था कि उन्होंने एक सार्वजानिक कुंए से पानी पिया था. इस घटना के विरोध में जुलाई 1972 में पैंथर्स ने पहली रैली निकाली. इस रैली में पैंथर ढाले ने सुझाव दिया कि दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचार का विरोध आने वाले स्वतंत्र दिवस को काला दिवस मना कर किया जाए. इस सुझाव का सबने समर्थन किया. विरोध का यह तरीका अपने आप में प्रतीकात्मक रूप से क्रांतिकारी था. दलित युवा सरकार को संदेश देना चाहते थे कि आजाद भारत में उनका शोषण रुका नहीं है.

यह कोई आम वार्षिक आजादी का महोत्सव नहीं था. 1972 में भारत की आजादी के 25 साल पूरे हो रहे थे और इंदिरा सरकार ने इसे देशभक्ति परोसने के सबसे बड़े मौके की तरह मनाने का फैसला किया था. हर राज्य की विधायिका को आजादी की आधी रात को सत्र बुलाने का आदेश दिया था. यह आदेश केंद्र की संसद के लिए भी था. 14 अगस्त की रात देश की राज्य और केंद्र की विधायिकाएं विशेष सत्र बुला कर आजादी मनाने वाले थे. सभी सरकारी दफ्तरों को बत्तियों से सजाने का आदेश था.

इससे पहले मई 1972 में उस वक्त के केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री नंदिनी सतपथी ने सरकारी आदेश दिया था कि थिएटर में हर व्यक्ति को राष्ट्रगान बजने पर खड़ा होना पड़ेगा. उन्होंने कहा कि अगर किसी व्यक्ति ने इस आदेश की अवमानना की तो उनके खिलाफ करवाई की जाएगी. इसी पृष्ठभूमि में अपनी तय योजना के तहत दलित पैंथर्स 14 अगस्त की रात आजाद मैदान में इकट्ठा हुए. यहां से वे अपने बाजू पर काला पट्टा बांध कर विधान भवन तक मार्च करने वाले थे. पवार लिखते हैं कि ढसाल पट्टा लाना ही भूल गए. फिर पवार अपने घर गए और अपना काला छाता लेकर आए. पैंथर्स ने छाते को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर अपने शर्ट की बटनों से बांध लिया क्योंकि रात इतनी हो गई थी कि उन्हें काले कपड़े को लटकाने के लिए पिन भी मिलना मुश्किल था. पवार लिखते हैं कि वहां से फिर सारे पैंथर्स विधान भवन पहुंचे. सरकारी आदेश के अनुसार आधी रात को विधान सभा का सत्र शुरू हो गया था. पैंथर्स ने भवन के सामने ही अपने सदस्यों को लेकर विधयिका का एक मॉक (नकली) सत्र शुरू किया. एक के बाद एक वक्ताओं ने अपने भाषण में दलितों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की मांग की. इस तरह पैंथर्स ने स्वतंत्रता दिवस की सिल्वर जुबली को काला दिवस के रूप में मना कर यह संदेश दिया कि उनके लिए आजाद भारत में कुछ भी नहीं बदला था.

स्वतंत्रता दिवस के दिन ही पैंथर ढाले की एक रचना “साधना” नाम के एक अखबार में प्रकाशित हुई. ढाले ने अपने लेख में बहस की कि भारत सरकार की नजर में एक दलित औरत की इज्जत भारतीय झंडे के सम्मान से भी कम है. यह लेख आग की तरह फैल गया. उनकी लेखनी में दलित समाज का रोष था जो ऊंची जातियों को चुभ रहा था. ढाले ने लिखा था, “भारतीय झंडा कपडे का सिर्फ एक टुकड़ा है, कुछ खास रंग का प्रतीक. फिर भी इसकी अवमानना के लिए बहुत भारी जुर्माना है. मगर एक हाड़ मांस की बनी औरत जिसकी कीमत सोने से भी अधिक है, अगर उसकी इज्जत लूट ली जाती है तो जुर्माना सिर्फ 50 रुपए का बनता है. ऐसे राष्ट्रीय झंडे का क्या महत्व है? क्या इसे पुट्ठे में घुसाना है? एक राष्ट्र का अस्तित्व वहां के लोगों से होता है. क्या एक प्रतिक के अपमान का दुख किसी इंसान के अपमान के दुख से ज्यादा बड़ा होता है? इससे ज्यादा क्या? हमारे सम्मान की कीमत एक साड़ी की कीमत से ज्यादा नहीं है. इसलिए ऐसे अत्याचारों की सजा बहुत कड़ी होनी चाहिए नहीं तो देशभक्ति कैसे आएगी.” ढाले इस लेख में ब्राह्मणगांव में हुई दलित महिलाओं के अत्याचार की बात कर रहे थे. ढाले के इस लेख के बाद कांग्रेस और शिव सेना के पार्टी सदस्यों ने पुणे में साधना प्रेस के ऑफिस पर हमला करने की योजना बनाई. यह पता चलते ही पैंथर्स की पुणे टीम ने उनको रोकने का फैसला किया. एक तरफ कांग्रेस और सेना के लोग “साधना प्रेस को जला डालो” का नारा लगाते हुए बढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ पैंथर्स की टीम ने मोर्चा खोल रखा था. दोनों में झड़पें हुई मगर पैंथर्स की ताकत देख कर कांग्रेस और सेना के सदस्य भाग खड़े हुए. पवार लिखते हैं कि पुणे में इतने ज्यादा लोगों के समर्थन की उनको उम्मीद नहीं थी.

पैंथर्स के प्रतिरोध के विभिन्न पद्धतियों में एक जरूरी पद्धति ब्राह्मणवाद पर लगातार प्रहार करने की थी. वे यह मानते थे कि बिना ब्राह्मणवाद को खत्म किए दलितों के ऊपर अत्याचार खत्म नहीं हो सकता क्योंकि वर्ण व्यवस्था को धार्मिक मान्यता ब्राह्मणवादी शास्त्र ही देते हैं. वर्ण व्यवस्था वह सामाजिक व्यवस्था है जो दलित को अछूत बनाती है और उनके खिलाफ भेदभाव की वकालत करती है. इस सामाजिक श्रेणी में सबसे ऊपर ब्राह्मण हैं, फिर क्षत्रिय और वैश्य और आखिर में शूद्र. इन सबसे अलग दलितों को पंचम या अवर्ण कहा गया है जिसमें उनके साये को भी प्रदूसित बताया गया है. पैंथर्स दलित आंदोलन के इतिहास में शायद अकेला प्रतिरोध था जिसने हिंदू धर्म को लगातार चुनौती दी. ऐसा करके वह आंबेडकर की मुहीम को आगे बढ़ा रहा था. आंबेडकर ने हिंदू धर्म को असामनता का द्योतक और गणतंत्र के खिलाफ की विचारधारा बताया है. मार्च 1973 को पैंथर्स ने घोषणा की हिंदू धर्मग्रंथ गीता को वे सार्वजानिक रूप से शिवाजी पार्क में जलाएंगे. यह वही पार्क था जहां शिव सेना शुरू हुई थी और वह अपनी सारी रैली वहीं किया करती थी. उनकी यह घोषणा उस वक्त हुई जब मुंबई नगरपालिका के चुनाव होने वाले थे. चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी शिव सेना को समर्थन दे रही थी. इसलिए सेना को अपने दलित वोटरों की चिंता भी करनी थी. सेना रिपब्लिकन पार्टी के वोट बेस पर निर्भर थी. इसलिए वह खुल के पैंथर्स की घोषणा के खिलाफ नहीं बोल पा रही थी. शायद इसलिए उन्होंने मामले को कानूनी तरीके से हैंडल किया.

योजना के मुताबिक, पवार लिखते हैं, 6 मार्च 1973 को पैंथर्स ललित कला भवन में इकट्ठा हुए. मीटिंग में उन्होंने नगरपालिका चुनाव का बहिष्कार करने का फैसला किया. पवार लिखते हैं कि पुलिस इंटेलिजेंस इस मीटिंग में पहले से मौजूद थे. उन्हें पैंथर्स के घोषणा की जानकारी थी. पवार लिखते हैं कि इंटेलिजेंस ऑफिसर्स को गुमराह करने के लिए उन्होंने उनसे कहा कि पैंथर्स शिवाजी पार्क नहीं बल्कि चैत्यभूमि जा रहे हैं. चैत्यभूमि मुंबई में आंबेडकर की समाधि स्थल है जो दलितों के लिए एक तीर्थस्थल जैसा है. पवार ने कहा कि पुलिस को भरोसा हो जाए इसलिए यह बात उन्होंने सार्वजानिक रूप से अपने कैडर को कही. पैंथर्स थोड़े खीझे भी क्योंकि योजना तो शिवाजी पार्क मार्च करने की थी, मगर वह चैत्यभूमि की तरफ चल दिए. पवार ने लिखा कुछ 500 पैंथर्स तिलक ब्रिज से चलते हुए दादर वेस्ट की तरफ बढ़े जहां चैत्यभूमि और शिवाजी पार्क दोनों स्थित है. पैंथर्स करीब आधी रात को शिवाजी पार्क पहुंचे जहां पुलिस पहले से भरी पड़ी थी. उन्होंने पार्क को एक ह्यूमन चेन बना कर घेरकर रखा था. पवार ने लिखा कि एक छोटे भाषण के बाद पैंथर्स ढाले ने अपनी जेब से गीता की एक प्रति निकाली और माचिस से इसमें आग लगा दी. आग लगते ही पुलिस वाले पैंथर्स ढाले पर टूट पड़े और उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उस रात 264 पैंथर्स को पुलिस ने गिरफ्तार कर उनके ऊपर धार्मिक भावना भड़काने का चार्ज लगा दिया. सुबह अखबारों में गीता को जलाने की खबरें आईं मगर उनमें पुलिस वर्जन ही छपा. पत्रकारों ने लिखा कि पैंथर्स की गीता को सार्वजानिक रूप से जलाने की योजना को पुलिस वालों ने रोक दिया. मगर सच यह था कि गीता जल चुकी थी. पवार लिखते हैं कि, “यह हमारा एक प्रतीकात्मक विरोध था धार्मिक नियमों के खिलाफ जो दलितों के शोषण का कारण था”.

दो सप्ताह बाद 18 मार्च को पैंथर्स ने जगन्नाथपुरी निरंजन तीर्थ के शंकराचार्य पर चप्पल फेंक कर अपना विरोध दर्ज किया. शंकराचार्य हिंदू धर्म के पुजारियों की श्रेणी में सबसे ऊपर होते हैं. उन्हें धर्म का कार्यवाहक माना जाता है. भारत में मुख्य रूप से चार शंकराचार्य हैं जो रूढ़िवादी हिंदू धर्म का पालन-पोषण करते हैं. उसी साल निरंजन तीर्थ ने कहा था कि अगर कोई चमार शिक्षित बन जाता है तब भी वह चमार ही रहेगा और अछूत अछूत ही रहेगा. शंकराचार्य के इस भाषण ने पैंथर्स को उत्तेजित कर दिया था. संविधान की अनुछेद 17 ने अनुसार अछूतता गैर कानूनी है. तभी 18 मार्च को जब शंकराचार्य किसी यात्रा में शामिल हो रहे तो एक पैंथर ने उनके ऊपर चप्पल फेंक दी थी. आज के जमाने में जब केंद्र में एक ब्राह्मणवादी सरकार है जिसका पोषक खुद ब्राह्मणवादी उग्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, इस तरह के विरोध की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. ऐसे में पैंथर्स का इतिहास प्रेरणादायक है. सच को सच कहने का, धर्म में निहित असामनता का विरोध करने का माद्दा सिर्फ पैंथर्स में था. यह विरोध इस बात का प्रतीक था कि कोई भी व्यक्ति संविधान के ऊपर नहीं है.

पैंथर्स के प्रतिरोध के विभिन्न पद्धतियों में एक जरूरी पद्धति ब्राह्मणवाद पर लगातार प्रहार करने की थी. वे यह मानते थे कि बिना ब्राह्मणवाद को खत्म किए दलितों के ऊपर अत्याचार खत्म नहीं हो सकता क्योंकि वर्ण व्यवस्था को धार्मिक मान्यता ब्राह्मणवादी शास्त्र ही देते हैं.

पैंथर्स निडर थे. उनके विरोध का एक पहलु यह था कि वे किसी राजनीतिक शक्ति से नहीं डरते थे चाहे वह कितना ही बड़ा तानाशाह क्यों न हो. अप्रैल 1974 में दलित पैंथर्स ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना आधिकारिक रूट बदलने के लिए मजबूर कर दिया. उस साल पुणे विश्विद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि देने का फैसला किया था. पैंथर्स दलितों पर बढ़ते अत्याचार के खिलाफ इंदिरा का विरोध कर रहे थे. पवार लिखते हैं कि सड़क के दोनों किनारों पर दलित पैंथर्स के सदस्य जगह-जगह इंदिरा गांधी के खिलाफ नारे लगा रहे थे. एक जगह उन्होंने सड़क बंद करने की भी कोशिश की. इसके जवाब में पुलिस ने न सिर्फ पैंथर्स को पीटा बल्कि वह दलित बस्तियों में घुसी और दलितों के मकानों और दुकानों को तोड़ दिया. हालांकि उनके विरोध का असर यह हुआ की इंदिरा गांधी ने वापसी में अपना रूट बदल लिया. पवार लिखते हैं कि पैंथर्स सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक सफल प्रेशर ग्रुप की तरह बन गया था जो दलित मुद्दों पर सरकारों और प्रशासन को कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर देता था.

ऐसे कई कारनामे पैंथर्स के नाम हैं. आपातकाल के बाद पैंथर्स के कई सदस्य अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के साथ काम करने लगे और तभी इसके संस्थापकों ने इसे खत्म करने का फैसला किया. पैंथर्स का इतिहास दलित चेतना में उग्रवाद के रास्ते को एक सफल उपाय के रूप में पेश करता है. यह सिर्फ समय की बात है जब दलित समाज के पास कोई और विकल्प नहीं होगा. भारत सरकार और बहुसंख्यक हिंदुओं को चाहिए कि वे संवैधानिक वादों को याद रखें और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करें. दलित राष्ट्रीय जीवन में एक अलग राजनीतिक पहचान लेकर पैदा हुए और उसी शर्त पर भारत में शामिल भी हुए. भारतीयों को उस शर्त को बाइज्जत निभाना चाहिए.

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