चैतन्य नागर
कोटा में करीब 1800 करोड़ रुपये का कारोबार करने वाली कोचिंग फैक्ट्रियों में हर साल लगभग दो लाख बच्चे दाखिला लेते हैं। उनकी आंखों में उधार में मिला या जबरन थोपा हुआ एक लक्ष्य होता है। डॉक्टर या इंजीनियर बनना सपनों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर होता है। माता-पिता से वादे किये हुए होते हैं, उनकी धमकियों का डर और उनकी कामनाएं पूरी करने का सपना भी कहीं मन के कोने में रहता है।
कोटा मध्यम वर्गीय भारतीय परिवारों के सपनों को ईंधन देने वाले एक विकृत, रुग्ण केंद्र बनने के अलावा भारत में आत्महत्या की राजधानी भी बन चुका है। कोटा भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर एक दुखदायी वक्तव्य है। एक ऐसा सडांध भरा ज़ख्म है जिसकी बदबू स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग सभी बच्चों तक देर-सवेर पहुंच ही जाती है।
आईआईटी में हर साल करीब नौ हज़ार सीटों पर बच्चे दाखिला लेते हैं। 13 से 15 साल की उम्र के ये बच्चे सफल होने तक घर-परिवार से दूर कोटा को अपना घर बना लेते हैं। इसलिए क्योंकि उन्हें बाकी प्रतिद्वंद्वियों से ‘बेहतर’ कर दिखाना होता है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले 12 दिसम्बर को कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बिहार से आये हुए तीन छात्रों ने खुदकुशी कर ली।
कोटा में हर वर्ष कम से कम 15 छात्र आत्महत्या करते हैं। इस साल अब तक 23 छात्रों ने खुदकुशी की है। कल ही नीट की परीक्षा के लिए कोचिंग करने आये 2 बच्चों ने खुदकुशी की। कोचिंग की समूची प्रक्रिया और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर इससे बड़े सवाल उठ रहे हैं।
हजारों बच्चे करते हैं खुदकुशी
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो आंकड़ों के मुताबिक भारत में वर्ष भर में 15,526 छात्रों ने आत्महत्या की है जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। 2019 की तुलना में यह प्रतिशत 21.19 फीसदी अधिक है। 1995 से एकत्र किये गए आंकड़ों के मुताबिक भारत में अब तक 1.8 लाख छात्रों ने आत्महत्या की है। विडम्बना है कि इधर देश में दसवीं, बारहवीं या किसी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा के परिणाम आते हैं और उधर देश में ख़ुदकुशी करने वालों की तादाद बढ़ जाती है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार वर्ष 2012 से 2014 के बीच 22,319 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। हर साल औसतन 7,460 छात्रों ने विष खाकर, फांसी का फंदा लगाकर, छत से कूदकर या रेल से कटकर जान दी है। प्रतिदिन औसतन बीस से अधिक बच्चे ख़ुदकुशी करते हैं। जिस समाज में सफलता की अंधाधुंध पूजा होने लगे, वहां जाने-अनजाने में बच्चों से सफलता की मांग करने वाले शिक्षक, मां-बाप, सभी मुखौटे लगाए हुए हत्यारे बन जाते हैं। ये आत्महत्याएं उनके दबाव की वजह से ही होती हैं।
कुछ और बड़े कारण
और भी वजहें हैं इस तरह की दर्दनाक घटनाओं के पीछे। 13 या 15 साल की उम्र में अपने परिवार से दूर जाकर दूसरे शहर में बसना बच्चों के लिए एक सदमे की तरह होता है। नए शहर में एक तो पढ़ाई का बोझ रहता है, और उससे निपट न पाने की स्थिति में कुछ और खतरे मुंह बाये खड़े मिलते हैं। नशीली चीज़ों का सेवन, यौन संबंधी जिज्ञासा, अकेलापन, दुश्चिंता, आर्थिक दबाव भी बड़े कारण हैं जिनकी वजह से बच्चे खुदकुशी के लिए मजबूर होते हैं।
कई छात्राएं कोटा में शारीरिक संबंधों के कारण गर्भधारण कर लेती हैं; न किसी से कह पाती हैं और न ही किसी से मदद ले पाती हैं। परेशान बच्चे व्यक्तिगत संबंधों में सुरक्षा ढूंढ़ते हैं और वहां भी परेशानी में पड़ जाते हैं। ऐसे में उनके विचार से खुद की जान लेना ही सबसे अच्छा उपाय होता है। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज की एक रिपोर्ट में ये बातें सामने आई हैं।
कोचिंग सेंटर में प्रवेश परीक्षा नहीं
पैसे कमाने के फेर में आम तौर पर कोटा के कोचिंग सेंटर में प्रवेश परीक्षाएं नहीं होतीं। चाहे कोई छात्र डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहता हो या नहीं, जिसके माता पिता वहां पहुंचते हैं, जेब ढीली करने को तैयार होते हैं, उनको ही एडमिशन दे दिया जाता है। हॉस्टल का जीवन शुरू होने के बाद ही उसकी तकलीफों का अहसास बच्चों को होता है। जो वहां एडजस्ट नहीं कर पाते, और कोई रास्ता नहीं ढूंढ़ पाते, माता-पिता के साथ अपनी बातें साझा नहीं कर पाते, आखिरकार खुद को आत्महत्या जैसे पीड़ादायी हादसे के सुपुर्द कर देते हैं।
गौरतलब है कि 15-29 वर्ष के आयु वर्ग में आज पूरी दुनिया में सर्वाधिक आत्महत्या की वारदात हिंदुस्तान में होती है। कोचिंग और ट्यूशन का हाल ये है कि एसोचैम द्वारा दस बड़े शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु, जयपुर, हैदराबाद, अहमदाबाद, लखनऊ और चंडीगढ़ में प्राइमरी कक्षा के 87 फ़ीसदी और सेकेंडरी स्तर के 95 प्रतिशत बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं।
मतलब यह कि स्कूल जाने वाले हर बच्चे के लिए ट्यूशन पढ़ना ज़रूरी हो गया है, भले ही मां-बाप को इसके लिए क़र्ज़ लेना पड़े। क़र्ज़ लिया बच्चा फेल हुआ तो मां-बाप भी डूबे, बच्चे भी। कितने क्रूर और असंवेदनशील समाज में हम जी रहे है! और यह सब हमारा ही किया कराया है। जब घर में ट्यूशन पूरा होता है, तब कोचिंग शुरू होती है। कभी-कभी दोनों साथ चलते हैं।
सफलता से आगे भी है जीवन
प्रतियोगी परीक्षाओं में पराजित होने वाले बच्चे जब ख़ुदकुशी करते हैं, तो उनके कानों में क्या यही शब्द नहीं गूंजते होंगे: ‘बेटा, डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस बन, नहीं तो फांसी लगा’। भले ही उनके मां-बाप और टीचर्स इन्हीं शब्दों में यह बात न कहें, पर उनकी देहभाषा, उनके हाव-भाव बच्चों को यही सन्देश देते हैं कि अब तो वे कहीं के न रहे। सिर्फ़ एक इंसान बनकर क्या होगा; जब तक डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी न बने, तो जीकर क्या होगा।
बच्चों को दुनिया के सारे रास्ते बंद दिखाई देते होंगे और ख़ुद के प्राण ले लेना ही एकमात्र समाधान के रूप में नज़र आता होगा। कहीं कोई सहानुभूति, करुणा के बारीक़ संकेत भी नहीं मिलते होंगे। बस हर जगह सवाल पूछती महत्वाकांक्षी, भूखी, निर्दयी आंखें दिखती होंगी: “क्यों, पास नहीं हुए नालायक? तुमसे और उम्मीद ही क्या थी? फलां को देखा, तुमने तो नाम ही डुबो दिया अपने मां बाप का।”
अपनी संतुष्टि और उपलब्धि के लिए अपने बच्चों का इस्तेमाल करने वाले माता-पिता की क्रूरता का एक स्पष्ट उदाहरण हैं निर्मम प्रतिस्पर्धा का वातावरण और उसके दबाव में आत्महत्या करने वाले बच्चे। बचपन से ही मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के अलावा इन दिनों सिविल सेवा के प्रति दीवानगी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। कई छात्र-छात्राएं स्कूली जीवन में ही आईएएस, डॉक्टर, इंजीनियर बनने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
सीबीएसई ने अब अपने कोर्स को इस तरह डिजाइन करने की सोची है कि बच्चे नौवीं से ही सिविल सर्विसेज के लिए कमर कस लें। ख़ासकर उन प्रदेशों में जहां औद्योगिक विकास कम या नहीं के बराबर है।
प्रशासनिक परीक्षाओं में सफल होने वाले परीक्षार्थी बुद्धि में औसत विद्यार्थी से कहीं ऊपर होते हैं यह सही नहीं। इनका महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इनमें धन, शोहरत कमाने की क्षमता ज़्यादा होती है। विवाह के बाज़ार में आईएएस कि धुआंधार क़ीमत लगती है। आईएएस हमारे उत्तर औपनिवेशिक युग का नया देवता है। जो परीक्षार्थी आगे चलकर आईएएस की जंग में कामयाब नहीं हो पाते, उनके लिए दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती, यह उन्हें समझाने वाला कोई है?
काउंसलिंग का अभाव
अधिकांश स्कूलों में मनोवैज्ञानिक काउंसलर नहीं होता जो उनके तनाव को कम करे, और उन्हें जीने के और भी तरीक़े सिखाए। बच्चे छोटी उम्र में ही भयंकर ‘लो सेल्फ एस्टीम’ (हीन भावना और ग्लानि बोध) के शिकार हो जाते हैं। उन्हें हमेशा लगता है जैसे उनसे कोई ग़लती हो रही है और इसलिए उनके मां-बाप और टीचर्स उनसे नाराज़ रहते हैं। कुछ तो समय के साथ ख़ुद को एडजस्ट करते हुए अपने हुनर का कहीं न कहीं उपयोग कर लेते हैं, पर कई कुंठाग्रस्त होकर जीवनभर निराश होकर घूमा करते हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश का किसान पिता उधार लेकर, खेती-बाड़ी में जुट कर बच्चे को इलाहाबाद, दिल्ली, कोटा या दूसरे शहर भेजता है, और बच्चे साल दर साल लगे रहते हैं। हर एक सफल प्रत्याशी के पीछे लाखों अश्रुपूरित नेत्र और कुंठित मन होते हैं। सिस्टम ही ऐसा है। आगे बढ़ने के लिए कितनों को पीछे धकियाना पड़ता है। क्रूर और आत्मकेंद्रित होना पड़ता है।
सभी हैं षडयंत्र में शामिल
ग़रीब और मध्यवर्ग के बच्चों को लगता है कि जीवन का एकमात्र लक्ष्य है स्कूल-कॉलेज में शानदार नंबर लाना और आईआईटी, आईआईएम या एम्स में दाखिला लेना। नामी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए मारकाट मची हुई है। आईआईएम की प्रवेश परीक्षा बहुत ही कठिन समझी जाती है। आईआईटी की तकरीबन दस हज़ार सीटों के लिए हर वर्ष लगभग 15 लाख छात्र भाग्य आज़माते हैं।
बच्चों की जिंदगियां दिनों-दिन संघर्षमय हुई जा रही हैं। इतने लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, कि किसी एक को ढूंढ़ कर उसे दोषी ठहराना मुश्किल हो गया है। एक लंबी कतार है षड्यंत्रकारियों की। दोषियों की। कई लोगों ने भी इस नरक के निर्माण में अपना-अपना योगदान दिया है। हमें अपने हिस्से के योगदान को गौर से निहारना होगा। कहीं हम भी इस पीड़ा में जाने अनजाने में शामिल न हो रहे हों।
(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।)