Site icon अग्नि आलोक

डॉ अमर पंकज की 2 ग़ज़लेंः

Share

(1)
शह्र की दीवार पर चिपके हैं मेरे इश्तिहार,
क़ैद हूँ तेरे क़फ़स में, तू बताता है फ़रार।

आतिशे गुल से हुआ रौशन चमन, आई बहार,
तोड़ डाले दिल ने माज़ी के किए सारे क़रार।

जिस्मो-जाँ हैं दफ़्न देखो राख़ के इस ढ़ेर में,
मत हवा दो हो न हो फिर से निकल आएँ शरार।

दोस्ती के नाम पर फैलीं मेरी बाँहें मगर,
क्यों तेरे हाथों में फिर लहरा रहे ख़ंजर कटार।

रंग-रोग़न मैंनें अपने घर में तो करवा दिया,
पर दिखाई दे रही दीवार में अब भी दरार।

नफ़रतों के दौर में कह तू मुहब्बत की ग़ज़ल,
इम्तिहाँ फिर ले रही है आज सदियों की सहार।

इश्क़ के दरिया में डूबा जो कलंदर बन गया,
तो ‘अमर’ किसके लिए तुझको बनाना है हिसार।

                  (2)

अफ़रा-तफ़री का आलम है,
क्या दिखलाएँ क्या दम-ख़म है।

देश बड़ा या धर्म बड़ा, अब,
चारों ओर बहस हरदम है।

भाई है भाई का दुश्मन,
जाने कैसा ये मौसम है!

तन-मन तृप्त रहे जिस जल से,
समझो गंगाजल-ज़मज़म है।

जीवन जोड़ विषम-सम का तो,
कैसे कह दूँ हर पथ सम है?

जब-जब आँसू बहते तब-तब,
दिल की दूरी होती कम है।

चाँद अँधेरी रात सुबकता,
सुब्ह ‘अमर’ हँसती शबनम है।

Exit mobile version