दमयन्ती धर
जैसे ही आप गुजरात के अहमदाबाद में एक शहरी झुग्गी बस्ती सिटिज़न नगर के पास पहुँचते हैं, कुख्यात 75 फीट ऊँचे पिराना कचरे के ढेर की दुर्गंध लगातार तीव्र होती जाती है। सिटीजन नगर तक जाने लायक कोई सड़क नहीं है। झुग्गी बस्ती के साथ-साथ एक खुला नाला बहता है जहाँ के निवासी आस-पास के रासायनिक कारखानों से निकलने वाले धुएं में मिश्रित हवा में निरंतर सांस लेने के लिए मजबूर हैं। सिटीज़न नगर 2002 के दंगों में विस्थापित हुए करीब 40 मुस्लिम परिवारों का आवास है, जो पिछले 20 वर्षों से यहाँ पर रह रहे हैं।
सिटीज़न नगर जिसे बॉम्बे होटल एरिया के तौर पर जाना जाता है, को केरल मुस्लिम लीग रिलीफ कमेटी के द्वारा दान दिया गया था, जिसकी अगुआई तब के मलप्पुरम सांसद, ई. अहमद ने की थी, जिनका देहांत फरवरी 2017 के शुरूआती दिनों में हो गया था। सिटीज़न शहर को 2002 के विस्थापितों के लिए एक अस्थायी शिविर के तौर पर स्थापित किया गया था, लेकिन अंततः यह उन मुस्लिम परिवारों के लिए स्थायी झुग्गी बस्ती के तौर पर तब्दील हो गया।
2002 के दंगों में तकरीबन दो लाख लोग विस्थापित हुए थे। इनमें से अधिकांश लोग एक साल तक विस्थापित का दंश झेलते रहे जब तक कि इस्लामिक राहत संगठनों ने कुछ स्थानीय एनजीओ के साथ मिलकर राज्य भर में 83 राहत शिविरों में 16,087 लोगों को बसा नहीं लिया।
वर्तमान में समूचे गुजरात में इस समय 83 राहत कालोनियों में 3,000 से अधिक की संख्या में परिवार रह रहे हैं – जिनमें अहमदाबाद में 15 बस्तियां, आणंद में 17, साबरकांठा में 13, पंचमहल में 11, मेहसाणा में आठ, वडोदरा में छह, अरावली में पांच और भरूच और खेड़ा जिलों में चार-चार बस्तियां हैं। अधिकांश बस्तियों का निर्माण कार्य चार संगठनों – जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, गुजरात सार्वजनिक राहत समिति, इस्लामिक राहत कमेटी, यूनाइटेड इकॉनोमिक फोरम के साथ-साथ कुछ छोटे-छोटे ट्रस्टों और स्थानीय गैर सरकारी संगठनों के द्वारा किया गया।
अहमदाबाद आधारित एनजीओ, जनविकास, जिसका काम दंगा विस्थापितों के बीच में है, से सम्बद्ध कार्यकर्त्ता, होज़ेफा उज्जैनी ने न्यूज़क्लिक को बताया, “इनमें से ज्यादातर बस्तियों में कोई बुनियादी सुविधायें नहीं हैं। 59 बस्तियों में पहुँचने लायक आंतरिक सडकें नहीं हैं, 53 बस्तियों में संपर्क सड़कें तक नहीं हैं, 68 बस्तियों में कोई गटर की व्यवस्था नहीं है, 18 बस्तियों में स्ट्रीट लाइट नहीं है और 62 बस्तियों के निवासियों के पास 20 वर्षों से यहाँ पर रहने के बावजूद मालिकाना अधिकार हासिल नहीं है।”
उन्होंने आगे बताया, “ये बस्तियां अधिकतर शहरों और कस्बों के बाहरी इलाकों में बनी हैं। कुछ बस्तियों में तो पीने का पानी, आंगनवाड़ी या प्राथमिक विद्यालयों जैसी बेहद बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। इन बस्तियों को 20 साल पहले हुए दंगों में विस्थापित लोगों के लिए एक अस्थायी शरण स्थली के तौर पर समझा गया था, लेकिन आज भी द्वेषपूर्ण स्थितियों के बने रहने के चलते वे कभी वापस नहीं लौट सके।”
गुजरात सरकार का बहु-प्रचारित ‘विकास मॉडल’ उन झुग्गियों और मलिन बस्तियों तक नहीं पहुँच सका है जहाँ दंगों में विस्थापित हुए मुसलमान इतने वर्षों से रह रहे हैं। अहमदाबाद में मुस्लिमों की सबसे बड़ी बस्ती, जुहापुरा जैसे इलाकों में, जहाँ बड़ी संख्या में दंगों में विस्थापित हो चुके लोगों को शरण मिली थी, वहां पर भी अहमदाबाद नगर निगम (एएमसी) की जल-आपूर्ति पाइपलाइन को 2016 में इस मामले में एक जनहित याचिका दायर किये जाने के बाद ही उपलब्ध कराया जा सका था। इससे पहले एएमसी की पाइपलाइन पड़ोस के हिन्दू-बहुल वार्ड जोधपुर तक आकर समाप्त हो जाती थी।
अहमदाबाद के मदनीनगर बस्ती में जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद के द्वारा निर्मित 300 से अधिक दंगा-विस्थापित परिवारों के घर आबाद हैं। यहाँ की महिलाओं को एक बोरवेल से पानी हासिल करने के लिए करीब एक किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था। मदनीनगर के निवासियों का कहना है कि राहत शिविर में आकर रहने के एक साल बाद ही उन्हें बिजली का कनेक्शन मिल गया था, लेकिन पानी का कनेक्शन 2016 में जाकर मिल पाया। कुछ वर्षों तक पानी की आपूर्ति और प्रबंधन का काम जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद के प्रतिनिधियों के द्वारा प्रति परिवार 150 रूपये के बदले में किया जाता था। लेकिन इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी टैंकरों से पानी लेना पड़ता है।
इन राहत बस्तियों के हालात के बारे में मुख्यमंत्री को अवगत कराने के लिए गुजरात सरकार के समक्ष कई बार नुमाइंदगी की जा चुकी है। जनविकास एनजीओ से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, गुजरात के मुख्यमंत्री को पांच आवेदन लिखे गये हैं, और 2015 से लेकर 2017 के बीच में 15 से अधिक ज्ञापन भेजे जा चुके हैं।
2016 में, अहमदाबाद स्थित अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्त्ता, कलीम सिद्दीकी के द्वारा आरटीआई (सूचना का अधिकार) आवेदन दायर किया गया था, जिसमें सिटीज़न नगर के 10 किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई थी। एएमसी ने अपने जवाब में क्षेत्र के सभी निजी दवाखानों सहित एक नूरानी हकीम, एसआर फकरूद्दीन के क्लिनिक को भी इस सूची में शामिल कर दिया था।
प्रमुख रूप से, राज्य भर के कस्बों और शहरों के बाहरी इलाकों में बनाए गये इन राहत शिविरों को अस्थायी शरणस्थली के तौर पर देखा गया था, लेकिन इनका समापन दंगों में विस्थापित लोगों के स्थाई घरों के रूप में हो गया है। इनमें से बहुत से लोग आर्थिक संकट और वहां के अस्थिर हालातों के भय की वजह से अपने पुराने इलाकों में वापस नहीं लौटे। 2002 के बाद से इन बस्तियों में रहने के बावजूद, कुछ ही लोग अपने नाम पर इन आवास का हक स्थानांतरित करा पाने में सफल रहे हैं। इसकी वजह से दूसरी दफा विस्थापित हो जाने का डर पैदा हो गया है।
47 वर्षीय, नदीमभाई सैय्यद पहले बढ़ई हुआ करते थे, जिनका नरोदा पाटिया वाला घर और बढ़ईगिरी की दुकान दंगों में जलकर ख़ाक हो गई थी। 2003 में अपने परिवार के साथ सैय्यद, सिटीज़न नगर में रहने के लिए आ गए। इन 20 वर्षों के दौरान उनके परिवार के सदस्यों की संख्या में विस्तार तो हो गया है, लेकिन वे इस झुग्गी बस्ती में बने एक कमरे में रहने के लिए मजबूर हैं।
होज़ेफा उज्जैनी कहते हैं, “कुछ दंगा-विस्थापित पीड़ितों ने सामूहिक रूप से एक निजी मालिक से एक राहत कॉलोनी स्थापित करने के लिए जमीन का एक टुकड़ा खरीदने में कामयाबी हासिल कर ली थी। हालाँकि, अधिकांश पीड़ितों ने या तो 2002 के उन्माद में अपने क़ानूनी दस्तावेज खो दिए या उन्हें कभी उचित दस्तावेज सौंपे ही नहीं गये। हिम्मतनगर और आणंद के राहत शिविरों में अब वहां के रहवासियों को खाली करने की धमकियां मिल रही हैं, क्योंकि संबंधित जमीन अब बेहद कीमती हो गई है। वे अब एक बार फिर से विस्थापित कर दिए जाने की कगार पर खड़े हैं।”
16 मार्च, 2002 को अपने सात लोगों के परिवार के साथ रहीमभाई ने भरूच के टंकरिया में एक राहत बस्ती में शरण ली थी। इस्लामिक रिलीफ कमेटी (आईआरसी) नामक एक गैर सरकारी संगठन के द्वारा इस पुनर्वास कालोनी को बसाया गया था, और यह दंगा प्रभावित आठ परिवारों का घर है, जो वडोदरा, खेड़ा और अहमदाबाद के विभिन्न क्षेत्रों से यहाँ पर विस्थापित हुए थे।
बीस साल बाद भी 12 फीट x 20 फीट का कमरा रहीमभाई का स्थायी निवास बना हुआ है।
2002 से जिस मकान में रह रहे हैं, उसका मालिकाना हक पाने के लिए संघर्ष कर रहे रहीमभाई कहते हैं, “मैं एक निजी बस चलाया करता था और अपनी खुद की मीट शॉप थी। हम वडोदरा के मकदरपुरा के अपने घर से किसी तरह जान बचा कर भागे। आईआरसी का एक प्रतिनिधि हमें यहाँ टंकरिया ले आया। हमने 2002 में बिजली के मीटर के लिए करीब 2,000 रूपये चुकता किये थे, जो हम भागते समय किसी तरह अपने साथ ले आये थे। लेकिन बिजली का कनेक्शन हमें 2005 में ही जाकर मिल पाया।”
रहीमभाई जो अब अपने जीविकोपार्जन के लिए नकली आभूषण बेचते हैं, कहते हैं, “मेरा घर जला दिया गया था और मेरी मीट की शॉप को अब किसी और ने हथिया लिया है।”