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“400 पार” एक जुमला था, जो “विपक्ष को उलझाने” के लिए उछाला गया था

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अगली लोकसभा में भाजपा ने अपनी 370 और अपने गठबंधन एनडीए की सीटों के 400 पार करने की आशा छोड़ दी है। तो मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया में अब बहस इस बात पर आ टिकी है कि क्या भाजपा अपना 2019 का प्रदर्शन दोहरा सकेगी। कुछ विश्लेषकों ने राय जताई है कि कमोबेस ऐसा होगा, जबकि कुछ अन्य विश्लेषकों का दावा है कि 2019 की संख्या 303 तो दूर, इस बार बहुमत के लिए अनिवार्य 272 सीटें हासिल करना भी भाजपा के लिए दूभर होगा।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा दोनों अब यह कह चुके हैं कि “400 पार” एक जुमला था, जो “विपक्ष को उलझाने” के लिए उछाला गया था।

सत्येंद्र रंजन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा दोनों अब यह कह चुके हैं कि “400 पार” एक जुमला था, जो “विपक्ष को उलझाने” के लिए उछाला गया था। दोनों ने अलग-अलग मीडिया इंटरव्यू में दावा किया कि भाजपा का ये दांव कारगर रहा। विपक्ष काफी समय तक इस जुमले से बनी धारणा को काटने में उलझा रह गया।

उनके दावे की हकीकत में गए बगैर महत्त्वपूर्ण बात इस तथ्य पर ध्यान देना है कि अगली लोकसभा में भाजपा ने अपनी 370 और अपने गठबंधन एनडीए की सीटों के 400 पार करने की आशा छोड़ दी है। तो मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया में अब बहस इस बात पर आ टिकी है कि क्या भाजपा अपना 2019 का प्रदर्शन दोहरा सकेगी। कुछ विश्लेषकों ने राय जताई है कि कमोबेस ऐसा होगा, जबकि कुछ अन्य विश्लेषकों का दावा है कि 2019 की संख्या 303 तो दूर, इस बार बहुमत के लिए अनिवार्य 272 सीटें हासिल करना भी भाजपा के लिए दूभर होगा।

चूंकि मीडिया और मीडियाकर्मियों को ऐसे दावेदारों के बीच बहस कराना दिलचस्प लगता है- और दरअसल इसमें उनका व्यावसायिक स्वार्थ भी शामिल रहता है, इसलिए कई दिनों तक उन्होंने चर्चा को प्रशांत किशोर बनाम योगेंद्र यादव में उलझाए रखा। (गौरतलब है चुनाव रणनीतिकार किशोर ने अनुमान लगाया है कि भाजपा अपनी 2019 की स्थिति बरकरार रखेगी या उससे कुछ बेहतर प्रदर्शन करेगी, जबकि डेढ़ दशक पहले तक सेफोलॉजिस्ट रह चुके यादव ने भाजपा के 240 से 260 सीटों के बीच सिमट जाने का दावा किया है।)

ऐसे दावों पर चर्चा करना मजेदार हो सकता है, मगर इनसे कुछ हासिल नहीं होता। आखिरकार उपरोक्त दावे दो व्यक्तियों के अपने-अपने अनुमान भर हैं। फिलहाल ऐसे असंख्य अनुमान चर्चा में हैं, और निर्विवाद है कि इस तरह के तमाम अनुमान व्यक्ति के अपने रुझान और उसकी इच्छाओं से प्रभावित होते हैं। इसीलिए कई गंभीर राजनीति-शास्त्रियों ने संख्याओं के अनुमान में उलझने से इनकार कर दिया है।

मगर इस बात पर लगभग आम सहमति है कि चुनाव अभियान की शुरुआत में जैसा सियासी माहौल था, अंत आते-आते उसमें काफी बदलाव आ चुका है। बदलाव इस वजह से आया कि मौजूदा आर्थिक नीतियों से पीड़ित आम जन के एक बड़े हिस्से ने भावनात्मक मुद्दों में बहने के बजाय इस बार अपनी पीड़ा के लिए सियासी जवाबदेही तय करने की समझ दिखाई है। प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में दलित समुदाय से आने वाले एक व्यक्ति की एक टीवी चैनल के संवाददाता से यह बातचीत इस बात की एक मिसाल है। 

पत्रकार ने पूछा कि क्या दलित समुदाय के लोग बहनजी (बसपा प्रमुख मायावती) के साथ हैं। उस व्यक्ति का जवाब थाः हम हमेशा बहनजी के साथ रहेंगे। लेकिन इस चुनाव में हमने उनका साथ छोड़ दिया है। इस बार हम लोग कांग्रेस को वोट दे रहे हैं।

उस व्यक्ति ने इसकी वजह बताईः सब लोग महंगाई और बेरोजगारी से बहुत परेशान हैं।

पत्रकार ने पूछा कि मोदी जी ने तो इतना विकास किया है, तो फिर आप लोग उन्हें वोट क्यों नहीं दे रहे हैं। उस व्यक्ति का जवाब थाः मोदी जी ने सड़क बनवाई है। लेकिन उससे हम गरीबों को क्या फायदा है। (वाराणसी में) कॉरिडोर बनवाया है, लेकिन जाकर देखिये क्या वहां किसी गरीब की दुकान है। सब धनी लोगों की दुकानें मिलेंगी। हम लोग महंगाई और बेरोजगारी से परेशान हैं। पहले हम लोग मोदी जी को वोट दे रहे थे। लेकिन इस बार हम नहीं देंगे।

जो बात उस व्यक्ति ने कही, वैसी अनगिनत मिसालें इस बार हमारे सामने आई हैं।

महंगाई और बेरोजगारी। ये दो शब्द इस बार के चुनाव में प्रभावशाली कथानक बन गए हैं। संभवतः ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि असल में ये सिर्फ दो शब्द नहीं हैं। बल्कि इन शब्दों के अंदर करोड़ों लोगों का भविष्य छिनने और उनकी बदहाली बढ़ने की करोड़ों कहानियां छिपी हुई हैं। इन दोनों समस्याओं ने करोड़ों लोगों को गरीबी के दुश्चक्र में फिर से धकेल दिया है, जहां से निकलने के यत्न में उनकी पहले की पीढ़ियों ने अपनी जिंदगी लगा दी थी।

मतदान से पहले चरण से भी पहले जारी हुए सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वे से सामने आया था कि लगभग 60 फीसदी मतदाताओं की निगाह में महंगाई और बेरोजगारी इस समय की सबसे बड़ी मुसीबतें हैं। सर्वेक्षणकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि लोग ना सिर्फ इन समस्याओं से पीड़ित हैं, बल्कि इसको लेकर वे सचेत भी हैं। इसके बावजूद अप्रैल के दूसरे हफ्ते में हुए उस सर्वेक्षण में 40 प्रतिशत लोगों ने भाजपा को वोट देने का इरादा जताया था।

उस सर्वे रिपोर्ट के विश्लेषकों में से एक ने इसी हफ्ते एक टीवी डिस्कसन में कहा कि यह उस समय की सूरत थी। बात जब आगे बढ़ी, तो इन समस्याओं के इर्द-गिर्द एक नैरेटिव भी बनने लगा। उपरोक्त विश्लेषक ने कहा कि तब जिन 40 प्रतिशत लोगों ने भाजपा के पक्ष में राय जताई थी, उनमें 4-5 प्रतिशत ऐसे थे, जिन्होंने कहा था कि वे भाजपा को इसलिए वोट देंगे, क्योंकि विकल्प के रूप में कोई और मौजूद नहीं है। सर्वे के बाद बदले हालात पर टिप्पणी करते हुए विश्लेषक ने कहा कि ऐसा लगता है कि उन 4-5 फीसदी लोगों में से एक बड़े हिस्से ने अपना मन बदल लिया। उन्होंने शायद भाजपा को हराने के लिए मतदान करने का मन बनाया। इससे चुनावी सूरत अस्पष्ट हो गई है। अब मुमकिन है कि भाजपा को पिछली बार जैसी कामयाबी नहीं मिले।

क्या ऐसा सचमुच होगा? यह जानने के लिए हमें चार जून तक इंतजार करना होगा।

लेकिन अब तक प्राप्त संकेतों के आधार पर यह बात अभी कही जा सकती है कि हिंदुत्व के एजेंडा का विस्तार तो दूर अब संभवतः उसके प्रभाव में सिकुड़न शुरू हो गई है। आखिरकार ठोस जमीनी हालात, रोजी-रोटी की वस्तुगत परिस्थितियों ने अपने को जोरदार ढंग से व्यक्त करना शुरू कर दिया है। लेकिन इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी कि यह अभिव्यक्ति फिलहाल अपने बिल्कुल शुरुआती दौर में है, या यह इतनी मजबूत शक्ल ले चुकी है, जिससे चुनाव नतीजा निर्णायक रूप से प्रभावित होने लगे।

किसी अन्य पूर्वाग्रह आधारित भावनात्मक मुद्दे की तरह हिंदुत्व के एजेंडे को भी ताकत नफरत और अयथार्थ धारणाओं से मिलती रही है। ये धारणाएं इसलिए इतनी मजबूत हो पाईं, क्योंकि देश के शासक वर्ग ने राजनीतिक विमर्श में बुनियादी मसलों को हाशिये पर भेजने की अपनी रणनीति के तहत इन्हें हवा दी- इन्हें प्रचारित किया, और इस एजेंडे की वाहक सियासी ताकत तो तमाम तरह के संसाधन उपलब्ध कराए। इस तरह भारतीय समाज के बहुसंख्यक समुदाय के बीच हिंदुत्व का वर्चस्व कायम करने की कोशिश की गई।

यह कोशिश इसलिए इतनी आसानी से कामयाब हो गई, क्योंकि उसका वैचारिक मुकाबला करने वाली राजनीतिक शक्तियों का अभाव होता चला गया। 1990 के दशक में जब यह परियोजना शुरू हुई, तब कम्युनिस्ट एवं अन्य वामपंथी संगठनों ने इसका मुकाबला किया था। नवोदित दलित-बहुजन भी उसके विरुद्ध खड़ा नजर आया था।

मगर हिंदुत्व के वैचारिक हमले और शासक वर्गों की व्यूह रचना के बीच वामपंथी संगठन कमजोर पड़ते चले गए। इस सदी का दूसरा दशक आते-आते राष्ट्रीय विमर्श में वे हाशिये पर पहुंच गए। उधर आरएसएस-भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी रणनीति के जरिए दलित-बहुजन उभार को अपनी परियोजना में समाहित कर लिया।

इस तरह ऐसा लगने लगा कि हिंदुत्व के एजेंडे के सामने कोई ऐसी वैचारिक रुकावट नहीं रह गई है, जिसकी कोई साख हो। इन्हीं परिस्थितियों के कारण अभी कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि इसे एंजेडे का शिकंजा और कसता रहा है। मगर इस चुनाव के दौरान संकेत मिले हैं कि रोजी-रोजी के सवालों ने इसके विस्तार पर रोक लगा दी है। ये सवाल इसके प्रभाव को किस हद तक कम कर पाए हैं, इस बारे में अभी कुछ कहने के ठोस संकेत हमारे पास नहीं हैं। इसका उत्तर चार जून को मिलेगा, जिस दिन मतगणना होगी।

असल में क्या होगा, यह अभी मालूम नहीं है। अभी हम उपलब्ध संकेतों को समझने की कोशिश कर रहे हैं। ठोस निष्कर्ष पर पहुंचने की स्थितियां तो चार जून के बाद ही बनेंगी। 

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