आजादी की 75वीं सालगिरह : तमाशा वे दिखा रहे हैं, जो तमाशबीन भी न थे
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बादल सरोज
विडम्बनाओं के इतिहास बने या न बने, इतिहास में विडम्बनाएं अक्सर आती-जाती रहती हैं और यदाकदा खुद को दोहराती भी रहती हैं। भारत की आजादी की 75वीं वर्षगाँठ का मुबारक मौके पर दिख रही विसंगति इसका एक ताजा उदाहरण है — यहां आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का तमाशा वे दिखा रहे हैं, जो भारत की जनता द्वारा लड़ी गयी आजादी की महान लड़ाई में तमाशबीन भी नहीं थे – उसकी सुप्त कामना भी उनके मन में नहीं थी। अलबत्ता सारे दस्तावेज गवाह हैं कि वे और उनके पुरखे इस महान स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ थे ; 190 वर्ष भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी राज के चाकर और ताबेदार थे।
जिस संगठन – आरएसएस – का निर्माण ही आमतौर से 1857 और खासतौर से प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के काल के जनांदोलनों में बनी और रौलट एक्ट, असहयोग, खिलाफत से मजबूत हुयी विभिन्न धर्मावलम्बियों खासकर हिन्दू-मुस्लिम फौलादी एकता को तोड़ने के मकसद से हुआ है ; जो संगठन जोतिबा फुले के सत्यशोधक समाज के जबरदस्त आंदोलन और तेजी से उभरे दलित जागरण से “हिन्दू समाज की रक्षा” के लिए इटली के मुसोलिनी से गुरुमंत्र और जर्मनी के हिटलर से प्रेरणा लेकर आया हो ; जिसका भारत की आजादी की लड़ाई में रत्ती भर का योगदान नहीं हो, आज वही आजादी के अमृत महोत्सव के बहाने खुद के चेहरे पर पुती कालिख को जगमग सफेदी बताने की असफल कोशिशों में जुटा है। मगर कालिख इतनी गाढ़ी है कि सारे तामझाम के बावजूद धुल नहीं रही।
ऐसा नहीं कि जतन में कोई कसर है। सारे घोड़े और खच्चर खोल दिए गए हैं। पहले देश की कथित नामचीन हस्तियों – सेलेब्रिटीज – को साम-दाम-दण्ड भेद से अपनी रेवड़ में दाखिल किया गया। फिर लेन-देन के सौदे के साथ कार्पोरेट्स को साझीदार बनाया उनकी अंधाधुंध कमाई की एवज में उनके मीडिया के जरिये मोदी को न भूतो न भविष्यतः महामानव साबित करने की अंधाधुंध मुहिम छेड़ी गयी। इससे भी काम नहीं बना, तो इसी के साथ पटेल और शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस और अम्बेडकर और न जाने कितने औरों को पिता के रूप में गोद लेने की तिकड़में रचीं। इस बीच इसी के साथ नेहरू, गांधी और कम्युनिस्टों पर झूठे आरोपों का तूफ़ान-सा लाकर स्वतंत्रता संग्राम के उन बुनियादी मूल्यों को ध्वस्त करना चाहा – जिनकी बुनियाद पर भारत एक देश बना है।
कुपढ़ों के गिरोह को इतिहास बदलने और उसकी जगह झूठा और कल्पित इतिहास रचने के काम पर लगा दिया। करोड़ों फूंक कर झूठ से अधिक खतरनाक अर्धसत्य की कीच फैलाने वाली फिल्मो का ताँता सा लगा दिया। धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों का नारा देने वाले, भारत विभाजन के पहले सिद्धांतकार और खुद को रानी विक्टोरिया की सेवा के लिए उत्सुक तत्पर चाकर के रूप में सदैव हाजिर और प्रस्तुत रहने के माफीनामे लिखने वाले सावरकर को वीर बताने के लिए दुनिया इधर से उधर कर दी। मगर कलंक इतना पक्का चिपका है कि सारे धत्करमों के बावजूद उसे छुड़ाना संभव नहीं हो पा रहा है। छूटे भी तो आखिर छूटे कैसे, आदतें, कारनामे और दिशा वही है, तो मुखौटे कितने भी लगा लें, शक्ल तो वही रहेगा ना!
कहते हैं कि पुरानी आदतें मुश्किल से जाती हैं, जन्मजात विकार तो लाख उपाय करने के बाद भी नहीं जाते। आजादी के अमृत महोत्सव के इन स्वयंभू उतसवियों का भी यही हाल है। लड़ाई अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ी गयी थी – इनके विमर्श और प्रचार में अंगरेजी राज, अंग्रेजों की लूट, डकैती की तरह से हड़पी गयी भारतीय जनता की विराट सम्पदा से चमचमाता ब्रितानी ऐश्वर्य नहीं है। उस जमाने में हुए अत्याचार और नरसंहार नहीं है। भारत को दो सैकड़ा वर्ष पीछे धकेल देने की अंग्रेजों की वह आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक आपराधिक हरकत नहीं है, जिसके लिए खुद ब्रिटिश समाज और इतिहासकारों ने कम्पनी और वायसरायों के राज की निंदा और भर्त्सना की है, आज भी कर रहे हैं। उनका पूरा कुप्रचार मुगलों के खिलाफ है।
इसे कहते हैं, राजा से भी ज्यादा वफादार बनने की शेखचिल्लियाना कोशिश। मगर मसला यहीं तक नहीं है – स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने पर भाजपा सहित आरएसएस की सारी भुजायें उसी एजेंडे को लागू करने पर आमादा हैं, जिसे भारत की जनता की एकता को बिखेरने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें सौंपा था।
मुसलमानों के खिलाफ नफरती अभियान और उनके साथ सरासर गैरकानूनी और अलोकतांत्रिक बर्ताव सावरकर के उसी द्विराष्ट्रवाद पर अमल है, जिसे उस जमाने में बाद में जिन्ना ने लपक लिया था और मौके का फायदा उठाकर अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने भारत पर विभाजन थोप दिया था। इसी जहर को आगे तक फैलाने के लिए पिछली बार मोदी ने हर साल 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का आव्हान किया था। जाहिर है इसके माध्यम से दोनों तरफ सूख चुके घाव हरे किए जाएंगे।
आठ अप्रैल, 1929 को क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में जिन दो कानूनों – मजदूरों को बेड़ियों में जकड़ने वाले ट्रेड डिस्प्यूट बिल और सरकार के विरोध को रोकने के लिए लाये जाने वाले पब्लिक सेफ्टी एक्ट – के लाये जाने के खिलाफ बम फेंके थे, उनसे ज्यादा बदतर क़ानून सारे श्रम क़ानून समाप्त करके चार लेबर कोड लाने के जरिये लाये जा चुके हैं। भारतीय जनता के लोकतांत्रिक प्रतिरोध को कुचलने के लिए, सरकार विरोधी आवाजों को खामोश करने के लिए सत्ता के सारे अंग और निकाय झोंके जा रहे हैं।
भारत में दो-दो अकाल लाने, खेती को बर्बाद कर देने वाली अंग्रेजों जैसी नीतियां अब अमरीकी अगुआई वाले साम्राज्यवाद के कहने पर लाई जा रही हैं। किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने इसे फिलहाल भले ठहरा दिया हो, तिकड़में और साजिशें जारी हैं। विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों से भारत को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भी डर लगता था। भारत की जनता ने अपने पैसे से ही उस वक़्त शिक्षा के विस्तार के जरिये खोले थे – संघ-भाजपा ठीक अंग्रेजों के दिखाए रास्ते पर चलकर शिक्षा को हर तरह से जनता की पहुँच से बाहर और अंधविश्वासी बना देने के इंतजाम कर रही है। अमृत महोत्सव का तमाशा इसी प्रहसन का एक और अंक है।
निर्लज्ज दीदादिलेरी की हद यह है कि अपने इन आपराधिक कामों में वह तिरंगे सहित राष्ट्रीय प्रतीकों का ही इस्तेमाल कर रही है। वह तिरंगा, जिसे आरएसएस ने कभी भारतीय ध्वज नहीं माना, उसके तीन रंगों को अशुभ और उसमें बने चक्र को अभारतीय बताया, जिसे आजादी के बाद के 52 वर्षों तक उसने कभी नहीं फहराया, जिसने भारत के संविधान का विरोध किया और आजाद भारत का राज मनुस्मृति के आधार पर चलाने की मांग की, जिसने स्वतन्त्रता प्राप्ति के दिन 15 अगस्त 1947 को देश भर में काले झण्डे फहराने का आव्हान किया, नाथूराम गोडसे सहित जिससे जुड़े लोगों ने आजादी मिलने के पांच महीनो के भीतर ही महात्मा गांधी की हत्या करवा के स्वतंत्र राष्ट्र को अस्थिर करने की कोशिश की ; आज वही राष्ट्रवाद और देशभक्ति का शोर मचाकर एक कुहासा खड़ा कर देना चाहते हैं, ताकि इस कुहासे की आड़ में में देश और जनता की सम्पत्तियों की देसी-विदेशी धनपिशाचों द्वारा लूट और भारत को मध्ययुग में धकेलने के कुचक्र रचे जा सकें।
अच्छी बात यह है कि भारत की जनता के विराट बहुमत ने इस विडम्बना को समझना शुरू कर दिया है। मगर सारे संचार और प्रचार तंत्र पर इसी गिरोह के एकांगी वर्चस्व के चलते यह काम आसान नहीं है। यूं भी “सच जब तक जूते के फीते बांध रहा होता है, तब तक झूठ पूरे शहर में घूम आया होता है” की कहावत से सीखकर असली सच को जोर-शोर से जनता में ले जाने की जरूरत है।
देश की मेहनतकश जनता के करीब तीन करोड़ सदस्यता वाले तीन प्रतिनिधि संगठनों अखिल भारतीय किसान सभा, सीटू और अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन ने इस जरूरत को समझा है और आजादी की 75 वीं सालगिरह के पखवाड़े में स्वतन्त्रता आंदोलन में आरएसएस की गद्दारी को जनता के बीच ले जाने का अभियान चलाने का फैसला लिया है।
वर्ष 1947 में अगस्त महीने की 14 तारीख की रात 12 बजे आजादी का एलान करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने “नियति के साथ करार” (ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी) के नाम से प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि “आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो महज एक कदम है, नए अवसरों के खुलने का, इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। क्या हममें इतनी शक्ति और बुद्धिमत्ता है कि हम इस अवसर को समझें और भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करें?”
वे इसे और ठोस रूप देते हुए बोलते हैं कि ; “भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा करना। इसका मतलब है गरीबी और अज्ञानता को मिटाना, बीमारियों और अवसर की असमानता को मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर एक आँख से आंसू मिट जाएँ। शायद ये हमारे लिए संभव न हो, पर जब तक लोगों की आँखों में आंसू हैं और वे पीड़ित हैं, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।”
और यह भी कि “भविष्य हमें बुला रहा है। हमें किधर जाना चाहिए और हमारे क्या प्रयास होने चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानो और कामगारों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम गरीबी, अज्ञानता और बीमारियों से लड़ सकें, हम एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश का निर्माण कर सकें, और हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना कर सकें, जो हर एक आदमी-औरत के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके। ” .
इस आजादी और इस भाषण दोनों की 75 वी सालगिरह के दिन देश के मजदूर-किसान यह पड़ताल करेंगे कि उस रात भाषण में जो कहा गया था, वह कितना हुआ? नहीं हुआ, तो क्यों? और अब होगा, तो कैसे?
शायर फ़ज़ल ताबिश ने कहा था कि : “रेशा रेशा उधेड़कर देखो, रोशनी किस जगह से काली है।” स्वतन्त्रता की 75वीं सालगिरह के मौके पर फैलाई जा रही कृत्रिम चकाचौंध में अपने अपराधों को छुपाने की कोशिश करती कालिमा के रेशे-रेशे को उधेड़ कर ही अन्धेरा लाया और बचाया जा सकता है।
मजदूर-किसानों के यह तीनों संगठन पखवाड़े भर के अभियान के बाद 14 अगस्त 2022 की रात 12 बजे भारत के मजदूर किसान शहीदे आज़म भगत सिंह के कहे कि ”मैं ऐसा भारत चाहता हूं, जिसमें गोरे अंग्रेजों का स्थान हमारे देश के काले दिलों वाले भूरे या काले-अंग्रेज न लें। मैं ऐसा भारत नहीं देखना चाहता, जिसमें सरकार और उसे चलाने वाले नौकरशाह व्यवस्था पर प्रभावी बने रहें।” को दोहराते हुए संकल्प लेंगे कि इस लक्ष्य को हासिल करने के मंसूबे बनाएंगे। कुल जमा ये कि स्वतन्त्रता के 75वें साल में “हम भारत के लोग” उन्हें बेनकाब करेंगे, जो तब भी उपनिवेशवाद और जुल्मियों के साथ थे, आज भी साम्राज्यवाद और कूढ़मगजी के साथ हैं।
*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। मो. : 94250-06716)*